हर्षदेव
किसान आंदोलनों ने देश में ही नहीं, विश्व में भी समय-समय पर सामाजिक, आर्थिक भूमिका निभाई है। भारत में तो किसानों को अपने अधिकारों के लिए निरंतर संग्राम करते रहना पड़ा है। कई बार ये संघर्ष बहुत लम्बे चले और उनको जानमाल के रूप में भारी कीमत भी चुकानी पड़ी, लेकिन वे डिगे नहीं। इनमें संथाली किसानों का ब्रिटिश कानूनों के खिलाफ विद्रोह इतिहास में सबसे वीरतापूर्ण घटना कही जा सकती है। सच तो यह है कि देश की आज़ादी के आंदोलन की नींव भी किसानों के हक की लड़ाई के साथ ही रखी गई। चम्पारण में नील खेती की अमानुषिक पाबंदियों के खिलाफ संघर्ष से ही सत्याग्रह नाम के एक नये अस्त्र का जन्म हुआ जो हमें स्वतंत्रता आंदोलन की रणभेरी तक ले पहुंचा।
इतिहास में किसानों के आंदोलन का पहली बार ज़िक्र त्रिपुरा (1767-1768) में शमशेर गाजी के शासन में मिलता है। उसके बाद खेती करने वाले आदिवासियों, जिनकी पहचान संथाल के रूप में हुई, ने ज़बरदस्त क्रांतिकारी वीरता का उदाहरण पेश करते हुए बहुत लम्बे संघर्ष का सामना किया। संथालों (आज का झारखंड) को अपने हक के लिए तिहरी लड़ाई लड़नी पड़ी। वे ज़मींदारों, महाजनों और सत्ताधारी अंग्रेजों से एक साथ लड़ने को मजबूर हुए। कई वर्ष तक चले इस जन संघर्ष में 20,000 से भी ज़्यादा संथालों की जान गई।
धीरे-धीरे इन संथाल किसानों के प्रतिरोध की गूंज देश के अन्य भागों तक भी पहुंची और वहां भी छोटे-बड़े, आदिवासी व ग़ैर आदिवासी किसानों के सैकड़ों विद्रोह उठ खड़े हुए। उपनिवेशकालीन साम्राज्यवादी और सामंती गठबंधन वाली राजसत्ता ने अपने ‘शत्रुओं’ को कुचल कर रख दिया, जिनमें पहाड़िया सिरदार (1778), कोली (1784 और 1818), चौरी आन्दोलन (1795-1800), छोटा नागपुर विद्रोह (1807-18), गुजरात का भील विद्रोह (1809), असम में आदिवासियों का विद्रोह (1828), मुंडा विद्रोह (1834), महान कोल विद्रोह (1831-32), संथाल विद्रोह (1855), उड़ीसा का जुआंग विद्रोह (1861), कोमा आदिवासी विद्रोह (1862, 1879 व 1880), नागा विद्रोह (1879), मणिपुर विद्रोह (1891), बिरसा मुंडा (1920-21), भूमकाल (1910-11), वर्ली विद्रोह (1946-48), नागा विद्रोह (1963 और 1971), मिजो विद्रोह (1966 और 1971), बिहार, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड जैसे राज्यों के आदिवासी-गैर आदिवासी अंचलों में हुए प्रतिरोधों को शामिल किया जा सकता है।
चंपारण में औपनिवेशिक, अंग्रेजी राजसत्ता और उनके दलाल भूस्वामी जमींदारों ने किसानों पर जुल्म ढाए और शोषण किया। उनकी उपज और संपत्ति की लूट खसोट की। 1917 के आसपास चंपारण में आर्थिक शोषण अपने चरम पर था। ठीक यही समय था जब गांधीजी ने चम्पारण के किसानों की इस मर्मान्तक हालत में हस्तक्षेप शुरू किया जो किसानों के आन्दोलन से जनजागरण के अभियान में और फिर स्वतंत्रता संग्राम में रूपांतरित होकर 1947 तक पसरता चला गया। आजादी की लड़ाई में किसानों के इस आन्दोलन ने मजबूत उर्वरा भूमि की तरह काम किया।
चंपारण संघर्ष की इसी प्रेरणा पर अवध किसान आन्दोलन (1920-22) प्रारम्भ हुआ। यहां स्थायी बंदोबस्त वाली भूमि व्यवस्था के दलाल भूस्वामियों ने जबरिया लगान, नजराने और बेगारी कठोर रूप में लागू कर दी। बाबा रामचंद्र दास, सहदेव सिंह और झिंगुरी सिंह के नेतृत्व में किसान सभा से शुरू हुए इस आन्दोलन ने कुछ ही महीनों में अवध के ताल्लुकदारों और ब्रिटिश सरकार के लिए चुनौती खड़ी कर दी। बाबा रामचंद्र गिरमिटिया मजदूर के रूप में कार्य करने फिजी गए थे। वहां से वापिस लौटने के बाद वे किसानों को इकठ्ठा करके उनसे रूबरू होते और किसान जीवन की समस्याओं पर चर्चा करते, उन्हें समाधान खोजने को कहते थे।
