पवन दुग्गल
हाल ही में व्हाट्सएप नामक सोशल मीडिया प्रदाता द्वारा उपभोक्ता की निजता को लेकर अपनी नीति में एकतरफा बदलावों की घोषणा ने भारतीय नागरिकों को लापरवाही भरी नींद से जगाने में उत्प्रेरक का काम किया है। हालांकि व्हाट्सएप ने फिलहाल इस निर्णय पर अमल टाल दिया है, किंतु अगर यह कंपनी भविष्य में फिर से निजता नीति में एकतरफा बदलाव करती है तो उसका मतलब है किसी व्यक्ति का निजी डाटा न केवल फेसबुक और इस ग्रुप द्वारा संचालित सेवा प्रदाता कंपनियों तक ही नहीं बल्कि उनके साथ जुड़ी तमाम कंपनियों, थर्ड पार्टी सेवा प्रदाता से साझा करने की राह साफ होना। व्हाट्सएप की नयी निजता नीति मौजूदा नियम-कानूनों का सरासर उल्लंघन है। तथापि इस प्रसंग ने भारतीयों का अपनी साइबर डाटा निजता पर जागरूक होने की आवश्यकता को सामने ला दिया है।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नयी विश्व अर्थव्यवस्था में डाटा की भूमिका वही है जो गाड़ी में तेल की। आज डाटा वह बुनियाद है, जिस पर नयी आर्थिकी की इमारत बनाई जा रही है। इसलिए उपभोक्ता के मुद्रा लेनदेन या क्रय संबंधी रुझान का डाटा जानने को तमाम संबंधित पक्ष (साइबर कंपनियां) उत्सुक रहते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में इन कंपनियों को भारत एक उर्वर बाजार लगता है। आज की तारीख में उक्त कंपनियों के लिए भारत तेजी से बढ़ती जनसंख्या वाला ऐसा देश है जहां डिजिटल सेवाओं का प्रयोग भी उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2020 में भारत में लगभग 70 करोड़ लोग इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे थे। जानकारों का मानना है कि वर्ष 2025 तक यह संख्या बढ़कर 97.4 करोड़ हो जाएगी। दरअसल वर्ष 2019 में दुनियाभर में ऑनलाइन खरीदारी करने वालों में चीनियों के बाद भारतीय दूसरे स्थान पर थे।
डिजिटल सेवाओं ने उपभोक्ता के तौर-तरीकों में इंटरनेट आधारित गतिविधियों को बढ़ा दिया है, डाटा का इस्तेमाल इस कदर बढ़ गया है कि विश्वभर में उपयोग की नयी इबारत लिखी गई। कालांतर में भारतीयों की बढ़ती जरूरतें बनने से उनकी गतिविधियों का डाटा पाने की भारी मांग साइबर जगत में पैदा हो गई। विश्वभर के डिजिटल सेवा प्रदाताओं का ध्यान अचानक भारत पर केंद्रित होने लगा। इसके बावजूद हाल-फिलहाल उपभोक्ता की साइबर डाटा निजता बचाए रखने को भारत में कोई ठोस नीति नदारद है। देश में साइबर निजता सुरक्षित करने हेतु खासतौर पर नीति नहीं बनी है। यह हालत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मील का पत्थर कहे जाने वाले फैसले के बावजूद है, जब अदालत ने न्यायमूर्ति पुत्तुस्वामी बनाम भारत गणराज्य केस में निजता बनाए रखने को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त मौलिक जीवन अधिकारों के समतुल्य रखा था। लेकिन जरूरत पड़ने पर किसी पीड़ित को निजता की सुरक्षा संबंधी सुसपष्ट कानूनी प्रावधानों के अभाव में अन्य उपलब्ध नियमों का सहारा लेना पड़ता है।
बेशक भारत में इलेक्ट्रॉनिक प्रारूपों में आचार संहिता के पालन हेतु सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2000 (इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट) के रूप में एक बृहद कानून मौजूद है। तथापि यह कानून पूर्ण रूप से निजता-आधारित मामलों के लिए नहीं है। हालांकि इसमें कुछ प्रावधान ऐसे हैं जो किसी व्यक्ति की निजता हनन पर लागू होते हैं। उदाहरणार्थ कानून के अनुच्छेद 66-ई के मुताबिक अगर कोई जानबूझकर अथवा अनजाने में निजी स्थान पर किसी इनसान की बिना इजाजत अथवा सहमति लिए बिना तस्वीर खींचे, प्रकाशित करे अथवा संप्रेषित करे, तो यह उसकी निजता का हनन होगा। दोषी को तीन साल तक की कैद अथवा 2 लाख तक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। परंतु इस कानून में आगे कहीं डाटा-निजता के विषय पर कुछ नहीं कहा गया। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने निजी डाटा सुरक्षा कानून संयुक्त संसदीय समिति को विचारार्थ सौंपा था लेकिन यह अभी भी लंबित है।
