शमीम शर्मा
जादू वाली झप्पी की ऐसी की तैसी हो चुकी है। अब कोई गले नहीं मिलता। कोई घर नहीं बुलाता। गपशप बंद। कभी-कभार मित्रों या परिजनों का फोन आ जाता है और तीन हर्फी बात होती है-आप ठीक हो? जवाब रहता है कि हां ठीक हूं। तो फिर ठीक है। बस इस छोटी-सी तीन वाक्यों की वार्ता का अर्थ निकलता है कि चलो सब ठीक-ठाक है। जबकि सच्चाई यह है कि न मन ठीक है और न तन ठीक है। न घर ठीक है और न जहान ठीक है।
एक अंदरूनी किरकिराहट-सी हर जिगर में उतर आई है। दिमाग में हर पल अर्थी और चिताग्नि के बिंब उभरते हैं। कोयल के गीत और मोर के नृत्यों का जिक्र सुने मुद्दत हो गई है। नदियों के पास कोई खड़ा दिख जाये तो यही लगता है कि जरूर किसी अपने के फूल बहाने आया होगा। समय तो हमेशा से ही बदलता आया है पर इस तरीके से बदलेगा, यह कल्पना के बाहर है। मृतक के मुंह में न गंगाजल, न तुलसी पत्र, न चार कन्धों की शवयात्रा, न ही राम नाम का उद्घोष। बस सीधी पैकिंग और चिताग्नि। जैसे कभी-कभार हम घर के बाहर पड़े कचरे के ढेर में आग लगा देते हैं।
जब भी कोई जान-पहचान वाला दुनिया को अलविदा कहता है तो लगता है कि हमारे दिल से कोई चला गया है। इस मुट्ठी से आकार वाले दिल में हजारों लोग रहते हैं। बुरा वक्त आता है तो ऊंट पर बैठे को भी कुत्ता काट जाता है। जो बहुत ही नेमी धर्मी, समय के पाबंद और सहज रहने वाले लोग थे, वे भी बेवक्त जा रहे हैं। रोज सुनने में आता है कि वह नहीं रहा, वो नहीं रहा। और हमारे मुंह से शोक व आश्चर्य मिश्रित अरे… के सिवा कुछ नहीं निकलता। एक पल गहन चुप्पी छा जाती है पर भीतर चीखों की बाढ़ आने लगती है।
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एक बर की बात है अक सुरजे की लुगाई मरगी तो नत्थू अफसोस करण गया अर बैठते ही पूच्छ्या— के हो गया था, क्यूंकर मरगी? सुरजा बोल्या—अपणे भाई की बरात मैं जावै थी। अर उसके ताऊ नै गोली चलाई जो उसके मात्थे मैं जा लगी। नत्थू ढांढस बंधाते होये बोल्या—शुकर है रामजी का, आंख तो बचगी बिचारी की।