ज्ञान चंद गुप्ता
गत दिनों संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा के लिए हुए चुनाव चर्चा का विषय रहे। कई बार कुछ कारणों से ये चुनाव नकारात्मक सुर्खियां बन जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। महाराष्ट्र और हरियाणा में मतदान के दौरान विवादों के चलते मतगणना रोकनी पड़ी। हरियाणा में मतगणना का काम रात करीब 3 बजे संपन्न हो सका। यहां सत्ता पक्ष की ओर से विरोधी पार्टी के विधायकों पर मतदान की गोपनीयता भंग करने का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग को शिकायत करनी पड़ी, जिस पर निर्णय रात एक बजे हुआ। उसके बाद मतगणना शुरू हुई। इस घटनाक्रम के कारण पूरा दिन और रात को मीडिया और जनता की निगाहें चुनाव प्रक्रिया और उसके परिणाम पर लगी रही। ऐसा अनुभव हुआ कि दुनिया के सबसे बड़े और समृद्ध लोकतंत्र के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।
राज्य सभा, राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों के 233 प्रतिनिधियों के अलावा राष्ट्रपति द्वारा नाम-निर्देशित उन 12 सदस्यों से मिलकर बनती है, जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने राज्य सभा में नाम-निर्देशन के सिद्धांत को स्वीकार कर यह सुनिश्चित किया कि राष्ट्र को अपने-अपने क्षेत्र में विशिष्टता प्राप्त, देश के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सेवाएं प्राप्त हों। सरकार उन्हें राज्य सभा में इसलिए नाम-निर्देशित करती है, ताकि वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशेषज्ञता और ज्ञान के जरिए बहस को समृद्ध कर सकें।
राज्य सभा के लिए 233 सदस्यों का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। इस निर्वाचन पद्धति के सामान्य सिद्धांत यह है कि एकल मत पहले नाम-निर्देशित व्यक्ति से दूसरे नाम-निर्देशित व्यक्ति को अंतरित किया जा सकता है। ऐसा दो विशिष्ट स्थितियों में होता है। पहला तब जब किसी उम्मीदवार को उसकी सफलता के लिए अपेक्षित मतों से अधिक मत मिलते हैं और इसलिए उसके पास अनावश्यक अधिशेष है। दूसरी स्थिति में जहां किसी उम्मीदवार को इतने कम मत मिलते हैं कि उसके जीतने की कोई संभावना ही नहीं होती और इसलिए उसको मिलने वाले मत बर्बाद होते हैं। इन नियमों के द्वारा जिस प्रणाली और पद्धति को प्रस्तुत किया गया है उसके अधीन प्रत्येक निर्वाचक के पास केवल एक मत होता है, चाहे भरे जाने वाले स्थानों की संख्या कितनी ही क्यों न हो। किन्तु वह एकल मत एक उम्मीदवार से दूसरे उम्मीदवार को अंतरित किया जा सकता है।
मतपत्र में उम्मीदवारों के नामों का उल्लेख होता है और निर्वाचक उसके द्वारा चुने गए नामों के सामने अंक 1, 2, 3, 4 इत्यादि के माध्यम से उम्मीदवारों के लिए अपने अधिमानों को मतपत्रों पर चिन्हित करता है। ऐसे उल्लेख का अर्थ यह समझा जाता है कि वे अधिमान दिए गए क्रम में निर्वाचक के विकल्प को दर्शाते हैं। निर्वाचक द्वारा किसी उम्मीदवार के नाम के सामने लिखे गए अंक 1 का अर्थ ‘प्रथम अधिमान’ है। उम्मीदवार के नाम के सामने लिखे गए अंक 2 का अर्थ ‘द्वितीय अधिमान’ है और इसी तरह से आगे भी होता है। इस प्रकार सदस्यता के मूल्यांक आकलित किए जाते हैं। इसके बाद वह उपरोक्त रूप से कोटा निर्धारित करता है। यदि किसी गणना के समाप्त होने पर उम्मीदवार के नाम पर आकलित मतपत्रों का मूल्यांक कोटे के बराबर है या कोटे से अधिक है तो वह उम्मीदवार निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।
विधानसभा के अध्यक्ष के नाते मेरी इस चुनाव में प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है, लेकिन विधायक होने के नाते एक मतदाता के रूप में इस चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होता हूं। गत 7 वर्षों में मैंने जो अनुभव किया उसके निष्कर्ष के तौर पर कह सकता हूं कि इस चुनाव प्रक्रिया में काफी सुधार की गुंजाइश है।
