राजेन्द्र चौधरी
कोरोना के चलते दोबारा से तालाबंदी से मिलते-जुलते उपाय लागू होने शुरू हो गए हैं। हरियाणा में 8वीं कक्षा के स्कूल बंद करने के सरकारी आदेशों का निजी स्कूल खुल कर विरोध कर रहे हैं। निश्चित तौर पर कोरोना के चलते लगी रोक-टोक से लोगों की आजीविका प्रभावित होती है, किसी की कम तो किसी की ज्यादा। किसी का रोज़गार बिना किसी सरकारी रोक-टोक के भी ठप हो सकता है, जैसे पर्यटन उद्योग; सरकारी रोक-टोक ख़त्म होने के बावज़ूद शायद ही लम्बे समय तक सामान्य स्वरूप में लौट पाए। किसी के पास आजीविका को आए झटके को सहने की क्षमता होती है और किसी के पास नहीं। निश्चित तौर पर इन झटकों से उबरने के लिए व्यक्ति को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता। इस में समाज व सरकार को व्यक्ति का साथ देना चाहिए।
यही बात किसान आन्दोलन ने भी रेखांकित की है। हालांकि, नये कृषि कानूनों का विरोध कई कारणों से किया जा रहा है परन्तु ज़मीनी विरोध का केंद्रबिंदु मूलत: आजीविका बचाने का है। इस संकट को मुख्य तौर पर एमएसपी और एपीएमसी मंडी पर संकट के रूप में देखा गया। इसलिए यह आन्दोलन केवल उन्हीं क्षेत्रों में प्रचंड रूप ले पाया जहां एमएसपी का लाभ प्रभावी तौर पर मिलता रहा है। जब किसान को मजदूर बन जाने से इतना डर लगता है कि वो भीषण सर्दी-गर्मी में भी सड़कों पर सोने को तैयार है तो उन के बारे में सोचें, जिनको मजदूर ही बनना पड़ता है, जिनके पास किसान होने का विकल्प ही नहीं है। उनके बारे में सोचें, जिनकी आजीविका कल को जलवायु परिवर्तन के चलते खतरे में आ जायेगी या जो तकनीकी परिवर्तन के चलते बेरोजगार हो जायेंगे। कल का तकनीकी या आर्थिक परिवर्तन लुहार, कुम्हार, जुलाहे, तांगे वाले के अलावा किस-किस को बेरोजगार करेगा कौन जानता है। आॅनलाइन शिक्षण या एआई (कृत्रिम बौद्धिकता) कल को पढ़े-लिखों को भी बेरोजगार कर सकता है। फिर बुढ़ापा और बीमारी तो किसी को भी आ सकती है। इसलिए मानवीय गरिमायुक्त आजीविका या जीवनयापन के साधनों की उपलब्धता तो सब के लिए सुनिश्चित होनी चाहिए।
अगर कोरोना के कारण या किसी अन्य कारण से किसी की आजीविका पर रोक-टोक लगती है और उसको जीवनयापन हेतु बुनियादी सुविधाएं भी सुनिश्चित नहीं कराई जाती, तो उसका कोरोना के खतरे को नज़रंदाज़ करके भी आजीविका अर्जन की कोशिश करना स्वाभाविक है जैसा कि अब हरियाणा के निजी स्कूल कर रहे हैं। अगर ऐसा बड़े पैमाने पर होता है तो कोई कानून-व्यवस्था इसको रोक नहीं सकती। जैसे कोरोना की पहली तालाबंदी के दौरान हुआ; प्रधानमंत्री ने कहा कि मजदूरों को वेतन दिया जाए और उनसे मकान का किराया न लिया जाए, पर फैक्टरी और मकान-मालिकों की भरपाई की कोई व्यवस्था नहीं की गई। इसलिए शायद ही किसी ने इस को माना और बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर सड़कों पर निकल पड़े, जिसके चलते कोरोना की रोकथाम के लिए किये गए सभी उपाय धरे रह गए, कड़ी तालाबंदी निष्प्रभावी हो गई।
न्यूनतम सुनिश्चित आय का स्तर क्या हो इत्यादि मुद्दों पर जनतांत्रिक विचार-विमर्श से निर्णय लिया जा सकता है परन्तु कोरोना काल और किसान आन्दोलन का यह स्पष्ट सन्देश है कि सिद्धांत रूप में समाज व सरकार को यह ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी कि हर व्यक्ति को एक न्यूनतम आय, जो मानवीय गरिमा सहित जीवनयापन के लिए पर्याप्त हो, मिल सके। एक सवाल उठ सकता है कि इसके लिए आवश्यक संसाधन कहां से आयेंगे। कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता, किसी न किसी को तो इसकी कीमत चुकानी होगी। अमेरिकी सरकार द्वारा हाल ही में पूरी दुनिया की कम्पनियों की आय पर न्यूनतम कर सुनिश्चित करने की पहल, रास्ता इंगित करती है। दुनिया के सबसे साधन-सम्पन्न लोग अपने हिस्से का कर नहीं चुकाते। दुनिया के कई छोटे देश कर मुक्त टापू के तौर पर विकसित हुए हैं और भारत समेत पूरी दुनिया के साधन-संपन्न लोग इन करमुक्त टापुओं की सहायता से कर देने से बच जाते हैं। अब-जब कोरोना काल ने अमेरिका तक को इस चोर दरवाजे को बंद करने की कोशिश करने पर विवश कर दिया है तो यह एक मौका है कि पूरी दुनिया के देश अपने नागरिकों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित करने की योजना बनाए। एमएसपी सरीखा उपाय केवल किसान के लिए ही नहीं, सब के लिए होना चाहिए। ऐसा होना न केवल वांछनीय है, अपितु संभव भी है।