लक्ष्मीकांता चावला
भारत सदैव से ही धर्म प्रधान देश रहा है। यह भी कह सकते हैं कि भारत की आत्मा ही धर्म है। हमारे महर्षियों ने धर्म की परिभाषा देते हुए उसे किसी विशेष पूजा पद्धति एवं संप्रदाय आदि से नहीं जोड़ा, अपितु यह कहा है कि धर्म के दस लक्षण हैं। धृतिः अर्थात् धैर्य, क्षमा, दम अर्थात् मानसिक वृत्तियों का निग्रह, अस्तेय अर्थात अन्याय से दूसरे का धन न लेना, शौच का अर्थ है पवित्रता, आंतरिक भी और बाहरी भी। इंद्रिय निग्रह धर्म का छठा लक्षण है। इसका सरल भाषा में अर्थ यह है कि इंद्रियों को बुरे विषयों से हटाकर पवित्र विषयों की ओर प्रेरित करना है और धी तो बुद्धि है, जो मानव को मानव बनाती है। विद्या प्राप्ति अर्थात वह विद्या जो सत्य, असत्य की पहचान करवाती है। सत्य धर्म का महत्वपूर्ण लक्षण है। सभी ऋषियों ने यह स्वीकार किया है कि सत्य से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं। क्रोध न करना भी धर्म है। यद्यपि पाप और अत्याचार का नाश करने के लिए सात्विक क्रोध को उत्तम माना गया है।
इसके अतिरिक्त सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण में अहिंसा को ही धर्म स्वीकार करते हुए धर्म के 11 लक्षण बताए हैं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि अनादि काल से धर्म की जो व्याख्या हमारे ऋषियों-महर्षियों ने दी, क्या हम सब उनका अनुसरण करते हैं। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि हमारे देश में और दुनिया में धर्म के नाम पर जो झगड़े होते हैं, क्या वे धर्म के नाम पर होते हैं। धर्म की जो परिभाषा भारतीय ऋषियों ने दी, क्या उसको अपनाकर कोई दूसरों का सिर तोड़ सकता है, किसी के घर को आग के हवाले कर सकता है, दंगा-फसाद कर सकता है? आज जब विश्व और हमारा देश कोरोना महामारी की भयानक चपेट में है। लाखों लोग मौत के मुंह में चले गए। लाखों जिंदगी बचाने के लिए तड़प रहे हैं। अनेक मृतक अंतिम संस्कार का सम्मान भी न पा सके और हजारों मृतक शरीर देश की नदियों में न जाने किस मजबूरी से परिजनों ने बहा दिए। ऐसे समय में धर्म केवल एक ही है अौर वह है उनकी सेवा करना जो महामारी की चपेट में आकर जिंदगी के लिए तरस रहे हैं।
प्रश्न है कि क्या उन एक हजार डाक्टरों से बड़ा कोई धार्मिक है जो कोरोना से दूसरों को बचाते हुए अपने जीवन से हाथ धो बैठे। हजारों ही ऐसे स्वास्थ्य कर्मी हैं जो उन लोगों का जीवन बचाने में लगे हुए हैं, जिनके निकट जाने में उनके अपने परिजन भी परहेज करते थे। अगर आज धर्म की परिभाषा सही अर्थों में अपना रहे हैं तो वे धार्मिक महामानव हैं जो सड़कों पर ही आक्सीजन के लंगर लगाकर बैठे हैं। जो लाखों कोरोना पीड़ित परिवारों के घरों का दरवाजा खटखटाकर उन्हें शुद्ध पौष्टिक भोजन देकर आते हैं। जरा चंडीगढ़ के पीजीआई के आगे जाकर धर्म के काम को देखिए। 18 घंटे से भी ज्यादा समय लंगर बांटने वालों की कभी समाप्त न होने वाली पंक्ति और लंगर पकाने वालों का कभी भी न थकना धर्म की सही परिभाषा समझाता, सिखाता है।
यह सही है कि वे कभी सरकारी चर्चा में नहीं आए और उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं। देश के लाखों युवक ऐसे हैं जो रोगियों के लिए खूनदान करने का एक संदेश पाते ही अपना खून देने के लिए अस्पतालों और ब्लड बैंक की तरफ दौड़ पड़ते हैं। अगर वास्तव में ही किसी विशेष ढंग से पूजा करना, किसी विशेष संप्रदाय के पूजा स्थलों पर जाकर अपनी उपस्थिति का अहसास करवाना या अपने नाम से दान की घोषणा करवाकर किसी तथाकथित धार्मिक संस्था का मुखिया बन जाना धर्म है तो निश्चित ही यह कार्य तो उस व्यक्ति ने भी किया होगा जो दिल्ली की खान मार्केट में सैकड़ों आक्सीजन के सिलेंडर छिपाकर कालाबाजारी करने और नोट कमाने के लिए लोगों की जिंदगी को मौत के मुंह में धकेलने का कुप्रयास कर रहा था। जो सूरत के एक अस्पताल का मालिक दवाओं का निर्माता नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाकर जबलपुर तक बेच कर करोड़ों कमाने के लिए लगा रहा, वह भी तो किसी पूजा पद्धति से जुड़ा होगा। चाहे खान मार्केट का कालरा हो या सूरत का सर्बजीत मोखा, इनके जीवन में कोई न कोई पूजा पद्धति तो रही है, पर नहीं रहा धर्म का वास्तविक रूप।
आज आवश्यकता है नए सिरे से विचार करें कि धर्म किसी विशेष पूजा पद्धति से जुड़ा है या धर्म परहित है। धर्म दान है। धर्म अहिंसा है। धर्म लालच न करना है। आज देश के नायकों से विनम्र निवेदन है कि महर्षि व्यास, गोस्वामी तुलसीदास जी और महर्षि वाल्मीकि जी द्वारा हमें जो धर्म की परिभाषा दी गई है, हमारे वेदों में परहित राष्ट्रहित की जो सुंदर समीक्षा की गई है, वह देशवासियों को समझाएं। अगर परहित धर्म नहीं तो धर्म फिर क्या हो सकता है। महामारी के इस भयानक काल में हमें उसी धर्म की आवश्यकता है।