बेशक विगत में भी भारत को जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा संबंधी मुश्किल चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, किंतु हालात कभी ऐसे नहीं थे जब लद्दाख, जम्मू और कश्मीर की सीमा रेखा पर पाकिस्तान और चीन से दरपेश चुनौतियों का एक साथ सामना करना पड़ा हो। पिछले साल अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा और वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा पर असाधारण रूप से चुनौतियां, घुसपैठ और गोलीबारी देखने को मिली है। लेकिन तिब्बत की दिशा से देपसांग के मैदानों से होकर चीन ने सुनियोजित ढंग और बड़े पैमाने पर भारतीय इलाके में घुस कर चौंकाया। केंद्र-शासित प्रदेश लद्दाख में चीनियों की इस घुसपैठ को अगर सही ढंग से नहीं निपटा जाता तो उनके लिए उत्तर दिशा में और आगे बढ़कर सामरिक महत्व वाले दौलत बेग ओल्डी हवाई अड्डे तक पहुंचने की राह आसान हो जाती। यह हवाई अड्डा चीन के अक्साई चिन क्षेत्र से सटा हुआ है, जिसे भारत अपना हिस्सा बताता है।
दौलत बेग ओल्डी से उत्तर दिशा में बढ़कर चीनियों की पहुंच न केवल सामरिक काराकोरम मार्ग तक बल्कि साथ लगते सियाचिन क्षेत्र तक भी बन जाती है, जिस पर पाकिस्तान अपना हक जताता है। हालांकि, भारत द्वारा 1980 के दशक में सियाचिन ग्लेशियर को अपने नियंत्रण में करने से पाकिस्तान को झटका लगा था। इससे पहले वर्ष 1949 में भारत और पाकिस्तान ने आपसी सहमति से तय किया था कि जम्मू-कश्मीर में शियोक एवं खोर नदियों से परे वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा ‘ग्लेशियरों के उत्तर तक’ जाती है। गौरतलब है कि जहां हाल ही में चीनियों ने लद्दाख में पैंगोंग झील के पूरबी इलाके तक पीछे हटना माना है वहीं देपसांग के मैदानों में पिछले साल कब्जाए इलाके से परे हटने से इंकार कर दिया है और वहां भारतीय बलों के घुसने पर रोक लगा दी गई है। चीन की इस हरकत के पीछे मंशा एकदम साफ है कि देपसांग के मैदानी क्षेत्र पर नियंत्रण बनाए रखकर वह दौलत बेग ओल्डी हवाई अड्डे तक पहुंचने की संभावना कायम रखना चाहता है। जबकि इस सारे इलाके पर भारत अपना दावा करता आया है।
चीन के साथ सीमा संबंधी मसलों में पाकिस्तान ने पूरी दरियादिली दिखाई है। वर्ष 1963 में की गई संधि के बाद पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर का हिस्सा रही शख्सगाम घाटी चीन को सौंप दी थी, इसकी वजह से उत्तरी सीमा रेखाओं का एकदम नया स्वरूप वजूद में आया था। इस संधि का अनुच्छेद 6 कहता है ‘दोनों पक्ष सहमत हुए हैं कि एक बार पाकिस्तान-भारत के बीच कश्मीर विवाद सुलझ जाने के बाद, संबंधित सार्वभौमिक हुक्मरान तब शेष सीमा विवादों को औपचारिक रूप से सुलझाने की खातिर गणराज्य चीन की सरकार के साथ वार्ताएं शुरू करेंगे, जिसकी तफ्सील संधि के अनुच्छेद 2 में दी गई है।’ 1963 में हुई इस संधि ने काराकोरम सड़क बनाने की राह प्रशस्त की थी, जिसे चीन और पाकिस्तान के इंजीनियरों ने मिलकर बनाया है। यह राजमार्ग चीन के शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीरी क्षेत्र से जोड़ता है। चीन के लिए उक्त संधि भारत से ‘निपटने’ की प्रक्रिया में पाकिस्तान के साथ सैन्य गठजोड़ बनाने का आधार बनी थी।
आज 50 साल बाद काराकोरम राजमार्ग से जुड़े इलाकों में चीन की आर्थिक गतिविधियों और सैन्य उपस्थिति में हुआ इजाफा कोई भी देख सकता है। पाकिस्तान के कब्जे वाले समूचे कश्मीर में बड़ी संख्या में चीनी इसलिए भी दिखाई देते हैं क्योंकि वे वहां अरब सागर के तट पर स्थित बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक चीनी माल, सेवाएं और फौजियों का आवागमन बनाने के लिए राजमार्ग बना रहे हैं। यह सड़क परियोजना बना तो चीन रहा है लेकिन कर्ज पाकिस्तान के सिर पर होगा। अब यह केवल वक्त की बात है जब दिवालिया हुए पाकिस्तान को, जिससे चीन से लिया कर्ज भी नहीं चुकाया जा रहा, इसकी उगाही की एवज में ग्वादर बंदरगाह चीनियों को सौंपनी पड़ेगी। तब यह घटनाक्रम उस हरकत से काफी अलहदा नहीं जब ठीक इसी पैंतरे की मार्फत चीन ने श्रीलंका का हम्बनतोता हथिया लिया है। उधर, पाकिस्तानी सेना की आसक्ति सदा भारतीय इलाका कब्जाने पर रही है, फिर चाहे यह मौका जम्मू-कश्मीर में बने या जूनागढ़ या फिर हैदराबाद में, इलाकाई महत्वाकांक्षा से परे देखने की अपेक्षा उससे करना बेमानी है।
