बिमल राय
पिछले विधानसभा चुनावों में दो-तिहाई बहुमत से जीतकर तीसरी बार बंगाल की सीएम बनीं ममता की गवर्नेंस को लेकर सवाल उठने लगे हैं। उनके रोम-रोम में वोट बैंक की खांटी राजनीति ने घर कर लिया है। राष्ट्र की सुरक्षा, कानून व व्यवस्था, नैतिकता, शुचिता जैसे मामलों में वे आक्रमक रही हैं। एक संवैधानिक पद पर रहते हुए लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना होता है, क्योंकि वे बंगाल के 9 करोड़ से ज्यादा लोगों की सीएम हैं, केवल तृणमूल सर्मथकों की नहीं। हाल में आसनसोल में उन्होंने बयान दिया कि वे 21 जुलाई से भाजपा के खिलाफ जेहाद का ऐलान करेंगी।
तो क्या फिर भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ जंग शुरू होगी? सवाल है कि देश के मौजूदा माहौल को देखते हुए उन्हें जेहाद शब्द का प्रयोग करना चाहिए था? ममता इस्लामी इतिहास में एमए हैं, मगर साथ में उन्होंने कानून की डिग्री भी ली है। जाहिर है उन्हें संवैधानिक प्रावधान मालूम होंगे। नुपुर शर्मा प्रकरण को लें। ममता नूपुर का नाम लिये बिना विधानसभा में ‘हेट स्पीच’ के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर चुकी हैं। वे देश की पहली मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने नूपुर की गिरफ्तारी की मांग की। इस मामले पर बंगाल में हुए बवाल को याद करें। 10 जून को कोलकाता-दिल्ली नेशनल हाईवे को 12 घंटे तक रोका गया। लोगों को जाम में फंसे एंबुलेंस में तड़पते रोगियों की सुध भी नहीं आयी। पूरे 10 घंटे तक पुलिस रास्ता खुलवाने में कामयाब नहीं हुई। सवाल है कि क्या पुलिस मजबूर थी? क्या उसे भीड़ पर कार्रवाई करने की मनाही थी? पहले भी हावड़ा जिले में ही सीएए और एनआरसी के मामले पर हिंसा का जो नंगा नाच हुआ था, उसे बंगाल का कोई नागरिक भूल नहीं सकता था। फिर रात 8 बजे सीएम ममता हाथ जोड़े प्रकट हुईं और उन्होंने मुस्लिम समुदाय से विनती की कि वे रास्ता खाली कर दें। दीदी ने यह सुझाव भी दिया कि लोग यूपी, गुजरात जाकर आंदोलन करें। एक दिन बाद 10 जून को शुक्रवार था और दीदी की विनती की परीक्षा होनी थी। पर ये क्या? हावड़ा और कोलकाता के राजमार्ग और दूसरी जगहों पर रास्ता व रेल रोकने और टायर जलाने का सिलसिला फिर शुरू हो गया। पथराव में एक दर्जन से ज्यादा पुलिसवाले घायल हो गये। इसी दिन भाजपा का हावड़ा ग्रामीण जिला मुख्यालय फूंका और गाड़ियों को तोड़ दिया। यहीं पर राजधर्म या सुशासन का सवाल आता है। सरकारें क्या करें? दंगइयों से विनती करें या यूपी की तरह बुलडोजर चलाकर दंगइयों को कड़ा सबक सिखाने का प्रयास करें।
फिर ममता ने अग्निवीर भर्ती योजना को लालीपॉप बताते हुए यह तक कह दिया कि भाजपा अपना कैडर बढ़ाने के लिए यह योजना लाई है। यह भी कह दिया कि 4 साल बाद वे रिटायर होने के बाद भाजपा के लिए वोट लूटेंगे। समझिये, सेना के प्रति ऐसा सोच रखती हैं बंगाल की दीदी। 2 दिसंबर, 2006 की सनसनी को भी याद करें, जब ममता ने कहा था कि सूबे की सरकार को बिना बताये पश्चिम बंगाल सचिवालय और ज़िलों में सेना की तैनाती की गई है। उन्होंने इसे तख्तापलट की कोशिश बताया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को संसद में कहना पड़ा कि पुलिस अधिकारियों को इस अभ्यास की जानकारी थी। घुसपैठ और तमाम तरह की तस्करी रोकने के लिए बीएसएफ का दायरा जब अंतर्राष्ट्रीय सीमा से 50 किलोमीटर तक तय किया गया, तो न केवल उन्होंने इस कदम का विरोध किया, बल्कि खुलेआम लोगों को देश के पहरेदारों के खिलाफ उकसाया। इसमें कोई शक नहीं कि बंगाल में सांप्रदायिक विभाजन की समस्या राजधर्म व गवर्नेंस से ही जुड़ी हुई है जिसको गंभीरता से लेने की जरूरत है।
ममता पर तुष्टिकरण के आरोप यूं ही नहीं लगते, इसकी एक ठोस वजह है। पिछले विधानसभा चुनावों में तृणमूल को 47.9 और भाजपा को 38.1 प्रतिशत वोट मिले और इनकी सीटें क्रमश: 213 और 77 रहीं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 4.72 और कांग्रेस को लगभग 3 प्रतिशत वोट मिले थे। बंगाल पर 34 सालों तक राज करने वाली पार्टी का खाता नहीं खुला और यही हाल कांग्रेस का रहा। ध्रुवीकरण का खेला कुछ ऐसे खेला गया कि भाजपा को तृणमूल से महज 58 लाख 52 हजार 5 सौ 6 वोट ही कम मिले, पर सीटों की संख्या के मामले में इतना अंतर आ गया। बंगाल में मुस्लिम वोटों का प्रतिशत 28 से 30 प्रतिशत के आसपास है। इस तरह ममता का 30 प्रतिशत वोट बैंक रिजर्व है। दुख की बात तो यह है कि तृणमूल में अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोई नेता नहीं, जो एक सीएम को राजधर्म की याद दिला सके।