टीएस दराल
एक ज़माना था जब हम गांव में रहते थे। घर के आंगन में या बैठक में, घर के और पड़ोस के पुरुषों को गपियाते हुए देखते थे। अक्सर गांव, अपने क्षेत्र और शहर की पॉलिटिक्स पर चर्चा के साथ-साथ आपस में हंसी ठट्ठा जमकर होता था। खेती-बाड़ी का काम वर्ष में दो बार कुछ महीने ही होता था। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का विशेष ध्यान रखा जाता था। अब समय बदल गया है। शहर ही नहीं, अब गांवों में भी एकल परिवार हो गए हैं। बच्चे और युवा मोबाइल पर या आधुनिक संसाधनों में व्यस्त रहते हैं। खेतीबाड़ी की जगह नौकरी पेशे ने ले ली है। अब गांवों में भी युवा वर्ग कम ही नज़र आता है। लॉकडाउन और कोरोना के भय से मिलना-जुलना लगभग समाप्त ही हो गया था। इसलिए हमने अस्पताल के अलावा कहीं और आना-जाना कम से कम कर रखा था। लेकिन अब जब दिल्ली में कोरोना के केस न्यूनतम हो गए हैं और अधिकांश लोग टीकाकृत हो गए हैं तो मिलना-जुलना अब आरंभ किया है। ऐसे ही मिलना हुआ हमारे एक मित्र सहपाठी के माता-पिता से जो पास में ही रहते हैं लेकिन उनकी सभी संतानें या तो विदेश में हैं या अन्य शहरों में।
अंकल-आंटी दोनों लगभग 90 और 85 वर्ष के हैं। दोनों अभी इतने स्वस्थ हैं कि अकेले रह पाने में समर्थ हैं। शरीर से हल्के अंकल ने वरिष्ठ नागरिकों की दौड़ में अनेक मैडल जीते हैं। उनके साथ एक बार जो बातें शुरू हुईं तो हम जैसे अतीत काल में खो से गए। सुनाते समय उनका जोश और आंखों में चमक देखकर बड़ा आनंद आ रहा था। हम दोनों स्वयं वरिष्ठ नागरिक होते हुए भी बच्चों जैसा महसूस कर रहे थे। इस मृत्यु लोक की त्रासदी यह है कि मनुष्य अपना सारा जीवन बच्चों के लालन पालन, शिक्षा, शादी और उनके लिए आराम के संसाधन जुटाने में लगा रहता है। लेकिन अपने पैरों पर खड़े होते ही बच्चे वयस्क होकर ऐसे उड़ जाते हैं जैसे पर निकलने पर पक्षियों के बच्चे। अफ़सोस तो यह देखकर होता है कि माता-पिता अपने बच्चों के बिना अकेले रहते हैं और बच्चे जो स्वयं बुजुर्ग हो चुके होते हैं, अपने बच्चों के बिना अकेले रहते हैं। बस यह समझ नहीं पाते हैं कि यदि एक बेसहारा दूसरे बेसहारा से मिल जाए तो दोनों को सहारा मिल जाता है। लेकिन स्वतंत्र जीवन जीने के लालच में बच्चे माता-पिता से दूर हो जाते हैं। सच तो यह है कि घर इनसानों से बनता है। इनसानों के बिना यह एक मकान ही होता है। हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि औलाद को इतनी सद्बुद्धि तो दे कि बुढ़ापे में श्रवण कुमार न सही, एक आम संतान की तरह अपने माता-पिता का पूरा ध्यान रखे और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें संभालने काम छोड़कर घर आ जाये।
साभार : टीएस दराल डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम