‘मैंने स्वप्न में देखा कि जीवन आनंद है, मैं जागा और पाया कि जीवन सेवा है, मैंने सेवा की और पाया कि सेवा में ही आनंद है।’-यह कहना है नोबेल विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का। महामारी के दौर और आम दिनों में भी, सिख बिरादरी का सेवा भाव इनसानियत की मिसाल बन कर उभरा है। सेवा और लंगर ऐसी परम्परा है, जहां न जात पूछी जाती है, न धर्म। सिख समुदाय ने जाहिर कर दिया है कि मदद करने के लिए केवल धन की आवश्यकता नहीं होती, उसके लिए एक नेक मन का होना अधिक आवश्यक है।
असल में, लंगर फारसी का शब्द है, शाब्दिक अर्थ है दान-धर्म का स्थल अथवा निर्धन-ज़रूरतमंदों के लिए आश्रय का बसेरा। विस्तृत अर्थ में यह एक सार्वजनिक रसोई घर है, जहां लोग ज़मीन पर बैठ कर भोजन या लंगर छक सकते हैं। लंगर में सदा शाकाहारी, सात्विक, साफ-सुथरा और सुच्चा भोजन परोसने की परम्परा है। मौजूदा ज़रूरतमंदों के मुताबिक दवाइयों और ऑक्सीजन तक के लंगर लगने लगे हैं।
लंगर के मूलमंत्र ‘दिल से सेवा’ पर गुरु नानक देव का एक प्रसंग है-‘एक बार एक व्यक्ति ने गुरु नानक देव से पूछा, ‘मैं इतना गरीब हूं कि किसी की क्या सहायता कर सकता हूं।’ गुरु नानक देव सहज भाव से बोले, ‘तुम गरीब हो,क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा।’ उस व्यक्ति ने जानना चाहा, ‘लेकिन मेरे पास देने के लिए कुछ है कहां?’ गुरु नानक देव ने समझाया, ‘तुम्हारा चेहरा मुस्कान दे सकता है। तुम्हारा मुंह किसी की प्रशंसा कर सकता है। दूसरों में सुकून का अहसास जगाने के लिए मीठे वचन बोल सकता है। तुम्हारे हाथ किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकते हैं। और तुम कहते हो कि तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है।’ सच है कि आत्मा की गरीबी ही वास्तविक गरीबी है। पाने का हक उसे ही है, जो देना जानता है। जगज़ाहिर है कि समाज में लंगर परम्परा गुरु नानक देव जी की ही देन है। उन्होंने ही करीब पांच सौ साल पहले करतारपुर साहिब (अब पाकिस्तान) से गुरु के लंगर सेवा का श्रीगणेश किया था।
मानवता की सेवा के ही भाव का संचार करता है भारतीय सेना का आदर्श वाक्य-‘स्वयं से पहले सेवा।’ खुद से पहले दूसरों की सेवा को अपने जीवन का संस्कार और सिद्धांत बनाने में जो आनंद है, वह अपने लिए जीने में कतई नहीं। दूसरों के जीवन में सेवा रूपी छोटी-छोटी सुगंध फैलाने के मज़बूत संकल्प से सेवादार का जीवन सफल होता है।
कई गृहिणियां अपनी घर-गृहस्थी के कामकाज निपटा कर, गुरुद्वारों में दिन-प्रतिदिन जूता सेवा, पोछा सेवा, चपाती सेवा आदि तक करती हैं। ऐसे मजबूत संकल्प के छोटे-छोटे कदम समूचे परिवार को भलाई और नेकी की तरफ ले जाते हैं। परिवार के बच्चे अपने माता- पिता को सेवा करते देखते हैं, तो उनका भी सेवा समर्पण के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक है। कहते भी हैं कि हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई बनने से पहले आओ हम इनसान बन जाएं क्योंकि मानव की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। इसीलिए ‘मानव धर्म सर्वोपरि’ के पाठ को जीवन में उतारें। मानव की आत्मा ही परमात्मा है और मानव मात्र की सेवा करने से ही सच्चे सुख की प्राप्ति होती है, सुकून मिलता है। सेवा के बीज बचपन से ही बोने होंगे। मनोविज्ञान भी साबित करता है कि अगर खुशी, समृद्धि और संतोष जैसे गुणों को जीवन में लाना है, तो सेवा को अपने जीवन में जोड़ना लाज़मी है।
किसी सयाने ने लिखा है, ‘हर इनसान के पास चुटकी भर ताकत होती है, चुटकी भर उम्मीद, चुटकी भर मुहब्बत। तीनों बीजों की तरह हैं, जो हर इनसान के भीतर रोपे गए हैं। अगर इन्हें अपने ही भीतर बंद कर लें और दूसरे को न दें, तो सभी बीज सड़ जाते हैं और जल्दी मर जाएंगे। फिर उसके पास कुछ नहीं बचता, और जीवन जीने लायक नहीं रह जाता। अगर वह ताकत, उम्मीद और मुहब्बत दूसरों को बांटता है, तो उसके पास इनका ऐसा खजाना भर जाता है, जो कभी चुकता नहीं।’
जो इनसान मानव सेवा में लीन रहता है, वह सदा बुराइयों से दूर रहता है। अच्छाइयों का असली खजाना या अमीरी दूसरों की सेवा में ही हासिल होती है। दिल से सेवा करने से आप के घर-कारोबार में भी बरकत और समृद्धि आती है। इसलिए अपना ज्यादा से ज्यादा तन, मन, धन और समय दूसरों की सेवा में लगाना चाहिए।
सुना है कि जब तुम्हारे साथ कोई नेकी करे, तो उसे बयान करो। और जब तुम किसी के साथ नेकी करो, तो उसे भूल जाओ। सो, बगैर स्वार्थ के दूसरों का ख्याल रखिए। सेवा के भाव को अहमियत दीजिए, इससे इनसान खुद ही आत्मसम्मान के भाव से लबालब हो जाता है। सुकरात ने एक प्रसंग में बताया था कि स्वर्ग कोई बना-बनाया स्थान नहीं है। स्वर्ग अच्छे इनसान का निर्माण है। अपने भीतर जब अच्छा निर्मित हो जाता है, तो बाहर अच्छा फैल जाता है। इसलिए हर इनसान का पहला धर्म, पहली काबिलियत और पहली अहमियत सेवाभाव और मददगार इनसान बनना होनी चाहिए।