किसी भी राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में समाज का विशेष योगदान रहता है। अपने नैतिक चरित्र के लिए विश्वविख्यात रहा भारतीय समाज आज स्तरीय परीक्षण के आधार पर किस पायदान पर आ खड़ा हुआ है, देश में निरंतर बढ़ते दुष्कर्म प्रकरण यह बताने के लिए काफी हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ के जशपुर स्थित राजीव गांधी शिक्षा मिशन द्वारा संचालित ‘समर्थ दिव्यांग केंद्र’ में घटित नरपैशाचिक कृत्य ने समूची मानवीयता को शर्मसार करते हुए मानुषिक संवेदनाओं को पुन: कठघरे में ला खड़ा किया है।
कथित रूप से छात्रावास अधीक्षक की अनुपस्थिति का अनुचित लाभ उठाते हुए, शराब के नशे में धुत्त दिव्यांग आवासीय प्रशिक्षण केंद्र के संरक्षक तथा चौकीदार ने रात के समय छात्रावास में उत्पात मचाते हुए एक नाबालिग विकलांग बच्ची को अपनी दुष्वृत्ति का शिकार बनाया। साथ ही 14 से 16 वर्ष के मध्य आयु वर्ग की अन्य पांच बच्चियों के साथ घिनौनी छेड़छाड़ करते हुए उनके वस्त्र तक विदीर्ण कर डाले। यही नहीं, जान बचाने हेतु यत्र-तत्र भागती बच्चियों को बड़ी ही क्रूरता से परिसर की नालियों में फेंक दिया। बीच-बचाव करने आई सफाईकर्मी को आरोपितों ने बाथरूम में बंद कर डाला।
आश्चर्य होता है, क्या ये दरिंदे उसी गौरवशाली संस्कृति की उपज हैं, जहां संरक्षक निज दायित्व का निर्वाह करते हुए अपना जीवन तक सहर्ष दांव पर लगा देते थे? दुर्भाग्यपूर्ण, लेकिन वर्तमान परिवेश का कटु सत्य यही है कि विकृत मानसिकता का यह वीभत्स रूप मानवीयता पर इस कदर हावी होने लगा है कि बाड़ द्वारा खेत खाए जाने की कही-अनकही घटनाएं अब अक्सर देखने में आती हैं।
जशपुर की यह घटना हमें कांकेर जिले के झलियामारी गांव का स्मरण दिलाती है जहां 2013 में आदिवासी लड़कियों से संबद्ध एक आवासीय पाठशाला में 15 नाबालिग छात्राओं पर गंभीर यौन हमला हुआ था। संबंधित मामले में शिक्षा विभाग के दो अधिकारियों समेत आठ लोग गिरफ़्तार किए गए थे।
घटनाओं की पुनरावृत्ति स्पष्ट संकेत है कि हमारा तंत्र मानमर्दन जैसे जघन्य अपराध रोकने में सर्वथा नाकाम सिद्ध हो रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़े बताते हैं कि देश में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में कमी आने की अपेक्षा, सात प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। बलात्कार के प्रतिदिन औसतन 77 मामले दाखिल किए गए। वर्ष 2020 के आंकड़ों के अनुसार 28,046 महिला दुष्कर्म पीड़िताओं में 2,655 नाबालिग बच्चियां हैं। अनुमानत: देश में प्रतिदिन 130 बच्चे यौन हिंसा का शिकार होते हैं। यह आंकड़ा जहां हमारी न्याय प्रक्रिया तथा दंडविधान की खामियां दर्शाता है वहीं व्यवस्था के संवाहकों का बहुरूपियापन भी उजागर करता है। दु:ख का विषय है कि राष्ट्र की छवि धूमिल करने वाली ऐसी घटनाओं को रोकने हेतु प्रतिज्ञाबद्ध होने की अपेक्षा, राजनीतिज्ञों की रुचि आरोप-प्रत्यारोप द्वारा स्वार्थ की रोटियां सेंकने में अधिक रहती है। ऐसे मामलों का प्रान्तीयता, वर्ग, जातिवाद आदि संकीर्ण दायरों में सिमटकर राष्ट्रव्यापी जनाक्रोश के रूप में अपनी पकड़ मजबूत न बना पाना भी मन को कचोटता है।
ये घटनाएं, संरक्षण केंद्रों की सुरक्षा-व्यवस्था एवं समुचित प्रबंधन पर भी प्रश्न खड़े करती हैं। विचारणीय है, मूक-बधिर आवासीय परिसर में ऐसा एक भी व्यक्ति उपलब्ध नहीं था जो मौजूदा स्थिति में, पीडि़त दिव्यांगों की सांकेतिक भाषा समझने की सामर्थ्य रखता हो। छात्रावास अधीक्षक द्वारा विशेष शिक्षक बुलाने पर ही समूचे प्रकरण का विवरण मिलना संभव हो पाया। तत्काल शिकायत दर्ज करवाने में बरती गई कोताही भी संदेहास्पद है।
सहयोग की अपेक्षा से ही समाज सृजित होता है। एक ओर शारीरिक चुनौतियों को मात देकर हमारी दिव्यांग बेटियों अवनि लेखारा तथा भाविना बेन पटेल ने विदेशी धरती पर अभूतपूर्व सम्मान अर्जित किया, दूसरी ओर अपने ही देशवासियों ने संरक्षक बनकर असहाय बेटियों का गौरवमर्दन कर डाला। इस अक्षम्य अपराध के लिए आरोपितों के विरुद्ध कठोर दंड सुनिश्चित करवाने हेतु क्या समाज की समग्र सहभागिता अनिवार्य नहीं? क्या हमारा समाज मूक, बधिर बन चुका है जो ताबूत में बंद नागरिक-सुरक्षा के झूठे आश्वासनों के विरुद्ध कड़ा संज्ञान लेते हुए सुषुप्त व्यवस्थाओं को कुंभकर्णी नींद से जगाना भी आवश्यक नहीं समझता?
जहां संवेदनाओं का मर्दन हो और अपराधी निर्भीकता से घूमते रहें वहां सभी संरचनाएं अर्थहीन लगती हैं। जो देश बेटियों की सुरक्षा ही सुनिश्चित न कर पाए वहां ‘बेटी दिवस’, ‘बालिका दिवस’ आदि ‘दिवस विशेष’ मनाने का क्या अभिप्राय रह जाएगा? जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो हृदय किस पर भरोसा करे? रिसते घाव अंतर्मन की पीड़ा कहें, तो किससे?