अवध क्षेत्र में किसान संघर्ष की चेतना से भयभीत होकर तत्कालीन राजसत्ता ने उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। हजारों की संख्या में किसानों ने जेल को घेर लिया। मजबूर होकर सरकार ने उनको बिना शर्त रिहा कर दिया। 1920 के अंत में कुछ किसान नेताओं की छोटे अपराधों में गिरफ्तारी ने एक बार फिर विरोध को तीखा कर दिया। यह मुकदमा प्रतापगढ़ शहर में होने वाला था, लेकिन सुनवाई के अवसर पर किसानों ने हजारों की संख्या में अदालत का अहाता खचाखच भर दिया। मजिस्ट्रेट ने पहले तो सुनवाई स्थगित करने का निश्चय किया लेकिन जब देखा कि भीड़ ने जेल को घेर रखा है तो जेल के अन्दर ही सुनवाई करके नेताओं को छोड़ दिया गया।
जवाहरलाल नेहरू ने “भारत एक खोज” में लिखा है कि यह किसानों की एक बड़ी जीत थी । इसके बाद देश में दो बड़े किसान आन्दोलन हुए, जिन्हें हम तेभागा औए तेलंगाना के रूप में पहचान सकते हैं। दोनों औपनिवेशिक दौर में शुरू हुए थे। ये आन्दोलन भूमिहीन किसानों को भूमि पर उनका वास्तविक हक़ दिलाने की संगठित कोशिश थे। तेलंगाना किसान आन्दोलन स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा। तेलंगाना के किसान अमानुषिक शोषण और उत्पीड़न से जर्जरित थे। उनके सर पर कितने ही तरह के कानूनी और गैर कानूनी टैक्स थे कि उनका हिसाब करना भी कठिन है। इन शोषकों में प्रधान व्यक्ति थे निजाम, उसके पाले-पोसे जागीरदार और देशमुखों का दल। जागीरदार थे बड़े जमींदार, करीब आधा तेलंगाना उनके अधिकार में था। बाकी आधा देशमुखों के हाथ में था। देशमुख एक ज़माने में निजाम के लिए लगान वसूल करने वाले अधिकारी थे। निजाम के पास कुल जमीन थी 1.50 करोड़ बीघा। 15 लाख भू-दास इस जमीन पर खेती का काम करते थे। उससे निजाम की आय होती थी पांच करोड़ रुपये प्रति वर्ष। उसके अलावा राज्य के बजट से निजाम 10 लाख रुपये प्रति वर्ष पाते थे।
निजाम के हीरा-मोती और सोने के आभूषणों का दाम कम से कम 600 करोड़ रुपये था। किसानों ने लगातार संघर्ष करते हुए स्थिति को बहुत कुछ बदला। इसके बावजूद सुनियोजित तरीके से भूमि सुधार पर अमल की जरूरत बनी हुई है।
इसी तरह आज भी छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, ओडिशा, तेलंगाना आदि राज्यों में जमीन के न्यायसंगत वितरण और आर्थिक असमानता दूर किए जाने का किसानों को अब भी इन्तजार है। भूमि के लिए यह लड़ाई उक्त राज्यों में रुक-रुककर और कभी गरम, कभी नरम तेवरों के साथ चलते निरंतर देखी जा सकती है। भूमि सुधार का काम केवल तीन राज्यों में आगे बढ़ाया गया। ये राज्य हैं-पश्चिम बंगाल, केरल और जम्मू-कश्मीर। उत्तर प्रदेश में भी जमींदारी उन्मूलन कानून के जरिए जमीन के उचित बंटवारे की सीमित कोशिशें हुईं।
इतिहास से इतर, वर्तमान किसान आंदोलन एक दूसरी-21वीं सदी की लड़ाई लड़ रहा है। यह संघर्ष कारपोरेट और भूमि-पुत्रों के बीच है। इसकी शुरुआत बीती सदी के आखिरी दशक में ही हो गई थी। तब से देश के 30,33,407 किसान आर्थिक दबावों के कारण खुद अपनी जान लेने के लिए मजबूर हो चुके हैं। इतना ही नहीं, वे बाजारवाद के मकड़जाल में फंस कर पिछले दो दशक से हर साल कम से कम 4 से 4.50 लाख रुपये गंवाते आ रहे हैं। इस स्थिति के खिलाफ इतना अनुशासित और संगठित आन्दोलन किस मुकाम तक पहुंचेगा, यह जिज्ञासा का विषय है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।