अनूप भटनागर
अंतत: सरकार ने भूजल स्रोत से हासिल होने वाले पीने योग्य पानी की बर्बादी या इसके दुरुपयोग को दंडनीय अपराध बना ही दिया है। पीने के पानी की बर्बादी रोकने के लिये कानूनी प्रावधान करने वाली सरकार अभी भी देशवासियों के लिये साफ पानी मुहैया कराने को मौलिक अधिकारों के दायरे में लाने की इच्छुक नहीं लग रही है। थोड़ा अटपटा लगता है कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकार के दायरे में ठीक से नींद लेना और भोजन तो शामिल हैं लेकिन साफ पानी इसके दायरे में नहीं है मगर पीने का पानी बर्बाद करने पर जुर्माना और जेल का प्रावधान हो गया है।
देश की शीर्ष अदालत कहती है कि शुद्ध पीने का पानी प्राप्त करना नागरिकों का अधिकार है और सरकार कहती है कि सभी को साफ पानी उपलब्ध कराने को मौलिक अधिकार घोषित करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। देशवासियों के लिये शुद्ध पीने के पानी की व्यवस्था करना और जल संरक्षण को लेकर लंबे समय से चल रहे द्वंद्व में देश की सर्वोच्च अदालत पिछले करीब 25 साल से भूजल की बर्बादी और इसके अनियंत्रित दोहन को लेकर चिंता व्यक्त कर रही है। इसके बावजूद कई राज्यों में भूजल दोहन के लिये अवैध तरीकों से ट्यूबवैल की खुदाई और टैंकरों से पानी की आपूर्ति का सिलसिला जारी है। ऐसी स्थिति में जल संरक्षण के प्रयासों की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगता रहा है।
खैर, केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने पिछले सप्ताह एक आदेश जारी करके पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 की धारा पांच के तहत भूजल स्रोत से प्राप्त पीने योग्य पानी की बर्बादी के अपराध में पांच साल तक की कैद या एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान कर दिया है लेकिन सवाल यह है कि इस आदेश पर अमल कैसे होगा?
इस नये कानूनी प्रावधान पर अमल की जिम्मेदारी निश्चित ही स्थानीय प्रशासन, नगर निगम और पंचायत स्तर के अधिकारियों पर होगी लेकिन जिस व्यवस्था में न्यायिक आदेशों के बावजूद गैरकानूनी तरीके से भूजल के दोहन की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लग सका, उसमें यह देखना दिलचस्प होगा कि टैंकरों से जगह-जगह पानी पहुंचाने वाले निकाय तथा कोठियों और घरों में पाइप लगाकर बाग-बगीचों में पानी देने से लेकर कारों की धुलाई-सफाई में बर्बाद होने वाले पानी पर अंकुश कैसे लगेगा।
इस आदेश के अनुसार राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में जल आपूर्ति नेटवर्क से संबंधित नागरिक निकाय, जिन्हें जल बोर्ड, जल निगम, वाटर वर्क्स डिपार्टमेंट, नगर निगम, नगर पालिका, विकास प्राधिकरण, पंचायत या किसी भी अन्य नाम से पुकारा जाता है, यह सुनिश्चित करेंगे की भूजल से मिले पीने के पानी की बर्बादी और इसका दुरुपयोग नहीं हो। इस पर अमल के लिये इन निकायों को अलग से एक तंत्र स्थापित करना होगा।
पहली नजर में ऐसा लगता है कि केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण ने पर्यावरण संरक्षण कानून की धारा पांच के तहत यह निर्देश जारी करके राष्ट्रीय हरित अधिकरण के आदेश के अनुपालन की औपचारिकता पूरी की है। अब इन निर्देशों पर अमल करना राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के स्थानीय निकायों में जल आपूर्ति करने वाले विभागों की जिम्मेदारी है। इस आदेश की पृष्ठभूमि में यह भी ध्यान रखना होगा कि कई राज्यों में भूजल स्तर में तेजी से हो रही गिरावट और गैरकानूनी तरीके से भूजल के दोहन पर अंकुश लगाने के लिये उच्चतम न्यायालय के दिसंबर, 1996 के निर्देश के तहत पर्यावरण संरक्षण कानून के अंतर्गत केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की स्थापना की गयी थी। इस प्राधिकरण को भूजल विकास और प्रबंधन को नियमित करने के साथ ही इस संबंध में आवश्यक निर्देश देने के अधिकार प्राप्त हैं।
इस प्राधिकरण को पर्यावरण संरक्षण कानून की धारा पांच के तहत गैरकानूनी तरीके से भूजल का दोहन रोकने के लिये जिलाधिकारियों के मार्फत कार्रवाई करने का अधिकार प्राप्त है लेकिन गैरकानूनी तरीके से बनने वाले बोरवेल की गतिविधियां जगजाहिर हैं। निश्चित ही प्रशासन की मिलीभगत के बगैर यह संभव नहीं है।
प्राधिकरण के इस आदेश पर सहसा ही उच्चतम न्ययालय का फरवरी, 2010 का निर्देश याद आता है, जिसमें भूजल संरक्षण और इसका गैरकानूनी तरीके से दोहन रोकने तथा ट्यूबवेल की खुदाई के बारे में केन्द्र सरकार के दिशा निर्देशों पर अमल करने के लिये कहा गया था। शहरी क्षेत्रों में पेयजल संकट से निपटने में पानी टैंकर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में अनधिकृत टैंकर होते हैं जो अवैध तरीके से लगाये गये बोरवेल या ट्यूबवेल से पानी निकाल कर शहरी इलाकों में इसकी आपूर्ति करते हैं।
केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण को सबसे पहले अवैध तरीके से सक्रिय ट्यूबवेल और अनधिकृत पानी के टैंकरों की गतिविधियों पर अंकुश लगाना होगा। इसके अलावा, सरकार और स्थानीय प्रशासन को जनता को पानी के महत्व के बारे में समझाना होगा।