दीगर डिजिटल सेवा प्रदाताओं ने जल्द ही भांप लिया कि भारत चूंकि एक ऐतिहासिक परिवर्तन काल से गुजर रहा है, जहां साइबर डाटा-निजता नीति नदारद है। नतीजतन ऐसे तमाम पक्ष इस कमी का फायदा उठाने में लगे हैं और इस तरह के उपाय अपना रहे हैं, जिससे उनकी पहुंच उपभोक्ता के मुद्रा लेनदेन या क्रय संबंधी रुझान के डाटा तक हो जाए। व्हाट्सएप की हालिया निजता नीति बदलाव सूचना एक उदाहरण मात्र है। स्पष्ट है कि फिलहाल जो भारतीय साइबर कानून हैं, वे काफी पुराने पड़ चुके हैं और वर्ष 2008 के बाद इनमें सुधार नहीं किया गया। व्हाट्सएप सरीखी कंपनियों के हालिया प्रयोजन दर्शाते हैं कि सूचना तकनीक कानून में फौरी सुधार करना कितना जरूरी है। इससे आगे, भारतीय मध्यस्थ दायित्व कानून (इंडियन इंटरमीडिएट लायबिलिटी लॉ) को और कड़ा बनाने की जरूरत है। मध्यस्थ (सेवा प्रदाता,जहां खरीदो-फरोख्त की सुविधा होती है) के दायित्वों पर कानूनी बाध्यता क्या हो, इसकी पुनर्संरचना करना जरूरी है। इस बाबत भारत को अमेरिका से सीखना होगा, जहां संचार शुचिता कानून (कम्युनिकेशन डीसेंसी एक्ट) की धारा 230 की पुनः निर्धारण प्रक्रिया पहले ही शुरू की जा चुकी है। जहां एक ओर सुनिश्चित किया जाए कि मध्यस्थ (सेवा प्रदाता) स्थापित विधि-नियमों की अवहेलना मनमर्जी से न कर पाएं वहीं सरकार को चाहिए कि उपभोक्ता हितों से खिलवाड़ करने को उद्यत चालाक उपायों से बचाने की खातिर कानूनी प्रक्रिया फौरन सुदृढ़ की जाए।
भारत को अपने नागरिकों के साइबर हित सुरक्षित करने हेतु सख्त कानूनी संरचना बनाने की जरूरत है। इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी कानून के अनुच्छेद 87 पर तेजी से काम करके नियमों और नियामक धाराओं को सख्त बनाना होगा ताकि मध्यस्थ और डाटा सेवा प्रदाता उपभोक्ता का फायदा न उठा सकें। निजी डाटा सुरक्षा कानून-2019 लागू होने से, जिसका इंतजार लंबे समय से है, और उम्मीद है कि यह साइबर डाटा इकट्ठा करके इसका फायदा लेने वालों पर नकेल कसेगा, इस काम को और ज्यादा न लटकाया जाए। उम्मीद करें कानून निर्माता अपने पूरे सामर्थ्य और लगन से ऐसे नियम बनाएंगे, जिससे उपभोक्ता की डाटा निजता को अनेकानेक मध्यस्थ कंपनियों से बचाकर रखा जा सके। यहां हमें यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि कोविड-19 महामारी की वजह से पहले ही विश्व में नयी साइबर व्यवस्था वजूद में आ चुकी है, जिसमें लोग खरीदो-फरोख्त के लिए ज्यादा से ज्यादा साइबर सुविधाएं इस्तेमाल करने को बाध्य हुए हैं।
व्हाट्सएप प्रसंग को सरकार नींद से जगाने वाले झटके की तरह ले और इस मौके को फौरी निर्णय लेने में तबदील करे। बतौर एक राष्ट्र भारत को अहसास करना होगा कि अपनी साइबर सार्वभौमिकता को सुरक्षित रखने का सीधा संबंध डाटा-सुरक्षा और सार्वभौमिकता की रक्षा निरंतर विस्तारित करते रहने से है। उम्मीद करें कि सरकार एक ऐसी व्यवस्था लेकर आएगी, जिससे साइबर डाटा निजता की सुरक्षा से संबंधित विषयों पर प्रभावशाली अंकुश और अनुशासन बना रह सके।
लेखक साइबर कानून विशेषज्ञ हैं।