न्यायमूर्ति एस.एस. सोढी (अ.प्रा.)
क्या चंडीगढ़ के गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों को अपनी निजता बनाए रखने का हक है या नहीं? यह विषय इस केंद्रशासित प्रदेश द्वारा दिए एक आदेश के संदर्भ में उठ रहा है, जिसमें प्रशासन ने निजी स्कूलों को अपना वित्तीय विवरण (फाइनेंशियल स्टेटमेंट) वेबसाइट पर डालने को कहा है, ताकि छात्र और अभिभावक देख सकें, दूसरे शब्दों में, यह सार्वजनिक हो। यह सब उसके बावजूद है जब स्कूल प्रबंधन हर साल संबंधित विभागों को आय-व्यय और बजट संबंधी लेखा-जोखा मुहैया करवाता है।
इस डर के साथ कि वित्तीय लेखा-जोखा वेबसाइट पर अपलोड करने पर कहीं निजी शिक्षण संस्थान को बेवजह नुक्ताचीनी का सामना न करना पड़े और संभवतः अभिभावक और दीगर तत्व बेजा अड़ंगा न डालने लगें, जिससे कि विद्यालय के सुचारु प्रबंधन में अड़चनें पैदा हो जाएं, निजी स्कूल उक्त मामले को उच्च न्यायालय ले गए।
खंडपीठ ने केस नं. सीडब्ल्यू 7706 (2020), जो इंडिपेंडेंट स्कूल्स एसोसिएशन, चंडीगढ़ बनाम भारत सरकार के बीच चला, उसमें 28 मई को दिए फैसले में चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा निजी स्कूलों को अपनी वित्तीय जानकारी वेबसाइट पर डालने संबंधी दिए आदेश को सही ठहराया है। इसमें कहा गया ‘अभिवावकों से स्कूलों द्वारा बेजा मुनाफा कमाने वाली शिकायतों के बाद प्रशासन को आय-व्यय का ब्योरा अपलोड करने का आदेश देना पड़ा था।’ इसमें आगे यह कहा ‘न तो राज्य सरकारें और न ही संबंधित विभाग के अफसर स्कूलों की व्यावसायिक चार्टर्ड अकांउटेंट्स द्वारा बनाई लेखा रिपोर्टों पर गहराई से विचार करते हैं, अतः यदि निजी शिक्षण संस्थान अपनी वेबसाइट पर यह जानकारी उपलब्ध करवाएंगे तो इससे पारदर्शिता बनेगी और यह इस ध्येय की पूर्ति सुनिश्चित करने में सहायक होगी कि कोई संस्थान बेजा मुनाफाखोरी और दाखिला फीसें इत्यादि नहीं वसूल रहा। इसमें कोई शक नहीं कि अनेक निजी स्कूल हर साल दाखिला फीस लेने और अनावश्यक मुनाफा बनाने में लिप्त हैं। चूंकि संस्थानों द्वारा पेश किए वित्तीय विवरण व्यावसायिक माहिरों द्वारा बनाए गए होते हैं, इसलिए संबंधित सरकारी अधिकारी से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इनमें चतुराई से छिपाए सत्य को खोज निकालें।’
आगे यह आदेश कहता है ‘यदि संस्थानों का वित्तीय विवरण वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा तो छात्रों के अभिभावक भी इनको देख पाएंगे। संभवतः कई ऐसे माता-पिता जरूर होंगे, जिनकी अकाउंटिंग के क्षेत्र में महारत हो, और वे पड़ताल कर प्रशासन की यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि कोई शिक्षा संस्थान या स्कूल बेजा मुनाफा अथवा दाखिला फीसें न लेने पाए।’
गौरतलब है कि आखिर न्यायालय ने यह कैसे मान लिया कि निजी स्कूलों के व्यावसायिक माहिरों द्वारा बनाए वित्तीय विवरणों की गहराई से पड़ताल कर वास्तविकता खोज पाने में सरकारी विभाग के अधिकारी सक्षम नहीं हैं। आदर सहित कहना चाहूंगा कि यह तर्क सराहना योग्य नहीं कहा जा सकता। यह पहले से कैसे माना जा सकता है कि वे इतने काबिल नहीं हैं। अवश्य ही विभाग ऐसे विवरण केवल अपने दफ्तरों को भरने के लिए नहीं मांगते। यदि कोई स्कूल ज्यादा दाखिला फीस या अन्य अनाधिकारिक पैसा मांग रहा होगा तो संबंधित विभाग से उम्मीद है वे इतने काबिल तो हैं ही कि छिपे पेच को पकड़ पाएं और यथेष्ठ कार्रवाई करें।