उम्मीद है लद्दाख में हालिया अनुभव ने चीन को अहसास हुआ होगा कि भारत को बलपूर्वक धकियाया नहीं जा सकता। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने ब्यान दिया है ‘दोनों पक्षों को एक-दूसरे को छोटा दिखाने की कवायद में उलझने की बजाय संयुक्त रूप से सफल होने में आपसी मदद करनी चाहिए।’ लेकिन जिस तरह चीन ने विगत में भारतीय भूमि, विशेषकर देपसांग के मैदानी इलाके को ‘सलामी कटिंग’ (मीट को टुकड़ा-दर-टुकड़ा काटना) करके हड़पा है, उससे इस वक्तव्य पर विश्वास करना मुश्किल है। अगर चीन वाकई गंभीर है तो सबसे पहले उसे लद्दाख के देपसांग और अन्य क्षेत्रों में अप्रैल, 2020 से पहले वाली सीमारेखा को बहाल कर दिखाना होगा।
आशा है चीन ने यह सबक भी लिया होगा कि दीगर दक्षिण एशियाई देशों के साथ भारत के संबंधों को कमतर करना इतना भी आसान नहीं है, भले ही इस काम के लिए चंद भारत विरोधी राजनेताओं को पैसा और सहायता देकर गांठने का अथक यत्न किया गया है, परंतु दीर्घकाल में ये उपाय कारगर नहीं हो सकते। श्रीलंकाई बंदरगाहों के विकास कार्य, चाहे जाफना हो या कोलंबो, इस कार्य में भारत की भूमिका हटाने की खातिर चीन ने बेअंत प्रयास किए हैं। किंतु श्रीलंकाई राजनेता भी अब चीनी खेल समझ गए हैं। श्रीलंका को कर्ज जाल में फांसकर हम्बनतोता बंदरगाह हथियाने वाले कारनामे से समूचे हिंद महासागरीय क्षेत्र में यह संदेश गया है कि चीन की चिकनी-चुपड़ी बातें और कुछ नहीं केवल स्वहित साधना है। पाकिस्तान में भी समझदारों का आकलन है कि दीगर बुनियादी ढांचा विकास परियोजनाएं, मसलन तथाकथित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा योजना, इनकी खातिर उठाए धन से मुल्क लगातार कर्ज की दलदल में धंस रहा है और इसके परिणाम बहुत बुरे रहेंगे। पाकिस्तान इस स्थिति में नहीं है कि अमेरिका, यूरोप या यहां तक कि रूस से सैन्य साजो-सामान आयात कर पाए, इसलिए लगभग चीन ही एकमात्र देश बचा है जो उसको शस्त्रास्त्र मुहैया करवा सके।
लद्दाख में हुए हालिया घटनाक्रम ने चीन और पाकिस्तान के बीच और अधिक सहयोग की ताबीर तैयार कर दी है ताकि समूचे जम्मू-कश्मीर-लद्दाख क्षेत्र में भारत की सुरक्षा स्थिति को कमजोर किया जा सके। शांति-स्थापना की हालिया पाकिस्तानी पेशकश एक स्वागतयोग्य कदम है लेकिन जब तक जम्मू-कश्मीर में सीमापारीय घुसपैठ बंद नहीं करता। भारत को नेक सलाह है कि जम्मू-कश्मीर-लद्दाख में दोनों मुल्कों की इलाकाई महत्वाकांक्षा के परिपेक्ष में उनकी गतिविधियों पर पैनी नजर बरकरार रखे। विदेश संबंधों पर अमेरिकी परिषद के अति-सम्माननीय अध्यक्ष रिचर्ड हैस ने हाल ही में कहा है ‘चीन की सीमा 14 देशों के साथ लगती है, जिनमें 4 परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र हैं तो 5 मुल्कों के साथ अनसुलझे सीमा संबंधी विवाद जारी है। सूची में पुराने समय से दुश्मन रहा किंतु अमीर मुल्क जापान एक है, तो वहीं नव-राष्ट्रवाद के उद्भव वाले भारत के अलावा चीन से बदला लेने की हसरत पाले रूस भी है, साथ ही तकनीकी रूप से अतिविकसित देश दक्षिण कोरिया है और गतिशील एवं दृढ़निश्चयी वियतनाम तो है ही। ये तमाम मुल्क ऐसे हैं, जिनकी अपनी विलक्षण राष्ट्रीय पहचान रही है और उन्हें चीन का गुलाम बनना अथवा उसके हित साधना कतई गवारा नहीं होगा। फिर अमेरिका इस इलाके में अपनी अग्रिम-तैनाती कायम रखकर लगातार सैन्य उपस्थिति बनाए हुए है।’
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।