सुरेश सेठ
भारतीय संस्कृति में कभी भी कर्मयोग को नकारा नहीं गया! गीता में जो मुख्य संदेश आम आदमी को मिलता रहा है, वह यही है कि ज्ञान योग और ध्यान योग तो सम्भवत: आम आदमी के बस की बात नहीं, लेकिन कर्म योग का मार्ग ही ऐसा है, जिस पर फल-कुफल की परवाह किये आम आदमी उम्र भर चलता रहे तो उसे मुक्ति प्राप्त करने में कठिनाई नहीं आती। बालपन से एक औसत हिन्दुस्तानी सुनता रहता है कि जीवन भर सक्रिय रह कर सत्कर्म करते रहना चाहिए। कर्म पर तेरा अधिकार है, लेकिन फल पर तेरा अधिकार नहीं है।
अभी मोदी सरकार ने भारतीय संस्कृति के इस गरिमापूर्ण दर्शन को अपने सिविल प्रशासनिक अधिकारियों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है। कैबिनेट बैठक ने अपने सिविल सेवा अधिकारियों को कर्मयोगी बनाने और इसके लिए विशेष प्रशिक्षण देने का फैसला लिया है। इस प्रशिक्षण में इनकी कार्यक्षमता बढ़ायी जायेगी और इन्हें लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए कहा जायेगा।
कर्मयोगी बनाने की यह योजना भारत की इक्कीसवीं सदी की सांस्कृतिक धरोहर है। इस योजना में प्राचीन भावबोध को अर्वाचीन से संश्लिष्ट करते हुए अभी दो करोड़ से अधिक कर्मियों को कर्मयोगी बनने की ऑनलाइन प्रशिक्षा देने का फैसला हुआ। इसी संदर्भ में सेवा कर्मियों को अपने कार्य की पूर्ण दक्षता प्रदान की जायेगी ताकि उन्हें अपने काम से ही इतना सृजनात्मक संतोष मिले कि उन्हें इससे आगे कोई दुनियावी इच्छा तुष्ट करने की अभिलाषा ही न रहे। अब जापान—वस्त्र मंत्रालय के कर्मियों को, फिनलैंड—खनन मंत्रालय और डेनमार्क— ऊर्जा मंत्रालय के कर्मियों को नवीनीकरण और ऊर्जा की दक्षता प्रदान करेगा। एफ.ओ.यू. पर हस्ताक्षर हो गये हैं।
एकनिष्ठ होकर अपने कर्म को लाभ और अलाभ की स्थिति से अलग कर सर्वोपरि मानना एक ऐसी आदर्श स्थिति है, जिसकी भारत को बेतरह जरूरत है। नोटबंदी एक ऐसा ही निर्णय था, जिसमें काले धन के उन्मूलन की परिकल्पना की गयी थी। एक देश-एक कर की आधारभूमि के साथ पूरे देश के लिए जीएसटी लागू कर देना, भारत के लिए नव कृषक समाज की महत्ता को अधिकृत करते हुए, एक देश-एक किसान, और उसकी फसल के लिए राष्ट्रीय मंडी का अवतरण और अभी-अभी पूरे देश के नौजवानों के लिए एक ही भर्ती परीक्षा की घोषणा ऐसे आधारभूत परिवर्तन हैं, जिन्हें लागू करने की घोषणा करके सरकार ने एक समूची राष्ट्रीय भावना के संचरण का प्रयास किया है। यह दीगर बात है कि चतुर सुजानों ने इनके रास्तों में इतनी चोर गलियां निकाल ली हैं कि देश मोदी सरकार की इन दो पारियों में किसी नये सांस्कृतिक और सामाजिक कायाकल्प के मुख्य द्वार पर खड़ा नजर नहीं आता। यही नजर आता है कि वही चाल बेढंगी जो पहले थी, वह अब भी है।
ऐसी हालत में एक ओर तो कोरोना महामारी के प्रकोप ने सामान्य जीवन अस्तव्यस्त कर रखा है। भारत महामारी के संक्रमण की दृष्टि से ब्राजील को पीछे छोड़कर अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर आ गया है। देश के हर कोने में रोग से चिन्ता का माहौल है। स्वलाभ की भावना से प्रेरित निजी क्षेत्र ने सरकार द्वारा दायित्व पालन करने के आदेश को स्वीकार करते हुए भी कोरोना से महाभारत में कुछ इस सफाई के साथ अपने आपको दोयम दर्जे पर रखा हुआ है कि इस समय बड़ा दायित्व सार्वजनिक क्षेत्र के चिकित्सा कर्मियों, चिकित्सकों, राहत वितरण अधिकारियों और कानून व्यवस्था के रखवालों पर आ गया है।
