एक और खुदकुशी, हमारी सम्मिलित विक्षिप्तता की दुखद कहानी, जो शैक्षणिक तंत्र में अंतर्निहित अमानवीयकरण का परिणाम है! इस बार यह ऐश्वर्य रेड्डी है–दिल्ली के नामी गिरामी लेडी श्रीराम कॉलेज की युवा छात्रा। उससे और ज्यादा सहन न हुआ और उसने अपनी जीवनलीला को समाप्त करना चुना। हमारे महानगरों के कुछ ब्रांडेड कॉलेजों में, जहां चमक-दमक और ग्लैमर एक विशेषता है, उसके बावजूद तल्ख हकीकत है कि यह दुनिया एक भयावह असमानता से भरी है। यह कहना कि सुचारु ऑनलाइन पढ़ाई के जरिए ज्ञान दिया जा सकता है, यह विचार महज मिथक है। बहुत से ऐसे छात्र-अध्यापक हैं जो इस विधि को नापसंद करते हैं, वे खुद को आहत और बिखरा हुआ महसूस कर रहे हैं। जरा सोचिए, ऐश्वर्य का परिवार उसे एक लैपटॉप दिलवाने में असमर्थ रहा ताकि वह ऑनलाइन कक्षा में भाग ले सके और तथ्य यह है कि इस महामारी के दौरान उसे कॉलेज का हॉस्टल भी छोड़ना पड़ा था। इससे मानसिक तनाव में और वृद्धि हो गई। बतौर एक अध्यापक मैं खुद को अपराधी महसूस कर रहा हूं और नहीं जानता कि उसके आत्महत्या नोट पर क्या प्रतिक्रिया दूं, जिसमें लिखा थाः ‘मेरी वजह से मेरे परिवार को बहुत-सी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। मेरी शिक्षा एक बोझ बन गई है। अगर मैं पढ़-लिख नहीं पाई तो जीवित भी नहीं रह पाउंगी।’
यह केवल एक ऐश्वर्य या एक खास कॉलेज की बात नहीं है। तथ्य तो यह है कि सिखलाई की मशीन जैसी बन गई शिक्षा प्रणाली से संबंधित कुछ मनोविकार हैं। यह आगे मौजूदा ‘सामाजिक डार्विनवाद संस्कृति’ या ‘सबसे योग्य ही जीने लायक है’ के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। हमारी शिक्षा प्रणाली ‘प्रदर्शन, प्रतिस्पर्धा और सबसे अधिक नंबर पाओ’ पर टिकी है- आमतौर पर इसी से ‘एक अच्छे छात्र’ का चरित्रण किया जाता है, जो हफ्तावार या महीनावार ढर्रे के इम्तिहानों से खुद को जीवंत बनाए रहते हैं, ट्यूटोरियल्स और अध्यापक द्वारा अध्यायों की एकतरफा नीरस विवेचना करवाकर छात्रों से संचयन की उम्मीद रखना बेवकूफाना हरकत है। हालांकि ‘मुक्त और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा’ वाली विचारधारा बताकर किसी को इस पर यकीन करने के लिए आश्वस्त किया जाता है, लेकिन इस टूटे-फूटे और विभक्त समाज में असमान सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पूंजी का आवंटन होना यह स्पष्ट करता है कि अवसर की समानता एक मिथक है। महामारी उपरांत विश्व में, जब ऑनलाइन अध्यापन लगभग आम बात हो जाएगी, ‘समानता’ की मिथक और ज्यादा तीखी हो जाएगी। ऐश्वर्य का आत्महत्या नोट एक बार फिर उघाड़ता है कि डिजिटल-वंचित होना एक हकीकत है और यह ऑनलाइन कक्षा से विद्यार्थी का गैरहाजिर होने का बहाना भर नहीं है। लेकिन फिर भी, नौकरशाही अपने एकरूपता वाले कानूनों के साथ, इस पीड़ा- जख्म और हाशिए पर सरकाए जाने को नहीं समझ पाएगी।
हां, एक यूनिवर्सिटी प्रोफेसर होने के नाते, मैं भी ऑनलाइन कक्षा का संचालन करता हूं। किंतु एक चीज़ जो मैं हर सुबह महसूस करता हूं, वह वितृष्णा भरने वाला अनुभव है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छात्र या शिक्षक की जिंदगी में आधिकारिक पाठ्यक्रम को पूरा करने के सिवा कुछ और भी है। हम सीखते हैं और भूल जाते हैं और समयानुसार अनुभवों से ग्रहण करते हुए अपने क्षितिज को जीवन, मानवीय मूल्यों, असली रिश्तों की माला से विस्तार देते हैं। इसीलिए लाइब्रेरी, कैफेटेरिया, फिल्मी गपशप या व्यक्तिगत रूप से बैठकर काम में आने वाली बातें करना कैम्पस जिंदगी का अनिवार्य चरित्र है और व्यक्तित्व का उपचार करने जैसी भूमिका निबाहते हैं। लेकिन आज तेज-मद्धम पड़ते इंटरनेट सिग्नल के बीच, हम केवल स्क्रीन पर आमने-सामने हो सकते हैं। ऐसा करते वक्त हम इस हड़बड़ी में रहते हैं कि कौन-सा व्याख्यान देना है या पाठ्यक्रम को पूरा करना है। शायद ही हमने कभी तनावरहित माहौल पाया हो, जो सम्मिलन की रूह को खुराक देता है। अब न तो कोई उमंग है, न ही कोई सुकून देने वाली छुवन है। इसकी बजाय हमें केवल असंवदेनशील नौकरशाहों द्वारा जारी किए गए निर्देश मिलते हैं, जिनमें इम्तिहानों की तारीख, छात्रों को दिया जाने वाला काम कब जमा करवाना है जैसी तकनीकी बातें भरी होती हैं। शायद ऐश्वर्य चाहती थी कि कोई उसे समझे और सुने। शायद उसे हम लोगों से स्नेह की उम्मीद थी। लेकिन फिर, हम तो केवल सिलेबस पूरा करवाने और कार्यकुशलता का आकलन करने में लगे हुए हैं। सुनने की कला विकसित करने का समय कहां है, कक्षा नोट्स, हाजिरी, परीक्षा और ग्रेड से परे किसी विषय पर विचार कहां हो पाता है? हम सभी आज एक-दूसरे से अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं।
शिक्षा व्यवस्था के कर्णधार एक आत्मा-विहीन मशीन की तरह काम करते हैं। इसके पीछे कारण भी हैं। पहला, शिक्षकों की जगह तकनीकी-प्रबंधकों ने ले ली है। उन्हें आत्मीयता, मानवीय संवेदना और गुणवत्ता वाले अनुभव नापसंद हैं। इसलिए सब कुछ नपा-तुला, मात्रा में बंधा और क्रमबद्ध होना चाहिए। जैसे कि डाटा के लिए जरूरी होता है, ताकि उत्पाद बिक सके। इन तकनीकी-प्रबंधकों के लिए एक छात्र और कुछ न होकर केवल उसकी हाजिरी कितनी है अथवा परीक्षा में ग्रेड क्या रहा, इस तक सीमित है। इसी तरह एक अध्यापक भी उनके लिए बायोडाटा भर है, जिसमें उसके द्वारा किए गए प्रकाशन, दिए गए लेक्चर, सेमिनारों में भाग लेने की गिनती या फिर पेश किए गए सेमिनार में पहचानने योग्य उपयोगिता क्या हो, यहीं तक है। जो कुछ भी नापने योग्य नहीं है, वह उनकी समझ से परे है क्योंकि उनकी आसक्ति यंत्रवत होकर दी गई प्रेजेंटेशंस और इस डाटा की हेराफेरी में है। दूजा, जैसे हर चीज तकनीकी यंत्र, बायोमीट्रिक या सीसीटीवी कैमरा में तबदील होती जा रही है, तो जोर इस बात पर है कि अनुशासित करने का यही एकमात्र तरीका है।
एक तरह से, हम सभी निगरानी के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं। विश्वास या त्वरित प्रतिक्रियात्मक होना आज की तारीख में बुरी बात है। निगरानी के इस युग में, हम वह खोते जा रहे हैं जो वाकई जरूरी हैः सहचार की आत्मा, आस्था और रिश्ते। प्रिंसिपल या उपकुलपति को अध्यापक पर शक रहता है, शिक्षक आगे अपने छात्रों पर और अंत में विद्यार्थी एक-दूसरे पर अविश्वास करने लगते हैं। क्या ऐश्वर्य की खुदकुशी को व्यवस्था के हश्र की तरह लिया जाए, जिसके पास न तो देखने को आंख है, न ही सुनने को कान या न ही महसूस करने वाला दिल?
आज हम खुद को एक अनजान बनती जा रही दुनिया में पाते हैं या फिर ऐसा विश्व, जिसका अक्स ‘एकाकी भीड़’, न्यूरोसिस, फोबिया और अवसाद इत्यादि है, जो बढ़ते ही जाएंगे। इससे भी आगे यह कि ‘चूहा-दौड़’, जिसमें नवउदारवादी बाजार बनने से इजाफा हुआ है, वह अंधी प्रतिस्पर्धा में लगे युवा मानस को बदल देगी। किंतु बतौर मित्र नहीं बल्कि एक-दूसरे के लिए अजनबी की तरह। मुझे पूरी तरह पक्का नहीं है, लेकिन क्या दिल्ली के ब्रांडेड कॉलेज में ऐश्वर्य को एक भी ऐसा दोस्त मिला जो उसको समझे और देखभाल करे या कभी यह यकीन बन पाया था कि कुछ शिक्षक उसकी मुश्किलों को समझते हैं? बतौर एक अध्यापक, मैं अक्सर खुद से पूछता हूं: क्या एक शिक्षक होने के नाते हम भी भयावह रूप से असंवेदनशील बन गए हैं?
लेखक समाजशास्त्री हैं।