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वोट के मोह में सनातनी गुणगान

हेमंत पाल राजनीति और धर्म के रास्ते हमेशा अलग-अलग रहे हैं। इसलिए कि सामाजिक धरातल और दृष्टिकोण से भी इनमें दूरी बने रहना जरूरी है। लेकिन, अब वो स्थिति नहीं रही। राजनीति और धर्म में ऐसा घालमेल हो गया, कि...

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हेमंत पाल

राजनीति और धर्म के रास्ते हमेशा अलग-अलग रहे हैं। इसलिए कि सामाजिक धरातल और दृष्टिकोण से भी इनमें दूरी बने रहना जरूरी है। लेकिन, अब वो स्थिति नहीं रही। राजनीति और धर्म में ऐसा घालमेल हो गया, कि दोनों ही रास्ते आपस में एकाकार हो गए। कुछ सालों में तो हालात ये बन गए कि धर्म का राजनीतिक लक्ष्य पाने के फार्मूले की तरह इस्तेमाल होने लगा। ये हालात कुछ ही सालों में बने, जब लोगों को धर्म की अफीम इतनी चटाई गई कि वे इसके आदी हो गए। पांच राज्यों के प्रस्तावित विधानसभा चुनाव से पहले तो सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसे सत्ता तक पहुंचने का आसान रास्ता ही समझ लिया। हिंदी भाषी राज्यों में तो चुनाव से पहले कथा, भागवत और धर्म आधारित आयोजनों की बाढ़ जैसी आ गई। इसलिए कि धर्म के ‘सनातन’ पक्ष को इतना ज्यादा प्रचारित किया कि लोगों ने इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया। निस्संदेह जीवन में धर्म की महत्ता एक सीमा तक है, कर्म की उससे कहीं ज्यादा।

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कुछ साल पहले यह माहौल था कि जब कोई नेता धर्म के मंच पर पहुंचते, तो अपनी राजनीतिक पहचान को नीचे छोड़कर शीश नवाते थे। वे न तो आयोजन का हिस्सा बनने की कोशिश करते और न अपनी धार्मिक आस्था को प्रचारित करते थे। इसलिए कि ये राजनीतिक मर्यादा तोड़ने जैसी बात थी और इसका गंभीरता से पालन होता था। पर, अब ऐसा नहीं होता। पार्टियां और उनसे जुड़े नेता अपने आपको धार्मिक बताने का कोई मौका नहीं छोड़ते। यहां तक कि जब भी ऐसा कोई प्रसंग आता है, वे धर्म का आवरण धारण करने से भी नहीं चूकते। क्योंकि, उन्हें समझ आ गया कि अब राजनीति में धर्म की स्वीकार्यता बढ़ गई और इसे गलत भी नहीं समझा जाता। यही कारण है कि जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, हिंदीभाषी राज्यों में कथावाचकों के आयोजन बढ़ गए। इसके अलावा तीज-त्योहार को भी हर पार्टी ज्यादा जोश से मनाने लगी। अब इस बात पर होड़-जोड़ होने लगी कि कौन ज्यादा बड़ा धार्मिक है।

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इसका दोष किसी एक पार्टी को नहीं दिया जा सकता। भाजपा, कांग्रेस और उसके साथ क्षेत्रीय पार्टियां भी चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए अब धर्म की नाव पर सवार होने को बुरा नहीं मानती। कथाओं, प्रवचनों और धार्मिक आयोजनों से जनता को जोड़ने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा। इन आयोजनों के प्रचार से ही राजनीतिक लोग ये दर्शाना भी नहीं छोड़ते कि इस आयोजन के पीछे वे हैं, ताकि उनकी आस्था को चुनाव में भुनाया जा सके। आजकल एक नया फार्मूला और खोज लिया गया, वो है रुद्राक्ष का वितरण। इस बहाने भी भीड़ इकट्ठा की जाने लगी है। कई बार रुद्राक्ष पाने के लिए रास्तों पर घंटों जाम लगने, भीड़ की भागमभाग से घायल होने जैसी कई घटनाएं हुईं। रुद्राक्ष के बाद अब तो गंगाजल की राजनीति में एंट्री हो गई। एक राजनीतिक पार्टी ने लोगों को गंगाजल बांटने की योजना बनाकर अपने आपको ज्यादा सनातनी बताने की कोशिश की।

मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में करीब सालभर से कथावाचकों के आयोजन कुछ ज्यादा ही होने लगे। लाखों के खर्च से विशाल पंडालों में होने वाले इन आयोजनों का मकसद सिर्फ राजनीतिक फ़ायदे तक सीमित हो गया। मध्यप्रदेश का मालवा-निमाड़ इलाका तो लम्बे अरसे से पूरी तरह धार्मिक हो गया। इस क्षेत्र की 66 विधानसभा सीटों में सालभर में 200 से ज्यादा धार्मिक आयोजन हुए। इस क्षेत्र के लगभग सभी मंत्री और विधायक अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में कई बड़े धार्मिक आयोजन करवा चुके हैं। ज्यादातर नेता कथावाचकों की कथाओं में व्यस्त हैं। जो बचे वे तीर्थ दर्शन और कलश और चुनरी यात्राएं करवा रहे हैं। इस तरह के आयोजन में सभी लोग जुड़ते हैं, फिर उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता उस नेता की राजनीति से मेल खाती हो या नहीं! चुनाव की नजदीकी के कारण इस बार का गणेश उत्सव भी राजनीति की भेंट चढ़ गया। नेताओं ने अपने विधानसभा इलाकों में बड़े-बड़े आयोजन करवाए।

राजनीति में जब एक तरफ सनातन का मुद्दा गरमाया हुआ है, तो निश्चित रूप से इसके खिलाफ कुछ भी बोलना आपत्तिजनक ही माना जाएगा। दक्षिण के एक नेता ने सनातन विरोधी बयान देकर ऐसे हालात बना दिए कि उनके खिलाफ एक विचारधारा के नेता एकजुट हो गए। उन्होंने कहा था कि धर्म की वजह से ही लोगों के बीच भेदभाव और विभाजन बढ़ा है। इस बयान के बाद कुछ राज्यों में उनके खिलाफ मामले भी दर्ज किए गए। राजस्थान के एक नेता ने तो इस मुद्दे पर बेहद तल्ख़ टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि सनातन धर्म की आलोचना करने वालों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इस नेता ने सनातन को जिस तरह राजनीति के लिए जरूरी बताया उससे लगता है कि भविष्य में पार्टी और उम्मीदवार की चुनावी जीत उसके सनातनी होने पर ज्यादा निर्भर करेगी, न कि उसके कामकाज और जनसेवा की भावना पर। इस तरह की भावना इसलिए भी खटकने वाली है कि एक तरफ हम चांद फतह करने और सूरज के छुपे रहस्यों को खोजकर दुनिया के सामने लाने कोशिश में लगे हैं, तो दूसरी तरफ धर्म के प्रति इतनी आसक्ति दिखाने लगे कि इसके बगैर जीवन बेकार है।

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