लक्ष्मीकांता चावला
हाल ही में केंद्र सरकार के इस निर्णय की जानकारी मिली है कि भारत सरकार बहुत से सुस्त और भ्रष्ट अधिकारियों को जबरन सेवानिवृत्त करेगी। सरकार का उद्देश्य तो यह है कि प्रशासनिक कार्यों में शिथिलता और भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाए। इससे पहले भी पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने बहुत से उच्चपदस्थ अधिकारियों को रिटायर किया।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये अधिकारी भ्रष्ट और सुस्त क्यों हो जाते हैं? बड़ी संख्या में हमारे अधिकारी देश और जनता की सेवा के लिए सरकारी सेवा में आते हैं, कार्य करते हैं। लेकिन उनकी संख्या भी अब कम नहीं जो सरकारी सेवा में आने के साथ ही बड़े साहब बन जाते हैं, अपने रौब का दबदबा जनता और जूनियर अधिकारियों में बनाकर रखते हैं। नि:संदेह जनप्रतिनिधियों में से कोई न कोई इनका माईबाप बना रहता है। कुछ माईबाप से भी बड़े हो जाते हैं। उनको अपने इशारे पर चलाते हैं।
प्रश्न यह है कि कुछ सुस्त व भ्रष्ट अधिकारियों को पहचान कर उनको सेवानिवृत्त करके क्या देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगा? पर याद रखना होगा कि भ्रष्टाचार अमरबेल है जनाब! यह ऊपर से नीचे आती है। पर संसद और विधानसभाओं में बैठे माननीय बड़ी संख्या में दागी हैं, आरोपी हैं, अदालतों में मुकदमे भुगत रहे हैं और जिस धनबल से वे चुनाव जीतकर आए हैं, उसका भी कोई लेखा जोखा नहीं है। क्या यह मान लिया जाए कि देश के सभी चुनाव जीतने या हारने वाले उसी सीमा में धन खर्च करते हैं, जितना चुनाव आयोग ने निश्चित किया है। अगर सांसद के लिए 75 लाख की सीमा रखी गई है तो इतनी राशि कोई अपनी जेब से या जिसे एक नंबर की कहते हैं, नहीं खर्चते। न जाने क्यों उन अधिकारियों को, जो चुनाव पर्यवेक्षक बनकर आते हैं, यह सब नहीं दिखाई देता कि कैसी पैसे की नदियां चुनावों में बहती हैं। फिर वही सवाल, यह इतना धन अगर अपनी कमाई का है तो कमाया कैसे? उसके लिए आयकर किस-किसने दिया? अगर यह उद्योगपतियों या किसी माफिया से लिया है तो उनके इसके एवज में उन्हें लाभ भी तो दिया होगा या दिया जा रहा है।
सत्य यह है कि जो सरकार भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहती है, उसे सबसे पहले चुनाव प्रक्रिया, चुनाव खर्च पर नियंत्रण और किसी भी प्रकार के अपराधी को टिकट देने पर रोक लगानी होगी। जिस लोकतंत्र को हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं, उसका एक कुरूप दृश्य तब दिखाई देता है जब हॉर्स ट्रेडिंग की बात जनप्रतिनिधियों के लिए कही जाती है। उन्हें छिपा-छिपा कर कभी कर्नाटक के होटल में, कभी राजस्थान या भोपाल के होटल में इसलिए रखा जाता है कि उन्हें कोई खरीद न ले। वे दलबदल न कर जाएं। जो दलबदल करते हैं, वे किसी भी पार्टी के हों या कोई भी पार्टी ऐसे दलबदलुओं को स्वीकार करती है, वह बेईमानी और भ्रष्टाचार को खुली मान्यता दे देती है।
वैसे भ्रष्टाचार साक्षात घूम रहा है। बिहार में अगर एक बड़ा पुल चार सप्ताह बाद ही टूट जाता है, पंजाब में कीड़ों से भरा करोड़ों का आटा एक नगर में बांटा जाता है, मध्य प्रदेश का व्यापम व पंजाब का छात्रवृत्ति घोटाला कहीं दब गया है, जिस देश में बड़े-बडे़ संवैधानिक पदों पर योग्यता नहीं, राजनीतिक वफादारी देखकर नियुक्तियां होती हैं, जिस देश में मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज युवकों से मोटी रिश्वत लेते हैं, तो वे रिश्वत के बल से डॉक्टर, इंजीनियर बनकर फिर कैसे ईमानदारी से काम करेंगे। पुलिस स्टेशन की, रेलगाड़ी की, चौक चौराहे की, तहसील-कचहरी की रिश्वत की बात वह हर व्यक्ति भुगतता है जो वहां जाता है।
हाल में जब प्रधानमंत्री नए पुलिस अफसरों को संबोधित कर रहे थे, एक बात उनकी बहुत अच्छी लगी कि मानवीय भावना से जाओ। पहले दिन ही दबंग न बनो, पर एक कटु सत्य निश्चित ही उन्होंने महसूस नहीं किया। लॉकडाउन में पुलिस का मानवीय चेहरा सामने आया है। निश्चित ही पुलिस ने सेवा की है, पर उसके चेहरे पर कुछ दाग भी लगे हैं, जिसे धोने के लिए शायद कोई तंत्र नहीं है। क्या तमिलनाडु की पुलिस उस पिता-पुत्र को जीवित कर सकेगी, जिन्हें लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर थाने में मार डाला या पंजाब में मास्क न पहनने पर दो भाइयों को इतना पीटा कि उनकी चमड़ी उखड़ गई और बेहोश हो गए।
इसलिए कुछ ऐसा करना होगा कि भ्रष्टाचार के साथ ही शासकों के हाथ साफ हों। पंजाब में डॉक्टरों की भर्ती के समय एक पत्र मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री को, स्वास्थ्य मंत्री होने के नाते लिखा था। काश! उस पर कार्रवाई हो जाती या आज वह पत्र ही सरकार के रिकार्ड से निकल आए तब पता चलेगा कि भ्रष्टाचार कौन पालता है और कैसे उसके साथ समझौता किया जाता है।