मुकुल व्यास
यदि कोई व्यक्ति कोरोना वायरस से दोबारा संक्रमित होता है तो पुनर्संक्रमण के खिलाफ किस तरह के इम्यून रेस्पांस की जरूरत पड़ेगी? यह जानने के लिए वे कुछ वॉलंटियरों को जानबूझकर दोबारा कोरोना वायरस से संक्रमित करना चाहते हैं। इसके लिए वे ऐसे वॉलंटियर खोज रहे हैं, जिन्हें कोविड हो चुका है। ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी को इस तरह का ‘चैलेंज ट्रायल’ करने की अनुमति मिल गई है। यूनिवर्सिटी में वैक्सीनोलॉजी की प्रोफेसर डॉ. हेलेन मैकशान ने कहा कि यदि नियंत्रित तरीके से यह पता लग जाए कि पुनर्संक्रमण से बचाव के लिए किस प्रकार के इम्यून रेस्पांस की जरूरत पड़ेगी तो हम ऐसे लोगों का अध्ययन कर सकेंगे, जिनमें कुदरती तौर पर संक्रमण हो चुका है। इस अध्ययन के बाद हम यह तय कर सकेंगे कि क्या वे दूसरे संक्रमण से सुरक्षित हैं या नहीं।
चैलेंज स्टडी में ऐसे लोगों को नियंत्रित वातावरण में वायरस से संक्रमित किया जाता है, जिनमें कोविड के गंभीर रूप लेने का खतरा बहुत कम होता है। इससे पहले इसी साल के आरंभ में कुछ दूसरे रिसर्चरों ने ऐसे लोगों के साथ चैलेंज ट्रायल शुरू किया था जो पहले से संक्रमित नहीं थे। इन स्वस्थ लोगों को जानबूझकर कोरोना वायरस की बहुत अल्प मात्रा दी गई थी। नये अध्ययन के लिए रिसर्चर 18 से 30 साल की आयु के ऐसे स्वस्थ वॉलंटियर की भर्ती कर रहे हैं, जिन्हें ट्रायल में भाग लेने से पहले कम से कम तीन महीने पहले कोरोना वायरस का संक्रमण हुआ और उनके शरीर में वायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज मौजूद हैं।
इस अध्ययन के दो चरण होंगे। पहले चरण में 24 वॉलंटियर शामिल किए जाएंगे। इस अध्ययन में वायरस की उस न्यूनतम खुराक का पता लगाया जाएगा जो बिना किसी लक्षण या बहुत मामूली लक्षणों के साथ वॉलंटियरों में संक्रमण उत्पन्न कर सकती है। मैकशान ने बताया कि हम वायरस की बहुत कम मात्रा से शुरुआत करेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि यह मात्रा सेफ हो। यदि यह मात्रा वॉलंटियरों में संक्रमण उत्पन्न करने में सफल नहीं रहती तो वायरस की डोज बढ़ाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि हमारा लक्ष्य 50 प्रतिशत वालंटियरों को संक्रमित करने का है, जिनमें बहुत मामूली लक्षण हों या कोई लक्षण न हों। दूसरे चरण में 10 से लेकर 40 लोग भाग लेंगे। उन्हें पहले चरण में निर्धारित वायरस की डोज दी जाएगी।
रिसर्चरों को उम्मीद है कि इस अध्ययन से यह जानने में मदद मिल सकती है कि एंटीबॉडीज और ‘टी’ कोशिकाओं का कौन-सा स्तर दूसरे संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करता है। ध्यान रहे कि ‘टी’ कोशिकाएं एक किस्म की श्वेत रक्त कोशिकाएं हैं। ये कोशिकाएं इम्यून सिस्टम की अनिवार्य अंग हैं। वायरस के संपर्क में आने वाले सभी वॉलंटियरों को 17 दिन के लिए क्वारंटीन किया जाएगा और उनके स्वास्थ्य की बारीकी से जांच की जाएगी। उनके फेफड़ों के सीटी स्कैन सहित कई टेस्ट किए जाएंगे। जिन वॉलंटियरों में कोविड के लक्षण दिखेंगे, उन्हें रिजनेरॉन कंपनी द्वारा विकसित मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज दी जाएंगी, जिनसे अस्पताल में जाने का रिस्क कम होता है। दूसरे संक्रमण से ठीक होने वाले वॉलंटियर पर 8 महीने तक नजर रखी जाएगी।
