जी. पार्थसारथी
पच्चीस फरवरी की सुबह-सवेरे भारत और पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलट्री ऑपरेशंस (डीजीएमओ) ने टेलीफोन पर वार्ता के बाद एक महत्वपूर्ण संयुक्त विज्ञप्ति जारी की, जिसके मुताबिक- वास्तविक सीमा रेखा और अन्य सेक्टरों में व्याप्त स्थिति का पुनः अवलोकन मुक्त, बेबाक और दोस्ताना माहौल में किया जाएगा। आपसी हितों और सीमाओं पर टिकाऊ शांति स्थापना की प्राप्ति हेतु दोनों डीजीएमओ ने एक-दूसरे की चिंताओं की ओर ध्यान देने पर सहमति जताई है, जिसके अभाव में शांति भंग होती है और झड़पें हिंसक बन जाती हैं। दोनों पक्षों ने 24-25 फरवरी की मध्य रात्रि से वास्तविक सीमा रेखा और अन्य सेक्टरों में, शांति बनाने के लिए पूर्व में किए गए तमाम समझौते, आपसी समझ और युद्धविराम का पालन करने पर रजामंदी दी है।
नि:संदेह शांति और सुरक्षा भारत-पाक के लिए मुख्य चिंता का विषय रहे हैं। 4 जुलाई, 2004, जिस दिन दक्षेस सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस्लामाबाद में थे तो उन्होंने पाक के राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ के साथ संयुक्त घोषणापत्र जारी किया था, इसमें कहा गया था-‘राष्ट्रपति मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को विश्वास दिलाया है कि पाकिस्तान के अधिकार क्षेत्र में आती भूमि को किसी भी तरह के आतंकवाद को समर्थन देने के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा।’ तत्पश्चात दोनों नेता ‘समग्र वार्ता’ फिर से शुरू करने पर राजी हुए थे, इस उम्मीद के साथ कि जम्मू-कश्मीर समेत तमाम आपसी मुद्दों का निपटारा दोनों पक्षों की तसल्ली के मुताबिक हो पाएगा।
इसी तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 24 मार्च, 2006 को अमृतसर में दिए भाषण में पाकिस्तान के साथ मतभेद सुलझाने की दिशा में जम्मू-कश्मीर पर भारत के नजरिए का संकेत देते हुए इस बात पर जोर दिया था कि ‘जहां कहीं सीमा रेखा को फिर से खींचना संभव न हो, वहां उन्हें ‘अप्रासंगिक’ बना दिया जाए। उन्होंने आगे कहा कि हालात ऐसे होने चाहिए कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के लोग बेरोकटोक व्यापार और यात्रा कर पाएं।’ इसके जवाब में राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने जम्मू-कश्मीर को ‘सेना रहित क्षेत्र’ और ‘स्व-शासित प्रदेश’ बनाने की बात कही थी। बताया जाता है कि आतंकवाद रहित हालात बनने पर, पर्दे के पीछे चली लंबी वार्ता के बाद दोनों पक्ष जम्मू-कश्मीर की समस्या पर ध्यान देने और सुलझाने के लिए खाका बनाने पर सहमत हो गए थे।
लेकिन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ का अपने साथियों के दबाव में आना पाकिस्तान द्वारा अपनी बात से पीछे हटने का कारण बना था। असहमति दिखाने वालों में मुशर्रफ के बाद सेनाध्यक्ष बने अशरफ परवेज़ कियानी भी एक थे, जो भारत के साथ इस तरह का समझौता बनाने के खिलाफ थे। इधर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ज्यादा ध्यान भारत-अमेरिकी परमाणु संधि को संसद से अनुमोदित करवाने पर हो गया था। इस तरह ‘पर्दे के पीछे’ चलने वाली वार्ता को रोक दिया गया था। यह बात पक्की है कि घटनाक्रम की जानकारी अमेरिका को लगातार मुहैया करवाई जाती थी। इसका बात का ‘न्यू यॉर्कर टाइम्स’ में 2 मार्च, 2009 को छपे लेख से पता चलता है, जिसमें ‘पर्दे के पीछे’ क्या बातें हुई थीं, उसका खुलासा था। हालांकि मौजूदा विदेश मंत्री एस. जयशंकर और विदेश सचिव हर्षवर्धन शिंगला, जो अक्सर मीडिया में आने से बचते हैं, किंतु एक समर्थ कूटनीतिज्ञ हैं, जब अपनी भावी नीतियां बनाएंगे तो बिना शक उन बातों का ध्यान रखेंगे जो विगत में हो गुजरी हैं। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि पाकिस्तान अपने तत्कालीन रुख पर कायम रहेगा। दूसरी ओर, स्वाभाविक है कि मोदी प्रशासन मौजूदा जटिलताओं के परिप्रेक्ष्य में नए घटनाक्रम पर सावधानी से फूंककर कदम बढ़ाएगा। परंतु ‘पर्दे के पीछे’ वाली वार्ता भावी संवाद के लिए उपयोगी कदम होगा।
