अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था पिछले 20 वर्षों में पूरी तरह अमेरिकी धन पर आश्रित हो गई है। तालिबान के पहले अफगानिस्तान सरकार के बजट का 75 प्रतिशत हिस्सा विदेशी अनुदान से प्राप्त हो रहा था। तालिबान की विजय के बाद यह रकम मिलना बंद ही नहीं हो गई है बल्कि अफगानिस्तान की पूर्व सरकार द्वारा अमेरिका के बैंकों में रखी गई रकम को भी फ्रीज कर दिया गया है। अफगानिस्तान की सरकार को पूर्व में जो आय होती थी, उसकी तुलना में केवल 25 प्रतिशत रकम अब उपलब्ध होगी जो कि उस देश को निश्चित रूप से आर्थिक संकट में डालेगी।
यह थी सरकार की बात। देश के मूल व्यवस्था का भी ऐसा ही हाल है। अफगानिस्तान की आय का दूसरा स्रोत अफीम है। विश्व का 80 प्रतिशत अफीम का उत्पादन अफगानिस्तान में होता है लेकिन इस मद से अफगानिस्तान को कम ही आय हो रही थी। एक अनुमान के अनुसार पूर्व में तालिबान को अफीम के व्यापार से कम और कानूनी व्यापार पर वसूले गए गैर कानूनी टैक्स से अधिक आय होती थी। जैसे किसी व्यापारी ने कालीन का निर्यात किया। उसे कालीन को बंदरगाह तक पहुंचाना है। बंदरगाह तक माल को सुरक्षित पहुंचने देने के लिए तालिबान द्वारा वसूली की जाती थी। इस प्रकार की वसूली से तालिबान को आय ज्यादा होती थी। यद्यपि विश्वस्तर पर तालिबान का अफीम की सप्लाई में हिस्सा अधिक है लेकिन इससे तालिबान को भारी रकम मिलने की संभावना कम ही है।
अफ़ग़ानिस्तान की आय का दूसरा स्रोत विदेशी व्यापार था। इस दिशा में भी तालिबान की रुचि कम ही दिखती है। जैसे भारत से व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया गया है। भारत को अफगानिस्तान द्वारा फल, ड्राई फ्रूट और मसाले सप्लाई किए जाते थे, जिनके व्यापार से प्रतिबंधित होने से भी अफगानिस्तान के इन माल के उत्पादकों को अपना माल बेचने की समस्या पैदा हो गई है। अफ़ग़ानिस्तान का तीसरा आर्थिक स्रोत खनिज है लेकिन इस संपत्ति का वाणिज्यिक दोहन कम ही हो पा रहा है। उदाहरणत: चीन ने 2007 में एक तांबे की खान का अनुबंध किया था जो कि अभी तक चालू नहीं हो सकी है। इसके पीछे कुछ कारण राजनीतिक भी हैं। लेकिन यदि खनिजों की गुणवत्ता उत्तम होती तो उनके दोहन का रास्ता निकाल ही लिया जाता। दूसरे खनिजों के दोहन का भी यही हाल है। संभवतः इसलिए पिछले 50 वर्षों में अफगानिस्तान में खनिजों के दोहन में विशेष प्रगति नहीं हो सकी है। इस प्रकार अफगानिस्तान आर्थिक दृष्टि से हर तरफ से घिरा हुआ है। विदेशी मदद में भारी कटौती हुई है, अफीम का व्यापार सीमित है, विदेश व्यापार को स्वयं तालिबान ने प्रतिबंधित किया है और खनिजों का वाणिज्यिक दोहन कठिन दिखता है।
लेकिन इस आर्थिक संकट से तालिबान और अफगानिस्तान के लोग टूटेंगे, इस पर संदेह है। हम देख चुके हैं कि सीरिया, ईरान, उत्तर कोरिया और वेनेजुएला जैसे देशों में भारी आर्थिक संकट के बावजूद लोगों ने अपनी सरकारों का समर्थन किया है। तालिबान मूलतः धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हैं। अमेरिका की इंस्टीट्यूट ऑफ पीस के एक अध्ययन के अनुसार तालिबान के चार प्रमुख मुद्दे राष्ट्रीय संप्रभुता, सैन्य ताकत, जिहाद की पवित्रता और इस्लामिक अमीरात की मान्यता है। इनमें अंतिम दो यानी जिहाद की पवित्रता और इस्लामिक अमीरात की मान्यता धर्म से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार अमेरिका की फॉरेन पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित एक पर्चे के अनुसार तालिबान कोई मुट्ठी भर आतंकवादी नहीं हैं। तालिबान का समर्थन अफगानिस्तान का आम आदमी करता है। उनका उद्देश्य है कि अपने धर्म और अपनी संस्कृति की रक्षा करें। इसी क्रम में इंडोनेशिया की यूनिवर्सिटी ऑफ एयरलंगा द्वारा प्रकाशित एक पर्चे में कहा गया है कि तालिबान का उद्देश्य भ्रष्ट और अधार्मिक सरकार को बदलना और धार्मिक इस्लामिक सरकार की स्थापना करना है। इस वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि तालिबान का उद्देश्य धर्म से प्रेरित है, इसलिए आर्थिक संकट से वे टूटेंगे, ऐसा नहीं दिखता।
भारत को इस परिस्थिति में अपना रास्ता बनाना है। तालिबान और पाकिस्तान दोनों ही कश्मीर के मुद्दे पर हमारे विरुद्ध खड़े हुए हैं। इसलिए तालिबान के साथ हम सामान्य सम्बन्ध नहीं बना पाएंगे। इस स्थिति में भारत के सामने दो उपाय हैं। एक उपाय है कि अमेरिका के साथ गठबंधन बना कर तालिबान, पाकिस्तान, ईरान और चीन के सम्मिलित गठबंधन का हम सामना करें। दूसरा उपाय है कि हम अमेरिका को छोड़कर ईरान और चीन के साथ गठबंधन बनाकर तालिबान और पाकिस्तान को घेरने का प्रयास करें। इस निर्णय पर पहुंचने के लिए हमको ईरान और चीन का तालिबान के प्रति रुख समझना होगा। ईरान शिया बाहुल्य देश है। अफगानिस्तान में भी 20 प्रतिशत मुसलमान शिया हैं। इन पर पूर्व में अक्सर अफगानी सुन्नियों द्वारा अत्याचार किए जाते रहे हैं। निवर्तमान संविधान में शिया और सुन्नी को बराबर का दर्जा दिया गया था परन्तु इस प्रकार के धार्मिक विवाद संविधानों से कम ही सुलझते हैं। इसलिए ईरान का मूल झुकाव तालिबान के विरुद्ध है। वह अपने शिया अल्पसंख्यक भाइयों की रक्षा करना चाहेंगे। इसी प्रकार चीन के सामने उइगर मुसलमानों का संकट है। चीन नहीं चाहेगा की तालिबान के साथ जुड़ाव करके उइगर मुसलमानों को अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन दे। इसलिए चीन और ईरान दोनों ही तालिबान के विरुद्ध हमसे जुड़ सकते हैं। चीन के लिए अफगानिस्तान का आर्थिक महत्व तुलना में कम है, चूंकि पाकिस्तान और ईरान के माध्यम से चीन को हिन्द महासागर में पहुंच मिल ही रही है।
आर्थिक दृष्टि से भी हमारे लिए ईरान और चीन के साथ गठबंधन लाभप्रद हो सकता है। ईरान के पास तेल भारी मात्रा में है और चीन के साथ हमारा व्यापार भारी मात्रा में हो ही रहा है। इसलिए आर्थिक दृष्टि से और तालिबान को घेरने की दृष्टि से यह ज्यादा तर्कसंगत लगता है कि हम ईरान और चीन के साथ मिलकर तालिबान और पाकिस्तान के गठबंधन को घेरने का प्रयास करें। यूं भी अमेरिका का सूर्य अस्त हो ही रहा है। अमेरिका जब अफगानिस्तान को त्याग कर चला गया है तो उसी अमेरिका के भरोसे हम ईरान, तालिबान, पाकिस्तान और चीन के विशाल गठबंधन का सामना कर सकेंगे, यह कठिन दिखता है।
तालिबान की समस्या मूलतः धार्मिक समस्या है। तालिबान का वैचारिक आधार अपने देश की ही देवबंदी विचारधारा है। इसलिए भारत को यदि विश्व गुरु की भूमिका निभानी है तो देवबंदी विचारकों के साथ संवाद कर तालिबान की विचारधारा का रूपांतरण करने का साहस दिखाना होगा। तालिबानी इस्लाम को नयी दिशा देने का प्रयास करना होगा। चूंकि तालिबान मूल रूप से धार्मिक संस्था है, इसलिए धार्मिक संवाद संभव हो सकता है। तब ही हमारे चारों तरफ शांति स्थापित होगी।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।