दुनिया में भारत की पहचान एक युवा देश के रूप में होती है। अगर देश की कार्य योग्य जनता को उन्नीस वर्ष से पैंतीस वर्ष के बीच समेटें तो यह देश की कुल आबादी का उन्चास प्रतिशत बनती है। लेकिन यह विडंबना है कि इनमें बरसों से बेकार और रोजगार तलाशते लोगों में से लगभग आधे अब रोजगार पाने की उतनी छटपटाहट नहीं दिखाते। पिछले दो-तीन बरसों से महामारी की विकट परिस्थितियों से निपटते हुए सरकार ने किसी भी व्यक्ति को भूख से न मरने देने की कसम खा कर उदार राहत, रियायत और अनुकम्पा की जो नयी संस्कृति देश में पैदा कर दी है। वहीं कुछ आलोचक मानते हैं कि इस कदन ने काम तलाशते नौजवानों की बेबस छटपटाहट के लिए एक पिछला दरवाजा खोल दिया है।
सरकार कहती है कि यह दुनिया का एकमात्र देश है, जो अपनी अस्सी करोड़zwnj; जनता को रियायती गेहूं प्रदान करता है। बीते माह इस रियायत की घोषित अवधि समाप्त हुई तो फिर दिसंबर तक 3 महीने और बढ़ा दी गयी। दरअसल, सत्ता पक्ष या विपक्ष में से किसी ने इस रियायत के बारे में कुछ नहीं कहा।
उधर कोरोना संक्रमण में लगे लॉकडाउन और अर्धलॉकडाउन से छुटकारा पा जाने की बातें कितनी ही आकर्षक लगें, इस विकट परिस्थिति से छुटकारा पाने वाली स्थिति में भारत ने सबसे तेज गति से आर्थिक विकास का दामन थामा है। हमारे टीकाकरण और सरकारी कोरोना रोधी अनथक प्रयासों ने भारत से कोरोना को एक तरह से लगभग विदाई दे दी है। विकट महामारी के प्रतिबंधों से चाहे अब हमारा समाज लगभग मुक्त हो गया है और अब भारतीय रिजर्व बैंक ही नहीं, बल्कि विश्व व्zwnj;यापार संगठन भी कहने लगा है कि भारत को कोरोना पूर्व की सामान्य स्थिति तक लौटने में देर नहीं लगेगी।
लेकिन पिछले दिनों में रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति के जरिये अपना उदार विकासवादी तेवर छोड़ कर जो महंगाई नियंत्रण का कठिन साख नीति रुख अपनाया है, और बार-बार अपना रैपो रेट बढ़ाकर जिस तरह जमा और कर्जों पर ब्याज दरें और ईएमआई बढ़ाकर देश की मंडियों में तरलता और अनावश्यक मांग घटाने का प्रयास किया है, उसका अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा। नवीनतम अांकड़े बता रहे हैं कि रिजर्व बैंक द्वारा स्वीकृत औसत खुदरा दर और थोक दर से बाजार प्रचलित दर कहीं अधिक चल रही है। पिछली गिनती में औसत थोक दर की नाममात्र कमी के बावजूद हमारी औसत खुदरा कीमत उससे वृद्धि दिखा रही है। सीधा अर्थ यही है कि खुदरा मंडियां अपनी कमी का मनोविज्ञान पैदा कर देने का चिर-परिचित तरीका अपनाकर ग्राहक को मिलने वाली खुदरा कीमतों में कमी नहीं होने दे रहीं।
इस विसंगति को दूर करने के लिए देश की जनता सरकार की ओर से एक साहसपूर्ण कदम उठा लेने की उम्मीद कर रही है। यह साहसपूर्ण पहल पेट्रोल, डीजल और ईंधन गैस की कीमतें कम करके हो सकती है। कर कटौती के बाद आज एक सौ बीस दिन से अधिक हो गये जब सरकार ने पेट्रोल, डीजल की कीमतें घटाने के बाद फिर उपभोक्ताओं की सुध नहीं ली। दुनिया में पेट्रोल, डीजल अर्थातzwj;् कच्चे तेल की कीमतों में बहुत कमी आयी है, जिसzwnj;का संज्ञान लेकर उसी अनुपात में अगर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कमी कर दी जाती तो देश की उत्पादन गतिविधियों और पैदा सस्ती गतिशीलता के कारण निवेशकों के लाभ में बहुत वृद्धि हो जाती।
लेकिन इस तर्क के साथ कि इस बीच कीमतों को स्थिर रखने के कारण कंपनियों को बहुत घाटा पड़ा है, उसे अभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घटती कीमतों और कंपनियों के बढ़ते लाभ के बावजूद घटाया नहीं जा सकता। फिर कमाई के इस अंतर को सरकार ने अपना आकस्मिक लाभ कर लगा अपना राजस्व या खजाना भरने का पहले उपक्रम किया, और अब कंपनियों को एकमुश्त दिलासा राशि देकर निपटाने को प्राथमिकता दी जा रही है। जबकि अगर इस समय साधारण जन, किसान और निवेशकों की परवाह करते हुए इनकी कीमतों और ईंधन गैस की कीमतों को घटा दिया जाता तो देश से मंदी का वातावरण छंटने में मदद मिलती।
लेकिन बात केवल इतनी-सी नहीं है। चाहे आज देशवासियों के मास्क रहित चेहरे या हमारे पर्यटन और सेवा क्षेत्र में आशातीत वृद्धि एक नया नक्शा प्रस्तुत कर रही है कि देश अपनी कोरोना-पूर्व की सामान्य अवस्था में लौट रहा है। लेकिन बीती विकट परिस्थितियों ने देश की आर्थिक स्थिति को आघात दे दिया है, उसकी क्षतिपूर्ति बकाया है। कोरोना महामारी का सैलाब गुजर जाने के बाद नया सत्य यह है कि देश की बड़ी प्रतिशत आबादी पहले से गरीब हो गयी है और केवल तीन प्रतिशत अरबपति ही खरबपति बने हैं। ऐसे लोग हमेशा हर संकट में अपनी आर्थिक स्थिति सुधार लेते हैं। लेकिन देश की अधिकांश जनता इस संकट सैलाब के गुजर जाने के बाद अपने आपको थोड़ा-सा अधिक विपन्न पाती है, अब भी पा रही है।
महानगरों से एक बड़ी संख्या ने अपना रोजी-रोजगार छूट जाने के बाद अपने गांवों की ओर पलायन कर लिया था। एक परंपरागत अनुमान के अनुसार, इनकी संख्या करोड़ों हो सकती है। इस बेकाम हुई श्रमशक्ति को गांवों या उनके निकट के कस्बों में ही रोजगार देने की दरकार है। हमने डिजिटल भारत बनाने और इंटरनेट क्षेत्र में बहुत प्रगति की है, लेकिन यह तरक्की इन बेकार हुए हाथों के लिए रोजगार के इतने अवसर नहीं जुटाती। इनके लिए तो कृषि आधारित विनिर्माण उद्योगों के प्रोत्साहन देने से बात बनेगी। इनका विकास भी गांवों या कस्बों में ही हो। सहकारी आंदोलन को पुनर्जीवित करके हो ताकि काम तलाशती श्रमशक्ति को अासपास ही काम मिल जाये। सात समंदर पार जा पलायन करने की संस्कृति को समर्पित हो जाने का उनका जुनून अब बदलना होगा। वैसे भी अब अपना देश छोड़ कर वहां निकल जाना इतना सहज नहीं रहा है।
लेखक साहित्यकार हैं।