राजकुमार सिंह
भारतीय राजनीति में ताऊ के संबोधन से लोकप्रिय चौधरी देवीलाल के निधन को आज बीस साल हो गये। इक्कीसवीं शताब्दी के ये शुरुआती दो दशक भारतीय राजनीति में परिवर्तनकारी कालखंड भी हैं। 6 अप्रैल, 2001 को जब देवीलाल का निधन हुआ, केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपानीत राजग सरकार थी तो हरियाणा में खुद देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चौटाला की सरकार। आज भी केंद्र में तो भाजपा को अकेलेदम स्पष्ट बहुमत वाली नरेंद्र मोदी की भाजपानीत राजग सरकार है, पर हरियाणा में परिदृश्य बदल गया है। दशकों भाजपा देवीलाल की उंगली पकड़ कर राजनीति करती रही, सत्ता में साझीदार भी रही, लेकिन अब राज्य में मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व वाली भाजपानीत सरकार में देवीलाल के पड़पोते दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जजपा की हैसियत जूनियर पार्टनर की है। दरअसल यह परिदृश्य तो बदलाव का संकेतक भर है, क्योंकि बदल बहुत कुछ गया है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने ऐतिहासिक पराभव से गुजर रही है तो भाजपा का राजनीतिक ग्राफ लगभग चरम पर है। कांग्रेस से राजनीति शुरू कर गैर कांग्रेसी राजनीति के बड़े क्षेत्रीय चेहरे बने किसान नेता देवीलाल की कांग्रेस के पराभव में भूमिका नकारी नहीं जा सकती, लेकिन उसका लाभ प्रदेश से लेकर देश तक भाजपा को ही मिला, जबकि देवीलाल जिस लोकदली-समाजवादी राजनीति का प्रतिनिधित्व करते थे, वह लगभग हाशिये पर चली गयी।
आपातकाल से कांग्रेस के पराभव की शुरुआत मान लें, तो निश्चय ही 1977 से 98 तक राष्ट्रीय राजनीति और उसके भी बाद तक क्षेत्रीय राजनीति लोकदली-समाजवादी पृष्ठभूमि वाली तीसरी धारा के इर्दगिर्द घूमती रही। उस राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में भाजपा की भूमिका अक्सर महत्वपूर्ण सहयोगी की ही रही, लेकिन दोनों में एक बड़ा फर्क भी रहा। लोकदली-समाजवादी राजनीति के क्षत्रप परस्पर कलह और सत्ता संघर्ष में अपनी ऊर्जा और समय ज्यादा गंवाते रहे, जबकि अपनी विचारधारा और लक्ष्य के साथ भाजपा चुपचाप अपने मिशन में जुटी रही। खासकर 1996 में 13 दिन की वाजपेयी सरकार के अपमानजनक अनुभव के बाद तो भाजपा ने केंद्रीय सत्ता के साथ-साथ राष्ट्रव्यापी विस्तार को ही एकमात्र लक्ष्य बना लिया। 1996 से 98 के बीच केंद्र में बनीं एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल सरकार तो वस्तुत: भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस की जेबी सरकारें ही थीं, लेकिन 1977 और 1989 में बनीं गैर कांग्रेसी सरकारें व्यवस्था परिवर्तन के लिए स्पष्ट जनादेश का परिणाम थीं, जिन्हें क्षत्रपों का आपसी सत्ता संघर्ष ही ले डूबा। मेरा मानना है कि दोनों बार ये गैर कांग्रेसी सरकारें पूर्व कांग्रेसियों की सत्ता लालसा और उसके लिए रची गयी साजिशों की शिकार हुईं।
आपातकाल के विरुद्ध लंबे संघर्ष से जन्मी जनता पार्टी को मतदाताओं ने वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए जनादेश दिया था, लेकिन पुराने कांग्रेसी मोरारजी भाई देसाई और हवा का रुख भांप कर चुनाव के वक्त कांग्रेस से बगावत करने वाले बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन गये। वरिष्ठता के नाते देसाई के नाम पर सहमति भी बन गयी और सरकार भी, लेकिन उत्तर भारत के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता चौधरी चरण सिंह को किनारे करने के लिए पूर्व कांग्रेसियों के कुचक्र नहीं रुके, जिसकी अंतिम परिणति जनता पार्टी के विभाजन में हुई और अवसर का लाभ उठा कर कांग्रेस मध्यावधि चुनाव का मार्ग प्रशस्त करने में सफल हो गयी। जनता की आशाएं जब निराशा में बदलती हैं तो प्रतिक्रिया बहुत तल्ख होती है। जिन इंदिरा गांधी और कांग्रेस के भविष्य पर सवालिया निशान लगाये जाने लगे थे, वही 1980 में केंद्रीय सत्ता में लौट आये। लंबे संघर्ष के बाद देवीलाल को भी सत्ता तभी 1977 में नसीब हुई थी, जो पूर्व कांग्रेसी भजनलाल की चालों के चलते ज्यादा दिन नहीं चल पायी।
