योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
अन्तर्मन कबीर की एक साखी में उलझ कर जाने क्या-क्या सोच रहा है। कबीर ने कब, क्यों और किसे देखकर यह साखी कही होगी? इस साखी में आज के लिए ऐसा क्या संदेश छिपा हुआ है कि अन्तर्मन बेचैन-सा हो रहा है? कबीर की साखी है :-
माया मरी न मन मरे, मर-मर गए सरीर।
आसा तृस्ना ना मरी, कह गए दास कबीर।
अर्थात् यह शरीर तो जाने कितनी बार मरा है, रोज़ ही मरता है, लेकिन न माया मरती है और न ही संसार में रह कर और ज्यादा पाने की तृष्णा ही मरती है।
क्या हम केवल और केवल सांसारिक सुखों और सुविधाओं को पाने के लिए ही इस संसार में आए हैं? क्या आलीशान बिल्डिंग और महंगी कारों वाले ही सुखी हैं? क्या धन, दौलत और ऐश्वर्य पाकर ही आदमी को इस संसार में मानसिक शान्ति मिल सकती है? वास्तविकता यह है कि आज हम स्वार्थवादिता में बुरी तरह फंस गए हैं और केवल अपने लिए ही सब कुछ पाना चाहते हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने कामायनी महाकाव्य में श्रद्धा से मनु को जो शब्द कहलाए हैं, उनमें जीवन का सार-तत्व निहित है :-
अपने में भर सब कुछ कैसे, व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ है भीषण, अपना नाश करेगा।
दरअसल, हमारी आवश्यकताएं असीमित हैं और उनकी पूर्ति के साधन सीमित होते हैं, इसलिए मनुष्य की आवश्यकताएं कभी पूरी नहीं हो सकती और मनुष्य अशांत रहता है। तब क्या किया जाए? क्या हमें अपनी इच्छाओं का दास बन जाना चाहिए? क्या सुविधाओं के पीछे भागना ही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए? ऐसे में एक प्रसंग महात्मा बुद्ध के जीवन का पढ़ने को मिल गया, जिसे पढ़कर सच्चे सुख और शान्ति को पाने का सही मार्ग दिखाई दिया है।
प्रसंग इस प्रकार है—महात्मा बुद्ध एकबार पाटलिपुत्र पहुंचे। उनके विहार में प्रतिदिन अनेक लोग उनके प्रवचन सुनने और अपनी श्रद्धा अर्पित करने आते थे। बुद्ध आने वालों की जिज्ञासाओं और शंकाओं का निवारण भी करते थे। एक दिन विहार में सम्राट, अमात्य, सेनापति और नगर के श्रेष्ठिजन उपस्थित थे, तभी आनंद ने बुद्ध से प्रश्न किया—भन्ते! सुख क्या है? और यहां बैठे लोगों में सबसे ज्यादा सुखी कौन है? प्रश्न सुनकर महात्मा बुद्ध क्षण भर मौन रहे और उन्होंने सभा में बैठे लोगों की ओर देखा। बुद्ध का उत्तर सुनने के लिए सभा में सन्नाटा था। सभी सोच रहे थे कि बुद्ध आज सम्राट या अमात्य या सेनापति आदि की ओर संकेत करेंगे, लेकिन महात्मा बुद्ध ने तो सबसे पीछे एक कोने में बैठे फटेहाल, कृशकाय व्यक्ति की ओर संकेत करके कहा—आनंद! वह सबसे सुखी व्यक्ति है।
सभा में बैठा हर व्यक्ति अचंभे में पड़ गया कि इतने बड़े और संपन्न लोगों के होते बुद्ध ने इस फटेहाल कृशकाय व्यक्ति को सबसे सुखी कैसे बताया है? महात्मा बुद्ध ने लोगों की जिज्ञासा देखते हुए कहा कि आप सभी अपनी-अपनी इच्छाएं बताएं। सबने बुद्ध को अपनी इच्छाएं बताईं, तो अन्त में उस फटेहाल व्यक्ति की बारी आई, तो उसने कहा—मेरी कोई इच्छा नहीं है, आप पूछ ही रहे हैं, तो मैं कहूंगा कि मुझमें ऐसी चाह पैदा हो कि मन में कोई इच्छा ही पैदा न हो।
तब बुद्ध ने उससे पूछा—क्या तुम्हें धन, नए वस्त्र, आलीशान घर नहीं चाहिए? तो उस व्यक्ति का उत्तर था—मेरी सारी आवश्यकताएं इतने से पूरी हो जाती हैं, तो और का क्या करूंगा?
भगवान बुद्ध ने कहा—उपस्थित जनों, इस व्यक्ति के उत्तर में ही समाधान छिपा हुआ है। संसार में कोई भी व्यक्ति धन, दौलत, ऐश्वर्य, वैभव और वस्त्रों आदि से सुखी नहीं होता। सुख तो हमारे भीतर रहता है, हमारी सोच में रहता है। जिस आदमी के भीतर ज्यादा से ज्यादा पाने की लालसा है, इकट्ठा करने की चाह है, वह भला कैसे सुखी हो सकता है? यह प्रसंग असली सुख का अनुभव करने वाले संतों के जीवन का तत्व दर्शाने वाले इस कथन की याद कराता है :-
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु ना भूखा जाय।
हम निरंतर सब कुछ पाने की लालसा में सब कुछ खो देते हैं। मन का संतोष हमने खो दिया है और हमारे मन बेचैनी में तड़पते हैं। आखिर, जब विश्वविजय की कामना रखने वाले सिकंदर को भी दुनिया से खाली हाथ ही जाना पड़ा था, तब क्यों यह बात समझ में नहीं आती कि संसार में सुख केवल संतोष से ही मिल पाता है। हमारा तो चिंतन ही यह रहा है :-
गौधन,गजधन,बाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।
अन्तर्मन तो मनु को कहे गए श्रद्धा के मूल्यवान शब्दों को दोहराने को करता है :-
औरों को हंसते देखो मनु, हंसों और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।
तो आइए, एक संकल्प तो आज हम कर ही लें कि जितना प्रभु हमें दे रहे हैं, उसमें संतोष करना सीखें। सच्चा सुख तो सचमुच संतोष में ही मिलेगा, भागमभाग में कदापि नहीं।