भारत जैसे गौरवमयी लोकतंत्र में ऊपरी सदन के चुनाव में विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगना चिंताजनक है। चूंकि कोई भी दल अपने विधायकों को किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए व्हिप जारी नहीं कर सकता। इसके चलते कोई भी विधायक कहीं भी मतदान कर सकता है। यह प्रावधान किसी न किसी रूप से अनैतिकता को बढ़ावा देता है। जनता यदि विधायकों का चयन किसी पार्टी विशेष के चिह्न पर करती है तो उस विधायक के लिए पार्टी के अनुशासन का पालन करना जरूरी होना चाहिए। इसका कारण यह है कि जनता ने पार्टी पर अपना विश्वास जताया है। अगर राज्यसभा चुनाव में व्हिप जारी करने का प्रावधान लागू होगा तो उससे दो फायदे होंगे। पहला यह कि जनता द्वारा दिए गए जनादेश का असली अर्थों में पालन हो सकेगा। दूसरा इससे ‘हॉर्स-ट्रेडिंग’ जैसे अवांछनीय आरोप भी नहीं लग सकेंगे।
1985 में देश की संसद ने 52वां संविधान संशोधन कर दल-बदल निरोधक कानून पास किया, लेकिन राज्यसभा चुनाव की प्रक्रिया में विधायकों पर यह कानून लागू नहीं होता। विधायक किसी भी दल या निर्दलीय उम्मीदवार को वोट डाल सकते हैं। मेरा मानना है कि देश का कानून सभी परिस्थितियों में लागू रहना चाहिए।
इसके अलावा राज्य सभा चुनाव की मतदान प्रक्रिया में अनेक ऐसे पेच हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की आवश्यकता है। प्रत्येक विधायक द्वारा अपनी पार्टी के पोलिंग एजेंट को बैलेट पेपर दिखाना पड़ता है। इससे किसी न किसी रूप में गोपनीयता भंग होती है, जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इस बात की पूरी संभावना है कि पोलिंग एजेंट अपनी पार्टी के पदाधिकारियों या अन्य किसी को भी इस बारे में जानकारी दे सकता है। मतदान के दौरान पार्टी पोलिंग एजेंट के अलावा किसी अन्य को चाहे-अनचाहे वोट दिखाई पड़ने पर वोट रद्द हो जाता है। इन चुनावों में अक्सर इन्हीं बातों को लेकर विवाद होते हैं, जिनके चलते कई बार पूरी प्रक्रिया पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। इसे स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता।
बैलेट पेपर के ऊपर जो क्रमांक लिखा जाता है, उसके आधे हिस्से में भी वहीं नंबर अंकित रहता है। दोनों भागों पर समान क्रमांक लिखा रहता है। विधायकों की मतदान की बारी आने पर उनका नाम, विधान सभा क्षेत्र का नंबर और मतदान क्रमांक जोर से बोला जाता है। इसे रिकॉर्ड में भी रखा जाता है। इस प्रक्रिया से भी वोट की गोपनीयता भंग होने का पूरा अंदेशा रहता है।
स्थानीय शहरी निकायों के चुनाव इस समस्या से ग्रस्त रहे हैं। वहां नगर निगमों में महापौर और नगर परिषदों में अध्यक्ष पद के चुनाव में पार्षदों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगते रहे हैं। हरियाणा सरकार ने स्थानीय शहरी निकायों के शीर्ष पदों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था कर इस समस्या का निराकरण कर लिया है। निगमों में महापौर और परिषदों में अध्यक्ष का चुनाव अब सीधे जनता करती है, न कि पार्षद। राज्य सभा और लोक सभा के चुनाव में मूल अंतर यही है कि ऊपरी सदन का चुनाव जनप्रतिनिधियों द्वारा होता है, जबकि निचले सदन में जनता सीधे तौर से अपने प्रतिनिधि भेजती है। ऊपरी सदन स्थायी होने के साथ-साथ जन भावना का अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिनिधित्व करता है। राज्यसभा के महत्व के कारण ही इसे ऊपरी सदन कहा जाता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि इसके चुनाव में किसी भी प्रकार के अवांछनीय आरोप न लगें। चुनाव प्रक्रिया में तनिक सुधार कर इसकी गरिमा को और बढ़ाया जा सकता है।
लेखक हरियाणा विधानसभा के अध्यक्ष हैं।