सुरेश सेठ
नये युग का चेहरा कुछ इस तेजी से बदला है कि जहां इस परिचित सत्य के अर्थ बदल गये हैं, वहीं युग परिवर्तन के नाम पर जिन नये कानूनों का आविर्भाव हुआ है, भुक्तभोगी को लगता है कि यहां क्रांति और जागरण के नाम पर इसके लिए अंधेरे का एक और साम्राज्य खड़ा कर दिया गया है। भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है। भारत की दो-तिहाई आबादी आज भी गांवों में रहती है। आधी आबादी आज भी खेतीबाड़ी में लगी है।
लेकिन दिन बदल गये। कभी जिस खेतीबाड़ी से देश की सकल घरेलू आय का पचास प्रतिशत मिल जाता था, वह आज बीस प्रतिशत से कम हो गया। जो खेतीबाड़ी कभी जीवन-निर्वाह खेती थी, वह व्यावसायिक तेवर लेते ही पिछड़ने लगी। किसानों की औसत छोटी जोत, दकियानूसी फसल चक्र से चिपके रहने की ललक और शोषक महाजनी सभ्यता ने उसकी कमर कुछ इस प्रकार तोड़ दी कि भारतीय खेती अब ग्रामीण समुदाय के लिए जीने का ढंग नहीं, मात्र एक लाभ-हानि का धंधा रह गयी है। इसमें लागत अधिक और प्राप्ति कम है।
कोरोना के आतंकी प्रकोप से पहले ही गांवों में बसती युवा पीढ़ी अपने इस जीने के ढंग से टूट, इसे एक घाटे का व्यवसाय मान अपने इस विरासती धंधे से अलग होने लगी थी। देश के गांवों से युवा पीढ़ी का पलायन अपने इस घाटे के धंधे से दूर वैकल्पिक जीवन तलाशने के लिए परदेस के महानगरों की ओर दौड़ने लगा था। सही है इस नये परिवेश ने बाहें फैला कर उनका स्वागत नहीं किया, लेकिन उन्हें पृथक नहीं तो दोयम दर्ज की नागरिकता देकर खाने-पीने का वसीला तो दे ही दिया।
लेकिन चीन के वुहान से चली और पूरे विश्व को प्रकम्पित करती कोरोना वायरस की गाज विश्व पर गिरी। मंदीग्रस्त होते गरीब भारत को दुर्दिन भेंट कर गया कोरोना महामारी का प्रकोप।
लगभग एक बरस के इस आर्थिक दुर्दशा के दिनों में देश का सकल घरेलू उत्पादन तेईस प्रतिशत गिरा और देश की आर्थिक विकास दर बढ़ने के स्थान पर नौ प्रतिशत गिर गयी। नया ठौर तलाशते लोग फिर उखड़ गये और वापस अपनी ग्रामीण सभ्यता में आश्रय तलाश करने लौटे। वैसे कृषक भारत समय की चुनौती पर खरा उतरा। जहां देश के बुनियादी उद्योगों की विकास दर निरंतर गिरती चली गयी, छोटे-बड़े उद्योग और व्यवसाय अनचाही मौत को गले लगाने लगे, सेवा क्षेत्र दीवाले के अवसाद में घिर गया वहां केवल देश की खेतीबाड़ी, उसके किसानों का अनथक परिश्रम और फसलों का भरपूर परिणाम ही एक ऐसा मुक्ति मार्ग निकला, जिसने देश को अकाल पीड़ित होने से बचा लिया।
यह सही है कि आठ महीनों की इस कोरोना महामारी ने देश को बेकारी की अप्रत्याशित दर और रिकार्ड तोड़ महंगाई की ऊंचाई दी। लेकिन यह भी सच है कि इस महामारी की अकर्मण्यता ने ग्रामीण समाज के पुरुषार्थ को नहीं छुआ। उसके खेतों की लहलहाती फसलों ने देश को वही प्रतिफल दे दिया जो उसने पिछले बरसों में दिया था। देश अकाल पीड़ित होने से बच गया।
एक नये सत्य का साक्षात्कार हुआ कि इस विकट समय में देश को कृषक और उसके प्रतिफल ने देश को भुखमरी से बचाया, इसलिए अब अंधाधुंध पश्चिमीकरण के स्थान पर अपनी कृषि की ओर लौटना ही श्रेयस्कर है। अब जरूरत है कि मंदी से त्रस्त शहरीकरण के स्थान पर एक नये ग्रामीण भारत के निर्माण की। खेती के उस आधुनिकीकरण की, जिसमें परदेस और महानगरों से उखड़ कर लौटता हुआ युवा अपने जीवन और कर्म के लिए एक नया अर्थ प्राप्त कर सके।
