अनूप भटनागर
समलैंगिक वयस्कों द्वारा स्वेच्छा से संबंध बनाये जाने को अपराध के दायरे से बाहर करने की उच्चतम न्यायालय की दो साल पुरानी व्यवस्था के बाद आशंका के अनुरूप ही अब समलैंगिक जोड़े विवाह का अधिकार मांग रहे हैं। उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था और कानूनों के प्रावधानों के मद्देनजर समलैंगिक जोड़ों को विवाह की मान्यता और इसे पंजीकरण की अनुमति के सवाल के समाधान की ओर सबकी निगाहें लगी हैं। समलैंगिक जोड़ों के विवाह का मामला हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में आया था, जिसका केन्द्र सरकार ने भारतीय संस्कृति, देश के कानून और सामाजिक मान्यताओं का हवाला देते हुए पुरजोर विरोध किया है।
मौजूदा समय में देश में समलैंगिक जोड़ों के विवाह का काेई प्रावधान नहीं है। कानून में ऐसे जोड़ों के लिये बच्चा गोद लेने की भी व्यवस्था नहीं है। ये जोड़े चाहते हैं कि उनके विवाह को हिन्दू विवाह कानून और विशेष विवाह कानून के तहत मान्यता दी जाये। सितंबर, 2018 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने एकांत में सहमति से समलैंगिक यौन संबंधों को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध के दायरे से बाहर करते हुए कहा था कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अंतर्गत गरिमा के साथ जीने का अधिकार है।
शीर्ष अदालत में सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार ने एकांत में परस्पर सहमति से दो वयस्कों के बीच यौन संबंधों में धारा 377 की संवैधानिक वैधता का सवाल न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया था। लेकिन उसने यह स्पष्ट करने का अनुरोध किया था कि अपने साथी के चयन का अधिकार किसी विकृति की ओर नहीं बढ़ना चाहिए।
न्यायालय के छह सितबर, 2018 के फैसले के तुरंत बाद ही इस समुदाय के एक सदस्य तुषार नैयर ने अपने समुदाय के सदस्यों के लिये समलैंगिक विवाह, बच्चा गोद लेने और किराये की कोख से संतान सुख प्राप्त करने जैसे नागरिक अधिकारों की मांग करते हुए शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी। न्यायालय ने 29 अक्तूबर, 2018 को यह याचिका खारिज कर दी थी। इसके बाद, न्यायमूर्ति एन. वी. रमण, न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की तीन सदस्यीय पीठ ने 11 जुलाई, 2019 को इन्हीं मुद्दों पर पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी थी। संविधान पीठ के फैसले के बाद सरकार ने ट्रांसजेंडर समुदाय के व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण के लिये संसद में एक विधेयक पेश किया। इस विधेयक को लोकसभा ओर राज्यसभा ने पिछले साल अगस्त और नवंबर में पारित किया था। राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने के बाद यह कानून 10 जनवरी, 2020 से देश में लागू है। यह कानून समलैंगिकों के विवाह करने, विवाह के पंजीकरण और बच्चा गोद लेने जैसे अधिकार के बारे में खामोश है।
इस कानून के तहत राज्य सरकारों को इस समुदाय के कल्याण के लिये योजनायें तैयार करनी हैं और उनके प्रशिक्षण तथा स्वरोजगार के कार्यक्रम शुरू करने हैं। कानून में ट्रांसजेंडर को भी परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार ट्रांसजेंडर व्यक्ति वह है, जिसका लिंग जन्म के समय नियमानुसार लिंग से मेल नहीं खाता और इसमें ट्रांसमेन और ट्रांस-विमेन, इंटरसेक्स, भिन्नताओं वाले जेंडर आते हैं। इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान वाले व्यक्ति जैसे किन्नर, हिजड़ा भी शामिल हैं। इंटरसेक्स भिन्नताओं वाले व्यक्तियों की परिभाषा में ऐसे लोग शामिल हैं जो शरीर के आदर्श मानकों से भिन्नता दर्शाते हैं।
इस कानून में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ भेदभाव पर प्रतिबंध है। इनमें शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध उत्पादों, सुविधाओं और अवसरों तक पहुंच और उसका उपभोग, कहीं भी स्वेच्छा से आने-जाने का अधिकार, किसी भी संपत्ति में निवास करने, उसे किराये पर लेने, मालिकाना हक हासिल करने या अन्यथा कब्जे में लेने का अधिकार है। यही नहीं, यह कानून सार्वजनिक या निजी पद ग्रहण करने के अवसर और किसी सरकारी या निजी प्रतिष्ठान तक पहुंच का भी अधिकार प्रदान करता है।
केन्द्र की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए हिन्दू विवाह कानून के अनेक प्रावधानों का हवाला दिया। लेकिन अदालत ने इस मुद्दे पर जनहित याचिका दायर करने के औचित्य पर सवाल उठाया और जानना चाहा कि इस पर हमें क्यों विचार करना चाहिए। हालांकि, अदालत ने बाद में याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि वह समलैंगिक विवाह के पंजीकरण की अनुमति नहीं दिये जाने से प्रभावित व्यक्तियों का विवरण पेश करे।
यहां सवाल उठता है कि समलैंगिक जोड़ों के विवाह के साथ ही उठने वाले तमाम कानूनी सवालों का निदान कैसे होगा?