सहीराम
लड़ाई तो सावित्री की भी सत ही थी। लड़ाई किसान की भी सत की है। जान सत्यवान की भी जा रही थी। जान किसान की भी जा रही है। हालांकि किसान की जान कई दिन से जा रही थी लेकिन उसे वह खुद ही ले रहा था। ज्ञानीजन कहते हैं कि जब कोई खुद अपनी जान लेता है तो वह भी भगवान ही लेता है। लेकिन खुद अपनी जान देते-देते किसान अपनी जान बचाने के लिए लड़ने लगा। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह सावित्री लड़ी थी, अपने पति सत्यवान की जान बचाने के लिए। फर्क यही है कि सावित्री यमराज से लड़ी थी। किसान अपने भाग्य विधाता से अर्थात सरकार से लड़ रहा है।
यमराज ने सावित्री से कहा कि सत्यवान की जान के अलावा कुछ भी मांग ले। सरकार भी किसान से यही कह रही है कि तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के अलावा कुछ भी मांग लो। वरदान यमराज भी दे रहा था। वरदान सरकार भी दे रही है। लेकिन जैसे सावित्री को सिर्फ सत्यवान का जीवनदान चाहिए था, वैसे ही किसान को भी अपना जीवनदान ही चाहिए। वार्ता यमराज से सावित्री की भी लंबी चली, वार्ता किसानों की भी सरकार से लंबी ही चल रही है।
यमराज ने सावित्री को बहुत समझाया कि देख विधि का विधान नहीं बदल सकता। लेकिन किसान कह रहा है कि सरकार अपना विधान तो बदल ही सकती है। यमराज को लगता था कि सावित्री की बात मानी तो मेरा इकबाल खत्म हो जाएगा। सरकार के वकील भी अदालत में बिल्कुल यही कह रहे हैं कि सरकार का इकबाल बना रहना चाहिए। किसी को यह नहीं लगना चाहिए कि सरकार कमजोर है। यमराज का तर्क था कि ईश्वरत्व कम हुआ तो दुनिया नहीं चलेगी। सरकार का तर्क है कि सरकार का इकबाल कम हुआ तो व्यवस्था नहीं चलेगी। लेकिन सावित्री को अपने सत पर भरोसा था। किसानों को भी अपने सत पर भरोसा है। कष्ट उसने भी झेले और कष्ट ये भी झेल रहे हैं।
सत कष्ट देकर परीक्षा लेता है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। कष्ट सह कर भी सावित्री अपने सत पर डटी रही। यह जिद नहीं थी। किसान भी कष्ट सहकर अपने सत पर डटा है। यह जिद नहीं है। सरकार कह रही है कि कानून तुम्हारे फायदे के लिए हैं, तुम्हारी आय बढ़ेगी। लेकिन अगर जान जा रही हो तो फायदा कौन देखता है। न सावित्री ने देखे, न किसान देख रहा है।
पहली लड़ाई जान बचाने की है। जैसे सावित्री अपने पति की जान बचाने के लिए यमराज से लड़ी, वैसे ही किसान भी अपनी खेती-किसानी और जान बचाने के लिए सरकार से लड़ रहा है। जीत तब भी सत की हुई थी।