क्षमा शर्मा
मेरी सोसायटी के पास, पड़ोस की सोसायटी में एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति रहते थे। अक्सर जाते-आते दिखते थे, बिना मास्क के। अचानक उनकी सोसायटी के गेट पर उनकी मृत्यु की सूचना दिखाई दी। इन दिनों अरसे से घर के अंदर हूं तो कोई दुखद खबर भी जल्दी पता नहीं चलती। उनके मित्रों ने कहा कि उनसे बार-बार कहा जाता था कि मास्क लगाएं। मगर वह हंसकर कहते थे कि इस इतने लम्बे-चौड़े शरीर का कोरोना क्या बिगाड़ लेगा। लेकिन उन्हें कोरोना ही हुआ और वह नहीं बच सके।
आजकल ऐसी खबरें भी बहुतायत में दिखाई देती हैं, जब दूर खड़े होने की कहने पर या मास्क लगाने के अनुरोध भर से, लोग मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। जिसने कहा है, उसका मास्क उतारकर तार-तार कर देते हैं। सब जगह जब महामारी के कारण लोग परेशान हैं, अकेले हैं, तरह-तरह की चिंताओं से ग्रस्त हैं तो एक तरफ उनका गुस्सा बढ़ा है, तो दूसरी तरफ अहंकार भी। वरना मास्क लगाना या दूर खड़े होने की कहना तो उनकी सुरक्षा के लिए भी जरूरी है। मगर न जाने क्यों सोच में यह बात बैठी है कि कोरोना यदि कुछ बिगाड़ेगा तो दूसरे का, हमारा कुछ नहीं। हमें कुछ नहीं होगा। जबकि ऊपर लिखा प्रसंग इस बात की गवाही दे रहा है कि यह सच नहीं है।
दुनिया भर में इस महामारी से हाहाकार मचा है। विदेशों में रहने वाले परिजन बता रहे हैं कि जब इस बीमारी की पहली लहर खत्म हो रही थी तो लग रहा था कि चलो इससे मुक्ति हुई, मगर ऐसा हुआ नहीं है। दूसरी, तीसरी, चौथी लहर आ रही हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में तो सरकारों के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं। जिनमें लोगों ने मांग की थी कि अब वे घरों में रह-रहकर थक चुके हैं और बाहर निकलना चाहते हैं। वहां भी लोगों में अवसाद और गुस्सा बढ़ रहा है। अपने देश में न केवल बुजुर्ग और प्रौढ़ बल्कि बीस –तीस साल के युवा भी गुस्से से नहीं बच पा रहे हैं।
पिछले दिनों मैं अपने होम्योपैथ डाक्टर के पास गई थी। वह इस इलाके में बहुत मशहूर हैं। इतनी भीड़ रहती है कि बिना अपाॅइंटमेंट के समय नहीं मिलता। शाम का समय था। उनके क्लीनिक पर पहुंची। डाक्टर साहब अभी आए नहीं थे। अंदर जाकर बैठी थी कि एक बीस-बाइस साल की लड़की आई। डाक्टर के सहायक ने पूछा कि समय लिया है। लड़की ने कहा-हां। लेकिन आठ बजे नहीं आ सकती। मेरे इलाके में छेड़खानी की घटनाएं बहुत होती हैं। घर वाले उस समय अकेली नहीं आने देते। साथ में आने वाला कोई नहीं। डाक्टर के सहायक ने कहा-कोई बात नहीं। आप दिखा लीजिएगा। वह लड़की बैठ गई।
इसके कुछ देर बाद ही, एक बहुत बुजुर्ग महिला आई। सहायक ने नाम पूछा तो बताया-सायरा। उन्होंने समय लिया हुआ था। लेकिन समस्या यह थी कि वह बैठे कैसे। क्योंकि डाक्टर के यहां अंदर सिर्फ दो लोग ही बैठ सकते हैं। जिससे कि दूरी बनी रह सके। तब उस सहायक ने लड़की से अनुरोध किया कि इन माता जी को बैठने दें। आप बाहर खड़ी हो जाएं। उसकी बात सुनकर लड़की बोली-मैं क्यों बाहर खड़ी हो जाऊं। यह बाद में आई हैं तो ये बाहर खड़ी हों। लड़के ने कहा-आप तो खड़ी हो सकती हैं न।