1989 की गैर कांग्रेसी सरकार राजीव गांधी के विरुद्ध बोफोर्स के आरोपों से उठे बवंडर में विपक्षी एकता से जन्मी थी। परस्पर कलह में ही खंड-खंड हुए लोकदली-समाजवादी धारा के सभी दल जनता दल के नाम से एक बार फिर एकत्रित हुए, पर नेतृत्व स्वीकार कर लिया बोफोर्स के आरोप लगा कर कांग्रेस से बगावत करने वाले राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का। उत्तर भारतीय दलों का जमावड़ा जनता दल अकेले कांग्रेस का विकल्प बनने में सक्षम नहीं था, सो क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर राष्ट्रीय मोर्चा बनाना पड़ा। फिर भी केंद्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा और वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन की जरूरत पड़ी। वह भारतीय राजनीति की अनूठी घटना थी, जब दक्षिणपंथी भाजपा और वामपंथी दलों ने केंद्र में किसी सरकार को एक साथ बाहर से समर्थन दिया। बेशक रक्षा सौदों में दलाली के आरोप लगा कर राजीव गांधी सरकार और कांग्रेस से बाहर निकले राजा अचानक नायक बन गये। उसमें मीडिया और अक्सर परिवर्तन को व्याकुल मध्यम वर्ग की भी बड़ी भूमिका थी, लेकिन राजनीतिक ढांचा और जनाधार तो लोकदल और जनता पार्टी जैसे दलों के पास ही था। लोकदली-समाजवादी नेताओं में परस्पर अहं का टकराव था, जिसका लाभ राजा ने उठाया। इसी टकराव का लाभ उठा कर राजा अंतत: प्रधानमंत्री भी बन गये। संसदीय दल की बैठक में नेता चुन लिये जाने के बावजूद देवीलाल द्वारा राजा को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे कर देना ताऊ का त्याग भी माना जा सकता है, पर उसके बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री पद पर उनके पुत्र ओमप्रकाश चौटाला की ताजपोशी के लिए महम कांड समेत जो कुछ हुआ, उससे उनकी साख पर आंच ही आयी। चौटाला ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री पद नहीं संभाल पाये और बार-बार बदलते मुख्यमंत्रियों से इन संदेह और सवालों को ही बल मिला कि क्या ताऊ ने हरियाणा की सत्ता के एवज में प्रधानमंत्री के बजाय उपप्रधानमंत्री बनना पसंद किया था? वक्त की विडंबना देखिए कि जिन राजा के पक्ष में चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री पद से वंचित करने के लिए ताऊ ने त्याग किया था, उन्होंने ही उन्हें उपप्रधानमंत्री पद से बर्खास्त किया। यही नहीं, जनता दल विभाजन के चलते चंद्रशेखर सरकार में भी देवीलाल को उपप्रधानमंत्री ही बनना पड़ा। हां, इस बीच वह अपने पुराने नेता चौधरी चरण सिंह, जिनके प्रति प्रतिद्वंद्विता का भाव भी उनमें कई बार दिखा ही, के पुत्र अजित सिंह की घेराबंदी में सफल रहे। उत्तर प्रदेश में उन्होंने राजा की मदद से अजित के मुकाबले मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनवा दिया तो बिहार में भी लालू यादव की ताजपोशी करवा कर चरण सिंह की राजनीतिक विरासत हासिल करने का दांव चला।
जनता दल के नाकाम प्रयोग पर कहा जा सकता है कि क्षत्रप एक-दूसरे से हिसाब-किताब चुकता करने में सफल रहे, लेकिन अंतिम परिणति तो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के रूप में ही सामने आयी। देवीलाल-चौटाला की तरह मुलायम को भी यह संतोष रहा कि आखिर चरण सिंह सरीखे दिग्गज के राजनीतिक वारिस को हाशिये पर धकेल दिया, पर अंत में खुद कहां पहुंचे? यही भ्रम लालू को रहा कि विश्वनाथ प्रताप और देवीलाल की मदद से पुराने लोकदली-समाजवादी दिग्गजों ही नहीं, रामविलास पासवान-नीतिश कुमार सरीखे नये खिलाड़ियों को भी धता बता कर बिहार पर एकछत्र राज कायम कर लिया, पर अंतिम परिणति क्या हुई? देश भर में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस के विरुद्ध छोटी-छोटी शुरुआत कर प्रदेश और देशव्यापी बदलाव लाने वाले ये क्षत्रप भूल गये कि उनकी असल ताकत आपसी एकता में है। राम मनोहर लोहिया और चरण सिंह सरीखे गैर कांग्रेसवाद के शिल्पकारों ने बड़ी मेहनत से उत्तर भारत में कांग्रेस का कारगर विकल्प तैयार किया था– वह भी वैकल्पिक रीति-नीति के साथ, लेकिन छोटे नेताओं की बड़ी महत्वाकांक्षाओं ने अपने उसी घर को स्वाहा कर दिया। एक समय था, जब उत्तर भारत ही नहीं, ओडिशा तक में चरण सिंह, देवीलाल, कुंभाराम आर्य, नाथूराम मिर्धा, कर्पूरी ठाकुर और बीजू पटनायक की एकजुटता वाला दल, कांग्रेस का विकल्प और सत्ता का दावेदार होता था, पर आज नवीन पटनायक इकलौते अपवाद बचे हैं। बाकी सब इतिहास की बातें हैं। बेशक इस बीच नेताओं की पीढ़ी बदली है और राजनीतिक शैली भी, लेकिन ज्यादा चिंताजनक बदलाव संस्कार और सरोकारों का है, जो सत्ता के खेल तक सिमट कर रह गये हैं। लोकदली-समाजवादी राजनीति के कांग्रेस का विकल्प बनने का विश्लेषण करें या फिर पिछले दो-ढाई दशक में भाजपा द्वारा निर्णायक रूप से कांग्रेस की जगह ले लिये जाने का, निष्कर्ष साफ है : लंबी राजनीति वैचारिक स्पष्टता और सामाजिक-आर्थिक प्रतिबद्धता के साथ सतत संघर्ष मांगती है। संयोगवश आज ही भाजपा का स्थापना दिवस भी है।
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