इस बीच, अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कोरोना के संक्रमण से लड़ने वाले मानव जीनों के समूह की पहचान की है। यदि हमें यह पता चल जाए कि कौन से जीन वायरस के संक्रमण को रोकने में मदद करते हैं तो हमें उन कारणों को समझने में मदद मिल सकती है, जिनसे कोविड गंभीर रूप धारण कर लेता है। इससे बीमारी के इलाज के लिए दूसरे विकल्पों का भी पता चल सकता है। अमेरिका के स्टेनफोर्ड बर्नहेम प्रेबिस मेडिकल डिस्कवरी इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों ने जिन जीनों की पहचान की है, उनका संबंध इंटरफेरोन प्रोटीनों से है जो वायरस से लड़ने वाले शरीर के फ्रंटलाइन योद्धा होते हैं। यह अध्ययन मॉलिक्युलर सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
संस्थान में इम्युनिटी प्रोग्राम के डायरेक्टर और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक सुमित के. चंदा ने बताया कि हम यह देखना चाहते थे कि कोशिकाओं के स्तर पर कोरोना के खिलाफ शरीर का रेस्पांस कैसा होता है। हम यह भी पता लगाना चाहते थे कि संक्रमण के खिलाफ तगड़ा या कमजोर रेस्पांस किन कारणों से होता है। उन्होंने कहा कि इस रिसर्च से हमें यह समझने में मदद मिली है कि वायरस किस प्रकार मानव कोशिकाओं के भीतर अपनी सक्रियता बढ़ाता है। पैंडेमिक शुरू होने के बाद रिसर्चरों ने पता लगाया था कि इंटरफेरोन के कमजोर रेस्पांस से कोविड गंभीर रूप लेने लगता है। इस खोज के बाद चंदा और उनके सहयोगियों ने उन मानव जीनों की तलाश शुरू कर दी, जिन्हें इंटरफेरोन द्वारा सक्रिय किया जाता है। इन जीनों को ‘इंटरफेरोन स्टिमुलेटेड जीन’ (आईएसजी) भी कहा जाता है। ये जीन कोरोना संक्रमण के प्रभाव को कम करते हैं। रिसर्चरों ने 2002 से लेकर 2004 तक फैली सार्स कोव-1 महामारी के अध्ययन से मिली जानकारी के आधार पर कोविड-19 में वायरस के विस्तार की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाले आईएसजी जीनों को पहचानने का काम शुरू किया। चंदा ने बताया कि उनकी टीम ने 65 आईएसजी जीनों की पहचान की जो कोरोना वायरस के संक्रमण को नियंत्रित करते हैं। इनमें कुछ ऐसे जीन शामिल हैं जो कोशिकाओं में दाखिल होने की वायरस की क्षमता को अवरुद्ध करते हैं। कुछ ऐसे जीन हैं जो वायरस की जीवन शक्ति, आरएनए के निर्माण की प्रक्रिया को रोकते हैं। इनके अलावा इन जीनों में कुछ ऐसे भी जीन हैं जो वायरस के जमाव में रुकावट डालते हैं।
एक दिलचस्प बात यह है कि कुछ आईएसजी जीनों ने मौसमी फ्लू, वेस्ट नाइल और एचआईवी वायरसों पर भी अपना नियंत्रण दर्शाया है। इस अध्ययन की प्रथम लेखक लॉरा मार्टिन सांचेज ने बताया कि हमने आठ जीनों की पहचान की है जो सार्स कोव-1 और सार्स कोव-2 वायरसों में रिप्लीकेशन (प्रतिकृति बनने की प्रक्रिया) को रोकते हैं। इस खोज का उपयोग वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए किया जा सकता है।
अगले चरण में रिसर्चर कोरोना वायरस की विभिन्न किस्मों अथवा वेरिएंट्स के जीव-विज्ञान का अध्ययन करेंगे। ये किस्में लगातार विकसित हो रही हैं और इसकी वजह से वैक्सीनों की प्रभावशीलता पर भी असर पड़ रहा है। रिसर्चरों ने प्रयोगशाला में अध्ययन के लिए इन वेरिएंट्स को एकत्र करना भी शुरू कर दिया है। यह अध्ययन भविष्य में किसी वायरस से होने वाली महामारी से निपटने में भी काम आएगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।