ऐसे समय में सरकार का यह आदर्श कि सिविल सेवा अधिकारियों को कर्मयोगी बना दिया जायेगा, सुनने और पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है। डिजिटल प्रशिक्षण का फैसला अथवा विदेशों से उचित प्रशिक्षण दिलवाना नीतिगत फैसले हो सकते हैं, लेकिन सांस्कृतिक निष्ठा के अनुसार अपने काम में कर्मयोगी हो जाना मूलत: एक भावनागत फैसला है। इसमें शिक्षण संस्थानों द्वारा पैदा की गयी, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रसेवा और मानवीय मूल्यों को समर्पित हो जाने की भावना बहुत महत्व रखेगी। बेशक आज भी देश के वातावरण में नैतिक मूल्यों, कर्तव्य परायणता, आदर्शवाद, बलिदान और त्याग की धज्जियां उड़ी हैं। इस समय लोगों को मृत्युमय की दहशत से अलग कर्मयोग की ओर मोड़ने के लिए भागीरथ प्रयास करने पड़ेंगे।
सच यह है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दो दशकों में भारत के जीवन मूल्यों में बहुत परिवर्तन आ गया। आधुनिकता के पैरोकार वैज्ञानिक और सामाजिक प्रगति के नाम पर भौतिकवाद को सर्व स्वीकार्य जीवन मूल्य बना चुके हैं। आज सेवा क्षेत्र में कौन है कर्मयोगी? हर सेवा को आदर्शवाद के वर्क में लपेटकर नीलाम घर में रख दिया गया। सेवा सर्वोपरि नहीं रह गयी, मेवा ही प्रमुख हो गया। इसकी जमा-घटा ही आज व्यक्तिगत और सामाजिक सफलता की कसौटी बन गयी।
यह कोई स्तंभित करने वाला सत्य नहीं है, जब हम कहते हैं कि दुनिया के सबसे अधिक दस भ्रष्टाचारी देशों में से एक भारत है तो क्या भ्रष्टाचारी देशों में नि:स्वार्थ सेवा कर्मी रहते हैं। वहां तो अपना घर देवालय बना देने का ही विश्वास चलता है।
उदाहरण सामने है। सरकार बार-बार कह रही है कि देश कोरोना महामारी के इन भयावह पांच महीनों में से गुजर रहा है। सरकार ने इन महीनों में एक सौ पैंतीस करोड़ की कुल आबादी में से अस्सी करोड़ को मुफ्त खाना िखलाया है। इनमें रियायती दरों पर जो राशन बांटा है, वह अलग। इस राहत राशन को राज्य सरकारों ने बांटना था। पंजाब बता रहा है कि कुल मिली राहत राशि का एक-तिहाई भी जरूरतमंदों में नहीं बंटा और जो बंटा है, उसमें भी राजनीतिक तुष्टीकरण की प्राथमिकतायें पेश रहीं। कभी अवैध भट्टियों पर छापे, कभी खनन माफिया के कारनामे और अब पंजाब में दलित छात्रों का हक छीनने वाला वजीफा स्कैंडल।
बेशक ऐसे वीभत्स सत्यों से कोई आंखें नहीं मूंद सकता। ये कठिन सच्चाइयां कहीं भी कर्मयोगी सिविल सेवा अधिकारियों अथवा समाज सेवकों के नाम नहीं लगतीं।
हम सच को नकारते नहीं। लेकिन सांस्कृतिक, नैतिक और आदर्श सामाजिक मूल्यों की पुन:स्थापना निकृष्ट सत्यों को नकार कर ही हो सकती है। सत्ता कर्म में कर्मयुग की स्थापना का निश्चय स्तुत्य है, लेकिन ध्यान रहे इसका ढांचा किसी जर्जर नींव पर खड़ा न किया जाये।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।