यह भी पक्का है कि बाइडेन प्रशासन को किसी ऐसे घटनाक्रम के बारे में इल्म होगा। अमेरिका को अहसास है कि हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में शक्ति-संतुलन बनाने में भारत का स्थान महत्वपूर्ण है। बदले में भारत को याद रखना होगा कि चीन की नीति ‘कम लागत में भारत की घेराबंदी’ करने की है। कोई हैरानी नहीं कि बाइडेन प्रशासन पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप की अफगानिस्तान से जल्दबाजी में निकलने की नीति पर पुनर्विचार कर रहा है। पाकिस्तान की अपेक्षाओं से उलट बाइडेन प्रशासन ने चीन को भू-राजनीतिक चुनौती देने में व्यापार और अन्य प्रतिबंध कायम रखते हुए उम्मीद से ज्यादा कड़ा रुख अख्तियार कर लिया है। चीन और पाकिस्तान को उम्मीद थी कि एक बार काबुल में तालिबान सरकार बिठा दिए जाने के बाद अफगानिस्तान के अकूत प्राकृतिक स्रोतों का दोहन करने में उनको स्वाभाविक तौर पर तरजीह मिलती परंतु बाइडेन प्रशासन ने निकट भविष्य में अफगानिस्तान से अमेरिकी पलायन की संभावना पर ठंडा पानी डाल दिया है। इसके पीछे मुख्य कारण यह लगता है कि पश्चिमी शक्तियां नहीं चाहतीं कि अफगानिस्तान के विशाल खनिज भंडारण, जिसमें सोना, प्लैटिनम, चांदी, लीथियम, यूरेनियम, एल्यूमिनियम, कीमती पत्थर और दुलर्भ भू-खनिज पदार्थ इत्यादि हैं, उनका दोहन लालची चीन आसानी से कर पाए।
‘बेल्ट एंड रोड परियोजना’ के लिए उठाए चीनी कर्ज का भुगतान करने में पाकिस्तान को खासी दिक्कत हो रही है, इसका संकेत इस बात से पता चलता है कि पाकिस्तान ने चीन को कहा है कि ऊर्जा क्षेत्र के लिए ऋण की किश्तें चुकाने की समयसारिणी में फेरदबल किया जाए। पाकिस्तान को कर्ज न चुका पाने की सूरत में अपने खनिज स्रोत, खदानें और बंदरगाह चीनी संस्थानों के हवाले करने पड़ेंगे। खनिज संपन्न गिलगित-बलूचिस्तान क्षेत्र के कुछ हिस्से इन दिनों चीन के नियंत्रण में हैं, इसके अलावा सामरिक महत्व वाले ग्वादर बंदरगाह पर चीनी पकड़ लगातार बढ़ती जा रही है। जल्द ही सिंध प्रांत की दो बंदरगाहों पर भी उसका नियंत्रण बन जाएगा।
दोनों मुल्कों की राजधानियों में राजदूतों की अनुपस्थिति में पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य करने के लिए वार्ता का दौर बेमानी होगा। संवाद बनाने से पहले हमें इस्लामाबाद में अपने राजदूत की उपस्थिति बनानी होगी। साथ ही दोनों मुल्कों के बीच व्यापार एवं आर्थिक संबंध सामान्य बनाए जाएं। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने हुक्म दिया था कि कारगिल युद्ध के दौरान भी पाकिस्तान तक आने-जाने वाली रेल और बस सेवा को बहाल रखा जाए। क्या अब हमें इन्हें लागू करने पर ध्यान नहीं देना चाहिए? आज की तारीख में प्रधानमंत्री इमरान बस दिखावे के राष्ट्राध्यक्ष हैं। अमेरिका, सऊदी अरब, भारत, तुर्की, ईरान और चीन के साथ रिश्ते रखने वाली विदेश नीति सेना के हाथ में है। इसलिए ज्यादा समझदारी इसी में है कि प्रधानमंत्री इमरान के साथ छोटे-मोटे मुद्दों पर बातचीत पर बहुत अधिक व्यर्थ करने की बजाय ‘पर्दे के पीछे’ वाला राब्ता सेनाध्यक्ष बाजवा से कायम किया जाए। जनरल बाजवा ने घरेलू नीतियों में भुट्टो परिवार समेत अन्य राजनीतिक हस्तियों से अपना राब्ता बना रखा है। लगता है युवा बिलावल भुट्टो को उसी सेना के साथ हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं है, जिसने उसके नाना को फांसी पर चढ़ा दिया था।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।