लगता है वेबसाइट पर वित्तीय विवरण डलवाने को अदालत ने प्रभावित किया है, वह यह है कि शायद कुछेक स्कूल पहले ऐसा कर चुके हैं। यदि कुछ कर सकते हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि बाकी सब भी यही करें, जब तक कि उन पर ऐसा करने की कानूनी बाध्यता न हो। जब निजी स्कूलों द्वारा निजता का विषय उठाया गया तो अदालत का कहना था ‘यह आदेश किसी भी तरह उनकी निजता का हनन नहीं है, वैसे भी शिक्षा देने का काम परमार्थ करने वाला व्यवसाय है।’
जैसा कि सर्वविदित है, सब निजी स्कूल परमार्थ संस्थान नहीं हैं, न ही उन्हें होने की जरूरत है। तथ्य तो यह है कि बतौर एक मुनाफादायक व्यवसाय निजी स्कूल बनाने पर कोई रोक नहीं है। किसी को भी हैरानी होगी जब यह कहा जा रहा है कि निजी स्कूलों का वित्तीय विवरण वेबसाइट पर डालने पर उनकी निजता का हनन नहीं होगा। अदालत के इस निर्णय की आगे न्यायिक पड़ताल हो सकती है। अब जो भी है, आखिरी आदेश सर्वोच्च न्यायालय से आना है।
निजी स्कूलों की बात करें तो देश में बड़ी आबादी को शिक्षित करने में इनकी भूमिका निश्चित तौर पर कम नहीं है और कभी माननी भी नहीं चाहिए। लोकहितकारी व्यवस्था को अपनाने वाले हमारे जैसे मुल्क में वैसे तो यह सरकार का दायित्व है कि सबको शिक्षा मुहैया करवाए। चूंकि सरकारें ऐसा करने में असफल रही हैं, इसलिए निजी स्कूल वह भरपाई करते हैं जो वास्तव में सरकार का फर्ज है। यह विरोधाभासी है कि सरकारें निजी स्कूलों द्वारा वसूले जा रहे पैसे पर तो बहुत चिंतित दिखाई पड़ती हैं लेकिन सरकारी स्कूलों में मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर कभी कुछ कहा हो, यह शायद ही सुनने को मिला है। बच्चे को निजी स्कूल में भर्ती करवाते वक्त हर अभिभावक को फीस और अन्य खर्चों के बारे में भली भांति पता होता है, यह सब जानने के बाद ही अधिकांश माता-पिता औलाद को वहां पढ़ाना चुनते हैं। बच्चे को ऐसे स्कूल में भर्ती करवाने के बाद फिर फीस को लेकर शिकायत करने का क्या औचित्य है?
स्कूल चाहे सरकारी हो या निजी, देश को बहुत बड़ी संख्या में और अधिक विद्यालयों की जरूरत है, खासकर वह जो गुणवत्ता वाली शिक्षा दे सकें। एक अच्छा निजी स्कूल बनाने में बहुत धन और प्रयास लगते हैं। लेकिन जैसा सरकारों का निजी स्कूलों के प्रति मौजूदा रवैया है, ऐसे में कोई नया स्कूल खोलना क्यों पसंद करेगा? यहां सर्वोच्च न्यायालय की 11 सदस्यीय खंडपीठ द्वारा टीएमएपी बनाम कर्नाटक सरकार मुकदमे में दिए फैसले का उल्लेख करना जरूरी है, जिसमें कहा गया था ‘यह आम जनता के हित में है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले और अधिक स्कूल खोले जाएं, स्कूल प्रबंधन को नियुक्तियां करने, छात्रों की भर्ती और वसूली जाने वाली फीस में खुदमुख्तारी और अबाधित जिम्मेवारी मिलने से यह सुनिश्चित हो पाएगा कि इस तरह के संस्थान स्थापित हो पाएं।’
सरकारें शिक्षा संस्थानों पर अनावश्यक आदेश लादकर देश में शिक्षा के हितों से खिलवाड़ न करें, वरना यह ‘पेड़ गंवाने की एवज में वन’ से हाथ धोने जैसा होगा।
लेखक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं।