अरुण नैथानी
एक बार फिर नंदीग्राम के संग्राम की रणभेरियां बज उठी हैं। फर्क इतना ही है कि नंदीग्राम आंदोलन के सूत्रधार रहे शुभेंदु अधिकारी इस बार ममता बनर्जी के खिलाफ ताल ठोककर उतरे हैं। पिछले नंदीग्राम संग्राम के बाद ही तीन दशक से सत्ता पर काबिज वामदल की सरकार को उखाड़कर ममता बनर्जी की ताजपोशी हुई थी। तब भी आंदोलन की बागडोर शुभेंदु के हाथ में थी। अधिकारी परिवार की कर्मभूमि और राजनीतिक क्षेत्र में इस बार के मुकाबले ने शुभेंदु को राष्ट्रीय परिदृश्य में एक दमदार नेता के रूप में उभारा है। यूं तो इस बार विधानसभा चुनाव चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में हो रहे हैं, लेकिन सुर्खियों में सिर्फ पश्चिम बंगाल का संग्राम है और उसमें भी सुर्खियां नंदीग्राम के संग्राम की ही हैं, जिसके केंद्र में शुभेंदु अधिकारी हैं।
कभी ममता बनर्जी के विश्वासपात्र लोगों में शुमार शुभेंदु ने पिछले वर्ष पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। आज वे राज्य में भाजपा का प्रतिनिधि चेहरा बनकर उभरे हैं। उनके चुनाव क्षेत्र से नामांकन भरकर ममता बनर्जी ने इस चुनाव को बेहद कांटेदार व रोचक बना दिया है। यही वजह है कि विधायक बनने के बाद दो बार सांसद बनने और फिर विधायक चुने जाने के बाद परिवहन मंत्री बने शुभेंदु की गिनती कभी तृणमूल कांग्रेस में नंबर दो की होती थी। लेकिन पार्टी में निरंकुश व्यवहार करने वाली ममता बनर्जी के इशारे पर फिर शुभेंदु का कद घटाने की कवायद शुरू हुई तो उन्हें पार्टी में घुटन महसूस होने लगी। दरअसल, ममता अपने विश्वासपात्र भतीजे अभिषेक बनर्जी को पार्टी व सरकार में नंबर दो का दर्जा देने लगी, जिससे शुभेंदु ने खुद को महत्वहीन महसूस करना शुरू किया। फिर जब तृणमूल कांग्रेस की चुनावी रणनीति की बागडोर प्रशांत किशोर को सौंपी गई और अभिषेक बनर्जी की दखल बढ़ी तो शुभेंदु ने खुद को पार्टी से अलग करने का मन बनाया। कुछ समय तो वे पार्टी में निष्क्रिय रहे। फिर मंत्री पद और पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया।
शुभेुंद अधिकारी की गिनती उन दिग्गज टीएमसी नेताओं में होती है, जिन्होंने संगठन कौशल से पार्टी को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाया। उन्होंने न केवल वामपंथी संगठनों व ट्रेड यूनियनों के गढ़ों को तोड़ा बल्कि टीएमसी का जनाधार भी मजबूत किया। छात्र राजनीति से सक्रिय राजनीति में आने वाले शुभेंदु वर्ष 1989 में कांग्रेस के छात्र संगठन में चुने गये। फिर कांथी नगरपालिका के अध्यक्ष पद से होते हुए वर्ष 2006 में छत्तीस वर्ष की उम्र में तृणमूल कांग्रेस की टिकट पर कांथी दक्षिण सीट से विधायक चुने गये। वे वर्ष 2009 और 2016 में सांसद भी चुने गये। दरअसल, शुभेंदु को राजनीति विरासत में मिली। उनके पिता शिशिर अधिकारी की गिनती क्षेत्र के प्रभावशाली राजनेताओं के रूप में होती रही है। वे वर्ष 1982 में कांथी दक्षिण विधानसभा सीट से कांग्रेस विधायक चुने गये थे। राजनीतिक पारी में तीन बार विधायक रहने के अलावा वे कांथी लोकसभा सीट से सांसद भी रह चुके हैं और मनमोहन सरकार में मंत्री भी बने। इतना ही नहीं, शुभेंदु के छोटे भाई दिब्येंदु भी क्षेत्र की राजनीति में दखल रखते हैं और तीन बार विधायक भी चुने गये। जब ममता बनर्जी ने शुभेंदु को सांसद पद से इस्तीफा दिलाकर राज्य सरकार में शामिल किया तो संसदीय उपचुनाव दिब्येंदु ने ही जीता था।
बताते हैं कि नंदीग्राम आंदोलन की व्यूह रचना करने वाले शुभेंदु ही थे। उन्होंने वाम सरकार व संगठन से टक्कर लेने के लिये व्यापक रणनीति तैयारी की और स्थानीय लोगों को अपने साथ जोड़ा। उन्होंने ही नंदीग्राम आंदोलन को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में निर्णायक भूमिका निभायी। चौंतीस साल पुरानी वाम सत्ता का खात्मा करने में अधिकारी परिवार की बड़ी भूमिका रही। लेकिन सत्ता में आने के बाद तृणमूल कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने पश्चिमी मेदिनीपुर में शुभेंदु के समर्थकों को किनारे लगाकर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया। पार्टी में योगदान के बदले पर्याप्त सम्मान न मिलने से शुभेंदु लंबे समय से पार्टी में घुटन महसूस कर रहे थे। अब जब ममता बनर्जी अधिकारी परिवार को मीरजाफर जैसे उपनामों से नवाज रही हैं तो अधिकारी परिवार आहत है। यही वजह है कि अपने जनाधार के भरोसे शुभेंदु कह रहे हैं कि यदि ममता को न हरा पाया तो राजनीति छोड़ दूंगा। हालांकि, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से मिले समर्थन और संबल से शुभेंदु खासे उत्साहित हैं।
टीएमसी में उचित सम्मान न मिलने से आहत शुभेंदु भाजपा में शामिल हुए थे, लेकिन उनका सीधा मुकाबला टीएमसी सुप्रीमो से होगा, यह उन्होंने भी नहीं सोचा था। अधिकारी परिवार की क्षेत्र में दखल को राजनीतिक पंडित भी स्वीकार करते हैं। सांगठनिक कौशल में भी उनके मुकाबले का दूसरा नेता क्षेत्र में नजर नहीं आता। यही वजह है कि डेढ़ दशक बाद फिर शुभेंदु नंदीग्राम को चर्चाओं में ले आये। राज्य की इस बहुचर्चित सीट का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि भाजपा के आक्रामक प्रचार अभियान के बीच क्षेत्र के लोग दीदी के नाम पर मोहर लगाते हैं या फिर दादा के नाम पर।