सुनील मिश्र
रजनीकान्त को 51वां दादा साहब फाल्के अवार्ड दिये जाने का निर्णय भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी घटना है। एक ऐसे कलाकार को इस सम्मान के लिए जूरी ने चुना है, जिसने अभिनय क्षमता में अपने सर्वस्व का बड़ी खूबी के साथ अतिरेक किया, न केवल अतिरेक किया बल्कि वह ऊंचाई हासिल की, जिसको देखकर कोई भी यदि कर सका तो करेगा रश्क ही। यह सम्मान घोषित होते ही विनम्र महानायक ईश्वर को धन्यवाद करते हैं और उस दर्शक समाज को इस बात का श्रेय देते हैं कि उन्होंने उनको इस योग्य समझा और गढ़ा।
रजनीकान्त अपने आप में शायद इस बात के आदर्श उदाहरण हैं कि उन्होंने अभिव्यक्ति को अपने ही मैनरिज्म और अभिव्यक्ति का सबसे प्रबल और सशक्त रचनात्मक माध्यम बनाया। उनके चाहने वाले, उनके दीवाने वे ही लोग थे जो सत्तर के दशक के आरम्भ में बैंगलोर में राज्य परिवहन निगम की बस में एक कंडक्टर विशेष से प्रभावित थे, जिसका पैसे मांगने से लेकर टिकट फाड़कर देने का अन्दाज निराला होता था। कितना दिलचस्प है कि जिस बस में वे कंडक्टर थे, उसी बस में ड्राइवर पी. राज बहादुर ने उनके इस अन्दाज से उनके डेस्टिनेशन की कल्पना कर डाली और न केवल सलाह दी बल्कि सहयोग भी किया, चेन्नई में जाकर फिल्म अभिनय की बारीकियां सीखने-समझने के लिए।
रजनीकान्त के लिए यह काम आसान नहीं था लेकिन आकर्षण पैदा करने वाले अन्दाज और चेष्टाओं से आकृष्ट करने की अदा को उन्होंने सिनेमा में अभिनय के लिए नुस्खे की तरह आजमाया। इधर सत्तर के दशक में देश भर में सिनेमा बदलाव की हवा ले रहा था। तब एक्शन फिल्में मुम्बई में बनती हिन्दी सिनेमा के दर्शकों को दिखायी दे रही थीं लेकिन दक्षिण का सिनेमा अपनी सार्थकता और प्रभाव में मुम्बइया सिनेमा से कहीं आगे था। खासतौर पर मलयालम और तमिल में बनने वाली फिल्मों का दर्शक वर्ग सिनेमा का स्वागत त्योहार की तरह करता था।
रजनीकान्त का सिनेमा में आगमन 1975 के आसपास ऐसे ही वातावरण में हुआ और उनके पहले निर्देशक के. बालचन्दर थे, जिनकी तमिल सिनेमा में बड़ी मान-प्रतिष्ठा थी। इनके ही निर्देशन में सबसे पहले उन्होंने अपूर्व रागांगल में काम किया। इस फिल्म में नायक के रूप में कमल हासन काम कर रहे थे और रजनी सहनायक की भूमिका में थे। रजनीकान्त ने अपने व्यवहार और काम से निर्देशक को प्रभावित किया और इस फिल्म के माध्यम से उनका भी दर्शकों ने उत्साहजनक ढंग से स्वागत किया। बालचन्दर का सान्निध्य और अगले ही वर्ष एक तेलुगु फिल्म अंतुलेनि कथा और तमिल फिल्म मूंदरु मुदिचु में उनके साथ फिर काम करते हुए जैसे रजनीकान्त को एक पथ मिल गया। इन फिल्मों में उनके साथी कलाकारों में कमल हासन के अलावा जयाप्रदा और श्रीदेवी भी शामिल थे।
आगे चलकर उन्होंने भारती राजा, एसपी मुथुरामन, दुराई, के. राघवेन्द्र राव, एसी त्रिलोकचन्दर, आर. त्यागराजन, आईवी ससि, दासरि नारायण राव, एसपी मुथुरामन जैसे अनेक बड़े निर्देशकों के साथ तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं की श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण फिल्में कीं। उनकी सफल फिल्मों में अन्नदामुला सवाल, भैरवी, साधुरंगम, मुल्लुम मलारूम, थप्पू थलंगल, अन्नई ओरु अलयम, पोक्खिरी राजा, रंगा, नल्लावनक्कु नल्लावन, विदुथलाई आदि के नाम याद किए जा सकते हैं।
रजनीकान्त ने भारतीय भाषाओं की लगभग 250 फिल्मों में काम किया है। रजनीकान्त की पहली हिंदी फिल्म अंधा कानून (1983) थी, जिसे टी. रामाराव ने निर्देशित किया था। बाद में वे दक्षिण के निर्देशकों के अलावा मुम्बई में हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय निर्देशकों की फिल्मों का हिस्सा भी बने। हिन्दी सिनेमा का दर्शक उनको जीत हमारी, मेरी अदालत, गंगवा, जॉन जानी जनार्दन, वफादार, महागुरु, गिरफ्तार, बेवफाई, भगवान दादा, असली नकली, दोस्ती दुश्मनी, डाकू हसीना, इंसाफ कौन करेगा, उत्तर दक्षिण, गैर कानूनी, चालबाज, हम, फरिश्ते, फूल बने अंगारे, आतंक ही आतंक आदि से खूब जानने लगा।
हिन्दी सिनेमा में दर्शकों का वह क्रेज कभी नहीं जागा जो दक्षिण में रजनीकान्त के लिए लगातार समृद्ध होता जा रहा था। चमत्कार कुछ इस तरह हुआ कि रजनीकान्त की दक्षिण में बनने वाली फिल्में सहजता से हिन्दी में डब होकर शेष भारत में पहुंचने लगीं। यह वह दौर था जब दर्शकों ने इस महानायक को उसके असाधारण विस्तार में देखा। फिल्में थीं- रॉ वन, सिवाजी, एंदिरन, बाबा, कोच्चादियां, लिंगा, कबाली, काला, 2.0, दरबार आदि।
क्या हम इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि दर्शक किसी सितारे की फिल्म देखने किसी दूसरे शहर में हवाई जहाज का टिकट खर्च करके जा सकते हैं? यह सचमुच में सुपर विस्मय है जो रजनीकान्त को प्यार और व्यवहार में मिला है। जी हां, यह सच है कि रजनीकान्त की फिल्में देखने मुम्बई से चेन्नई जहाज पर बैठकर जाने वाला दर्शक भी हमारे हिन्दुस्तान में है। उनके चाहने वाले असंख्य हैं। और अपने चाहने वालों के बीच थलाइवा (दक्षिण में रजनीकान्त का प्यार का नाम) एकदम सहज आदमी की तरह हर जगह, हर समय जब अकस्मात सबके बीच होता है तो लोग बेहद अनुशासित होकर अपनी प्रतिक्रिया के अतिरेक में जाकर प्रदर्शित होते हैं। यह प्यार परस्पर है। बिना किसी बनावटीपन के, बिना किसी फेस-लिफ्टिंग के रजनीकान्त को सहजता में जीते और व्यवहार करते देख एक महान लोकप्रिय की नम्रता पर गर्व हो उठता है।