आज हम भौतिक सुखों के अंबार में रहकर भी जाने क्यों, मन के सुखों से बहुत दूर हो गए हैं। हमारे पास सब कुछ होते हुए भी होंठों पर मुस्कुराहट नहीं आ पाती, बल्कि हर व्यक्ति किसी न किसी तनाव और उलझन में खुद को फंसा हुआ पा रहा है।
आपने मनोचिकित्सकों से सुना होगा कि उनके पास धनाढ्य लोग यही शिकायत लेकर आते हैं कि उन्हें रात को नींद नहीं आती। अपार धन-संपदा होने पर भी आज लोग गोलियां खा-खा कर नींद का सुख लेने को बाध्य हो गए हैं तो कविवर रहीम का यह दोहा बरबस याद आता है :-
‘गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन-धन खान।
जब आवै संतोष-धन, सब धन धूरि समान।’
सच बात तो यही है कि हमारे जीवन से ‘संतोष-धन’ कहीं खो गया है और हमने बैंक-लॉकरों में सोना-चांदी और नोटों के बंडल बन्द करके रातों की नींद गंवा दी है। आज एक आत्मीय ने बहुत ही प्यारी और मन को छू लेने वाली कहानी भेजी है, जो यूं है— ‘एक धनी औरत महंगे कपड़े और आभूषणों में सजी-धजी अपने मनोचिकित्सक के पास गई और बोली— ‘डॉ. साहब! मुझे लगता है कि मेरा पूरा जीवन बेकार है, उसका कोई अर्थ नहीं है। क्या आप मेरी खुशियां ढूंढ़ने में मेरी मदद करेंगे?’ इस पर उस मनोचिकित्सक ने एक बूढ़ी औरत को बुलाया, जो वहां साफ़-सफाई का काम करती थी और उस अमीर औरत से बोला—‘मैं इस बूढ़ी औरत से तुम्हें यह बताने के लिए कहूंगा कि कैसे उसने अपने जीवन में खुशियां ढूंढ़ी हैं। मैं चाहता हूं कि आप उसे ध्यान से सुनें।’
उस बूढ़ी औरत ने अपना झाड़ू नीचे रखा और कुर्सी पर बैठ कर बताने लगी—‘मेरे पति की मलेरिया से मृत्यु हो गई और उसके तीन महीने बाद ही मेरे इकलौते बेटे की भी सड़क हादसे में मौत हो गई। मेरे पास कोई नहीं था और मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा था। मैं सो नहीं पाती थी, खा नहीं पाती थी। उदासी के दौर में तो मैंने मुस्कुराना तक बंद कर दिया था। मैं अपने जीवन को समाप्त करने की तरकीबें सोचने लगी थी। तभी एक दिन, एक छोटा-सा बिल्ली का बच्चा, जाने कहां से आकर, मेरे पीछे लग गया। बाहर बहुत ठंड थी, इसलिए मैंने उस बच्चे को घर में अंदर आने दिया। फिर उस बिल्ली के बच्चे के लिए थोड़े से दूध का इंतजाम किया और मैंने देखा कि वह सारी प्लेट सफाचट कर गया। फिर वह मेरे पैरों से लिपट गया और मेरे पैरों को प्यार से चाटने लगा।
एक जादू-सा हुआ और उस दिन बहुत महीनों के बाद मैं मुस्कुराई। तब मैंने सोचा, यदि इस बिल्ली के बच्चे की सहायता करने से मुझे ख़ुशी मिल सकती है तो हो सकता है कि दूसरों के लिए कुछ करके मुझे और भी ज्यादा ख़ुशी मिले। इसलिए अगले दिन मैं अपने बीमार पड़ोसी के लिए कुछ बिस्किट्स बनाकर ले गई और कुछ देर उसके पास बैठकर उसका हाल-चाल पूछा। अब तो हर दिन मैं कुछ नया और कुछ ऐसा करने लगी थी, जिसे दूसरों को ख़ुशी मिले और उन्हें खुश देख कर मुझे भी बेहद ख़ुशी मिलती थी। वह औरत प्रसन्न होकर बोली—‘आज, मैंने जीवन की सारी खुशियां ढूंढ़ी हैं, दूसरों को खुशियां देकर।’
बूढ़ी औरत की यह बात सुनकर वह अमीर औरत रोने लगी। उसके पास वह सब कुछ था जो वह पैसे से खरीद सकती थी लेकिन उसने वह मूल्यवान चीज खो दी थी जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती।
सच मानिए, हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम खुद कितने खुश हैं, अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी वजह से समाज में और कितने लोग खुश हैं? तो आइये आज हम सब यह संकल्प लें हम भी अपने आसपास किसी न किसी की खुशी का कारण बनें। अगर आप एक अध्यापक हैं और जब आप मुस्कुराते हुए कक्षा में प्रवेश करेंगे तो एक जादू आप देखेंगे कि सारे बच्चों के चेहरों पर मुस्कान छा जाएगी।
अगर आप डॉक्टर हैं और मुस्कराते हुए मरीज का इलाज करते हैं तो मरीज का आत्मविश्वास दोगुना हो जायेगा और आपके मुखमंडल की मुस्कान आसपास के वातावरण को खुशनुमा बना देगी। अगर आप एक गृहिणी हैं तो मुस्कुराते हुए घर का हर काम कीजिए और फिर देखना कि कैसे पूरे परिवार में खुशियों का माहौल बन जायेगा। अगर आप एक बिजनेसमैन हैं और आप खुश होकर कंपनी में घुसते हैं, तो देखिये सारे कर्मचारियों के मन का प्रेशर और तनाव अपने आप ही कम हो जाएगा।
महाकवि प्रसाद की ‘कामायनी’ की नायिका श्रद्धा ने मनु को यही जीवन-मंत्र तो दिया था :-
‘औरों को हंसते देखो मनु,
हंसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।’
सच यही है कि हम जो भी कुछ औरों को देते हैं, वही लौटकर हमें मिलता है। इसीलिए संकल्प लीजिए कि हम बांटेंगे तो केवल और केवल मुस्कान।