पिछले दिनों घोषणा हुई कि सरकार ऐसे कानून ला रही है कि किसानों की आय दोगुनी हो जायेगी। तीन कानून संसद से पारित होकर आ गये। कहा गया कि किसान अब अपनी फसल केवल नियमित मंडियों में सरकारी खरीद एजेंसियों या निजी व्यापारियों को घोषित एमएसपी पर ही नहीं, देश की किसी भी नयी मंडी में बेच सकेंगे। न मार्केट फीस लगेगी, न आढ़त। किसान को मिले प्रतिदान में होती आठ प्रतिशत की कटौती नहीं रहेगी। यहीं पेच फंस गया। शांता राम कमेटी ने चार बरस पहले बताया था कि एमएसपी पर पहले भी छह प्रतिशत से अधिक फसल नहीं बिकती थी, नयी खुली मार्केट की ताकत उन्हें नये ग्राहक, सही कीमत दे देगी।
लेकिन ये नयी मंडियां मांग और पूर्ति के संतुलन से चलेंगी। बिहार का उदाहरण सामने है, जहां 2006 में यह क्रय-विक्रय का ढंग और वैकल्पिक मंडियां चली थीं, आज नियमित मंडियां कहीं नजर भी नहीं आतीं। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान का आक्रोश इस सच के सामने कटिबद्ध हो खड़ा हो गया। तर्क दिया गया कि सारा देश नहीं, केवल ये राज्य आलोड़ित हैं। इनमें से भी पंजाब के किसानों के लगातार रेलों के चक्का जाम से अपनी ही आर्थिकता, बिजली और खेतीबाड़ी की नींव हिल गयी। अब हजारों किसानी जत्थे हरियाणा बार्डर के सरकारी पुलिस अवरोधों से जूझते हुए राजधानी के प्रवेश मार्गों को घेरे हैं। हरियाणा के किसान और खाप पंचायतें, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कृषक समुदाय का हिस्सा भी इसमें शामिल है। उनका दर्द दो कानूनों को लेकर है अर्थात् आवश्यक वस्तु अधिनियम की घोषणा को सीमित करके धनाढ्य को फसल खरीद के संग्रह की मनमर्जी छूट देने और एक अन्य कानून में कार्पोरेट घरानों को जमीन का ठेका ले सकने की छूट पर भी है।
वैसे देश की किसानी का ढंग पहले भी यही था। आर्थिक रूप से मजबूर किसान एमएसपी से कम कीमत पर फसल बेचने, जमीन बटाई और अग्रिम सौदों के नाम पर पहले भी ठेका फार्मिंग कर रहा था और फसलों की जमाखोरी की काली चालें पहले भी कीमतों का हुलिया बिगाड़ रही थी, लेकिन अब किसान का दर्द यह है कि इस सबको अब कानूनी मान्यता मिल गयी। यह तो धनियों का खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया।
किसानों से सरकार की कई दौर की बात हो गयी पर असफल रही। अधिकारी स्तर पर भी और मंत्री स्तर पर भी। हर बार इन नये कानूनों की उपादेयता पर व्याख्यान मिले या मौखिक आश्वासन। अब जब हजारों किसान दिल्ली के मुख्य द्वार पर बैठ गये तो सरकारी चिंतन के द्वार खुले। देश के मुखिया वार्ता की मेज तक आये।
यह पूरा घटनाक्रम एक त्रासद अनुभव छोड़ गया है। देश की रीढ़ है कृषक समाज। उसके नवनिर्माण का दावा ही नहीं, व्यवस्था तंत्र में उसके भरोसे को लौटाना होगा। नेताओं के आश्वासन उसे हमेशा हवाई ही क्यों लगते हैं, उसे अपनी आर्थिक हालत बदलने के लिए प्रतिबद्ध क्यों नहीं लगते। क्यों उसे लगता है कि उसकी आय दोगुनी कर देना तो महज एक थपकीभरा बहाना है, असल बात तो छोटी जोतों से भरे कृषक समाज को कार्पोरेट क्षेत्र की दया पर छोड़ देना है।
भारतीय कृषि की अंधेरी जिंदगी को उज्ज्वल भविष्य में बदल सकना ही उसका स्थायी समाधान है। इसके लिए किसानों कोे धान और गेहूं के दकियानूसी फसल चक्र को बदलना होगा। उन्हें अपनी संवाद यात्रा में सरकारी महाप्रभु एक लिखित आश्वासन दे दें कि उनकी आर्थिक हालत को और रसातल में नहीं जाने दिया जायेगा तो इसमें हर्ज ही क्या है?
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।