अनूप भटनागर
न्यायपालिका की फटकार और निर्देशों के बावजूद राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिये चुनावों में मतदाताओं को तरह-तरह का प्रलोभन देने से बाज नहीं आ रहे हैं। लगता है कि अब मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उन्हें तरह-तरह की मुफ्त सुविधायें और प्रलोभन देने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिये पुख्ता कानून बनाने का समय आ गया है।
राजनीतिक दलों और चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों के वादों और घोषणापत्रों को देखकर कई बार सवाल उठता है कि ये देश और राज्य के कल्याण के बारे में संकल्प पत्र हैं या फिर मतदाताओं को खुलेआम रिश्वत देने की पेशकश करने के प्रलोभन पत्र हैं। क्या इस तरह के वादे जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण के दायरे में नहीं आने चाहिए? अगर पहली नजर में ये भ्रष्ट आचरण लगते हैं तो फिर निर्वाचन आयोग इन पर अंकुश क्यों नहीं लगा रहा है?
चुनाव के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिये मुफ्त में टेलीविजन, मंगलसूत्र, प्रेशर कुकर और ऐसी ही अनेक वस्तुयें देने के वादों का सिलसिला तमिलनाडु से शुरू हुआ। आगामी चुनाव में एक प्रत्याशी ने मतदाताओं को आईफोन देने, तीन मंजिले घर देने और उन्हें चांद की सैर कराने जैसे वादे किये हैं। चुनाव के दौरान राजनीतिक दल बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिये हर साल लाखों लोगों को रोजगार देने से लेकर सत्ता में बने रहने के लिये बिजली और पानी तक मुफ्त देने का वादा करने में संकोच नहीं कर रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक दलों के पास इन वादों को पूरा करने की क्षमता है या फिर वे जनता के पैसे का ही इस्तेमाल करके अपने चहेतों में रेवड़ियां बांटने का सपना देख रहे होते हैं।
न्यायपालिका ने चुनाव के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिये तरह-तरह के उपहार देने के वादों की बढ़ती प्रवृत्ति को देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिये कभी भी उचित नहीं पाया। उच्चतम न्यायालय ने जुलाई, 2013 में कहा था कि चुनाव घोषणा पत्रों में मतदाताओं से किये गये वादे जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं होते लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मुफ्त में रेवड़ियां देने के वादे समाज के सभी वर्गों को प्रभावित करते हैं। इस तरह की गतिविधियां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ों को हिला देती हैं।
हालांकि, न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को यह निर्देश जरूर दिया था कि चुनाव की घोषणा के साथ ही लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता में अलग एक शीर्षक के तहत राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों के संबंध में भी प्रावधान किया जाये। शीर्ष अदालत ने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के संबंध में अलग से कानून बनाने का भी सुझाव दिया था।
मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के मुद्दे पर फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई आगे चल कर देश के प्रधान न्यायाधीश बने। यही नहीं, सेवानिवृत्ति के बाद जहां न्यायमूर्ति सदाशिवम केरल के राज्यपाल बने वहीं न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को राष्ट्रपति ने राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया।
न्यायालय के इस फैसले के बाद आयोग ने आदर्श आचार संहिता में एक नया उपबंध शामिल किया था, जिसके तहत मतदाताओं को प्रभावित करने वाली तमाम घोषणायें करने पर प्रतिबंध लगाये गये थे। आयोग ने कई राजनीतिक दलों को नोटिस भी जारी किये थे लेकिन स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया। शायद यही वजह है कि एक बार फिर इस प्रवृत्ति के खिलाफ न्यायपालिका को ही कदम उठाना पड़ा है।
बहरहाल, मतदाताओं को मुफ्त रेवड़ियां देने के वादे का मुद्दा एक बार हाल ही में तमिलनाडु चुनाव के दौरान ही मद्रास उच्च न्यायालय में उठा। इस मामले में अब उच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से जानना चाहा है कि राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में इस तरह के वादों की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के संबंध में कानून बनाने की दिशा में क्या प्रगति हुई है कि इस तरह के वादे करने वाले राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को इन्हें पूरा करने के लिये इन पर पर होने वाले खर्च का 10 प्रतिशत वहन करने के लिये जिम्मेदार क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए।
देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धन बल और बाहु बल से मुक्त कराने के लिये प्रयत्नशील सभी हितधारकों के पास अभी भी स्थिति पर काबू पाने का समय है। केन्द्र सरकार, निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों ने अगर समय रहते इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाये तो आने वाले समय में इसके परिणाम और गंभीर हो सकते हैं।