अरुण नैथानी
कहते हैं कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। लेकिन उड़ीसा जजपुर जिले के कंतीरा गांव के नंदा प्रुस्टी ने बताया कि पढ़ाने की भी कोई उम्र नहीं होती। साढ़े सात दशक से नि:शुल्क शिक्षण कार्य कर रहे नंदा प्रुस्टी का शरीर 102 साल में कई रोगों से ग्रस्त भी है, लेकिन उनका जुनून थमा नहीं। कहते हैं जब तक सांस चलेगी, कक्षाएं चलेंगी। जिन व्यक्तियों को कभी उन्होंने पढ़ाया, अब उनके पोतों को पढ़ा रहे हैं।
उनके इस ऋषिकर्म जैसे अभियान को तब प्रतिष्ठा मिली और पूरे देश जाना, जब हाल ही में उन्हें प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मश्री के लिये इस वर्ष चुना गया। निस्संदेह राजग सरकार के दौरान तमाम ऐसे अनाम लोगों को यह सम्मान मिला, जो दशकों से मानव सेवा में लगे थे। जिस पुरस्कार के लिये पूरे देश में लॉबिंग और जोड़तोड़ होती है, उस पुरस्कार के बारे में नंदा प्रुस्टी को तब पता चला जब पत्रकारों ने इसके उन्हें मिलने के बारे में बताया। बहरहाल, वे कहते हैं कभी पुरस्कार के लिये नहीं सोचा, अब मिला है तो बहुत खुश हूं।
परतंत्र भारत में जन्मे नंदा किशोर प्रुस्टी के घर के आसपास स्कूल नहीं थे। घर में घोर गरीबी थी। पिता पढ़ाने की स्थिति में न थे। मामा ने शिक्षा के प्रति उनके जुनून को समझा और अपने साथ ले जाकर उन्हें कक्षा सात तक पढ़ाया। दुर्भाग्य से मामा का तबादला कटक हो गया। पिता ने वहां पढ़ाई के लिये नहीं भेजा और कहा, खेती में हाथ बटाये। बालक नंदा के लिये यह बड़ा झटका था, लेकिन उन्होंने निराशा में डूबने के बजाय अपने अर्जित ज्ञान को नि:शुल्क बांटने का मन बनाया।
नंदा बताते हैं, मैंने देखा कि गांव के अनपढ़ बच्चे यूं ही गांव में मटरगश्ती करते रहते हैं। बच्चे तो बच्चे, बड़े अंगूठाछापों की बड़ी फौज थी। सोचा, कम से कम उन्हें हस्ताक्षर करना ही सिखाया जाये। संसाधन थे नहीं, सो एक पेड़ के नीचे गर्मी, सर्दी और बरसात में कक्षाएं शुरू हुई। सुबह के समय कुछ घंटों के लिये बच्चे आते और शाम को बुजुर्ग निरक्षर। ये सिलसिला चल निकला और पिछले साढ़े सात दशक से बदस्तूर जारी है। पहले-पहले तो बच्चों को पकड़-पकड़कर लाना पड़ा, फिर बच्चे स्वेच्छा से आने लगे। नंदा उन्हें उड़िया भाषा का ज्ञान और गणित सिखाते। बच्चों को कक्षा चार तक पढ़ाकर फिर औपचारिक स्कूलों में पढ़ने भेज देते हैं। केवल कंतीरा गांव के ही नहीं, आसपास के गांवों के बच्चे व बुजुर्ग भी उनके पास पढ़ने आने लगे। बुजुर्ग न केवल अक्षर ज्ञान हासिल करते बल्कि भगवद्गीता का भी पाठ भी उनके सान्निध्य में करते। बुजुर्ग अब अंगूठा लगाने के बजाय हस्ताक्षर करने लगे। दरअसल, इस मुहिम के जरिये नंदा परंपरागत चटशाली परंपरा का ही निर्वाह कर रहे हैं, जिसमें अनौपचारिक रूप से शिक्षा देने की परंपरा रही है। शायद वे इस परंपरा का निर्वहन करने वाले आखिरी व्यक्ति होंगे। यह परंपरा बताती है कि शिक्षा के दान से बड़ा कोई दान नहीं हो सकता। उनका मानना है कि शिक्षा देने का मूल्य नहीं लिया जाना चाहिए। इसी ऋषिकर्म का सम्मान कृतज्ञ राष्ट्र ने उन्हें 102 साल की उम्र में पद्मश्री के रूप में दिया।
बहरहाल, कतिपय स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बावजूद उनका मिशन जारी है। ज्यादा उम्र के चलते वे ऊंचा सुनते हैं, लेकिन पढ़ाने का जज्बा बदस्तूर जारी है। ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया कोविड महामारी से जूझ रहा थी और कंतीरा गांव में मास्क, सैनिटाइजर और पीपीए किट की सुविधा नहीं थी, नंदा प्रुस्टी की कक्षाएं जारी रहीं। उनका मकसद है कि गांव में कोई बच्चा अनपढ़ न रह जाये। गांव वाले उन्हें प्यार से नंद मस्तरे यानी नंदा मास्टर संबोधित करते हैं और आसपास के इलाकों में शिक्षा यज्ञ के चलते उनका बड़ा सम्मान है। उन्होंने ग्रामीणों की तीन पीढ़ियों को पढ़ाने का काम किया है।
एक समय था कि गांव में बच्चों को पढ़ाने के लिये कोई स्थान नहीं था। लेकिन आज जब गांव के सरपंच ने उन्हें संसाधन उपलब्ध कराने चाहे तो उन्होंने किसी तरह की सहायता लेने से मना कर दिया और प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा के यज्ञ को जारी रखने का संकल्प दोहराया। उनका मानना है कि ज्ञान बांटना किसी की मदद करने जैसा है, इसके लिये किसी तरह की मदद नहीं ली जानी चाहिए। वे कहते हैं, बच्चों को पढ़ाकर उन्हें आत्मिक खुशी मिलती है। वे चाहते हैं कि हर बच्चा पढ़-लिखकर अच्छा इंसान बने। लेकिन लालची न बने।
बहरहाल, नंदा प्रुस्टी को प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मश्री मिलने से गांव व आसपास के लोग आश्चर्य मिश्रित खुशी जता रहे हैं। इसे उनकी नि:स्वार्थ सेवा का प्रतिफल मान रहे हैं। उनके जज्बे को सराह रहे हैं।
हर मौसम में खुले वातावरण में पेड़ के नीचे बच्चों को पढ़ाने वाले नंदा प्रुस्टी का मानना है कि मन में संकल्प हो तो किसी भी काम और लक्ष्य के लिये उम्र कोई बाधा नहीं बनती। उद्देश्य व लक्ष्य सात्विक हो तो सफलता जरूर मिलती है। निस्संदेह, नंदा प्रुस्टी का यह अभियान देश के लाखों लोगों के लिये प्रेरणा का प्रतीक है। यही वजह कि आसपास स्कूल खुलने के बावजूद बच्चे उनके पास खुशी-खुशी पढ़ने आते हैं।