-क्यों ये खड़ी नहीं हो सकतीं।
-आप जरा इनकी उम्र तो देखिए।
-उम्र मैं क्यों देखूं। मैं पहले आई हूं, मुझे तो बस ये मालूम है।
सहायक ने उसे समझाना चाहा। यह भी कहा कि जैसे ही डाक्टर साहब आएंगे, इन दोनों के बाद मैं आपको भेज दूंगा।
लेकिन लड़की नहीं मानी। कहीं लड़ाई न हो जाए, यह सोचकर वह बुजुर्ग महिला बोली-बेटा, मैं ही खड़ी हो जाती हूं बाहर। मगर सहायक ने उनसे बैठे रहने को कहा। यह देखकर कि वह उन महिला का पक्ष ले रहा है, लड़की गुस्से से भर उठी। वह चीखने-चिल्लाने लगी। मैंने भी उसे समझाने की कोशिश की लेकिन उसने मुझे भी डपटकर चुप करा दिया।
इतने में डाक्टर साहब आकर अपने केबिन में बैठ गए। लड़की ने यह देखा तो डाक्टर को सुनाकर वह और भी जोरों से चिल्लाने लगी-आप लोगों को यह तमीज नहीं है कि लड़कियों से कैसे बातें करते हैं। इसी तरह इलाज करते हैं, तो दवा ठीक से क्या देते होंगे, जब ठीक से बोल ही नहीं सकते। अब तुमसे सारे सम्बंध खत्म। कभी दवा लेने नहीं आऊंगी। कहते हुए लड़की ने शीशे के दरवाजे को इतनी जोर से पीछे की तरफ मारा कि वह दीवार से जा टकराया। खैरियत थी कि टूटा नहीं वरना पास बैठी उस महिला और डाक्टर के सहायक को चोट लगती।
लड़की के जाने के बाद डाक्टर का सहायक बोला-आप ही बताइए आंटी जी, क्या मैंने कुछ गलत कहा था। सचमुच उसने कुछ भी तो गलत नहीं कहा था। वह तो बिना समय लिए ही लड़की को डाक्टर से दवा दिलवाने की कहकर, उसकी मदद ही कर रहा था।
लड़की के इस व्यवहार से यह भी लगा कि क्या वाकई हमें उम्र के सम्मान का कोई ख्याल नहीं। मेट्रो में या बसों में अक्सर ऐसे स्टिकर दिखाई देते हैं, जहां यात्रियों से अनुरोध किया जाता है कि बुजुर्गों-महिलाओं को बैठने दें। कई बार युवा ऐसा करते भी हैं।
मगर उस लड़की के इस तरह के गुस्से ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर इतनी मामूली बात पर इतना गुस्सा क्यों। अगर वह लड़की कुछ देर बाहर खड़ी भी हो जाती, तो उसकी उम्र को देखते हुए, यह इतना कोई मुश्किल काम नहीं था, जबकि वह बुजुर्ग महिला हो सकता है कि खड़े होना बर्दाश्त न कर पाती। इनसानियत का यह तकाजा भी था। लेकिन वह लड़की इतनी नाराज क्यों हुई। उसने इसे अपना अपमान क्यों समझा।
इन दिनों अपने यहां युवाओं की परेशानियां उनके क्रोध, लड़ाई-झगड़े आदि के रूप में सामने आ रहे हैं। इस बुरे वक्त से हम अपने युवाओं को बचाए रखें, इसके लिए उन्हें हम बड़ों की मदद चाहिए। उनका अकेलापन, चिंताएं, मान-अपमान की बाधाएं कैसे दूर हों, क्या करें, कैसे उन्हें समझाएं, यह परिवारों और हम बड़ों के लिए भारी चुनौती है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।