राजेन्द्र चौधरी
आम परिवार भविष्य के लिए कुछ न कुछ बचत करता है। अब से 50 से 100 साल पहले तक यह बचत घर में छुपा कर या ज़मीन में दबा कर रखी जाती थी। दूसरी ओर अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए निवेश आवश्यक होता है। यह निवेश संभव होता है बचत से। बैंक ये बचत लाखों-करोड़ों परिवारों से इकट्ठी करते हैं और कुछ निवेशकों को उपलब्ध कराते हैं। छिटपुट बचत इकट्ठा करना और उसे निवेशकों को उपलब्ध कराना ही बैंकों का बुनियादी काम है। बैंकों के बाकी काम इसके बाद हैं।
1969 में हुए बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले भारत में कई बड़े औद्योगिक घराने बैंक चलाते थे। परन्तु उत्पादन और बैंकिंग के फैलाव के साथ ही कई समस्याएं उठ खड़ी हुईं। मसलन, उद्योगों द्वारा संचालित बैंकों में बचत तो आम जनता से इकट्ठी की जाती थी, पर क़र्ज़ बड़े पैमाने पर बैंक संचालित करने वाले उद्योग समूह को मिलता था। जब क़र्ज़ बांटने वाला जनता का पैसा खुद के उद्योग धंधों में लगाता है तो क़र्ज़ डूबने का खतरा बढ़ जाता है। जिससे देर सवेर बैंक डूबने यानी आम जनता की बचत डूबने का खतरा बढ़ जाता है।
इसके साथ ही जब बचत का बड़ा हिस्सा बैंक संचालक अपने उद्योग धंधों को देने लगते हैं तो निश्चित तौर पर आम जनता को क़र्ज़ कम मिल पाता है। रिक्शा या रेहड़ी खरीदने तक के लिए भी बैंक से क़र्ज़ नहीं मिलता और ऊंचे दाम पर रिक्शा या रेहड़ी किराए पर लेनी पड़ती है। मद्रास की सब्जी मंडी में दैनिक 10 प्रतिशत की ब्याज दर हमने सुनी थी। हमें पढ़ाया गया था कि इन समस्याओं के चलते ही भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। न केवल बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया बल्कि सभी बैंकों के लिए अपने कुल क़र्ज़ का एक न्यूनतम हिस्सा चयनित क्षेत्रों, जैसे कृषि एवं छोटे उद्योगों को देना अनिवार्य किया गया था। 1990 के बाद जब निजी क्षेत्र को बैंक खोलने की अनुमति दी गई तब भी अन्य क्षेत्र में कार्यरत औद्योगिक घरानों द्वारा बैंक खोलने पर रोक लगी रही।
अब रिज़र्व बैंक यह रोक हटाना चाहता है। इस प्रस्ताव की कई जानेमाने अर्थशास्त्रियों ने, जिनमें रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर और सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी शामिल हैं, आलोचना की है। रिज़र्व बैंक ने स्वयं माना है कि जिन बाह्य विशेषज्ञों से उन्होंने सलाह-मशविरा किया था, उनमें से भी एक को छोड़ सबने इसकी आलोचना की है।
आखिर हम अपने अनुभव से सीखते क्यों नहीं हैं? जब पहले हमें औद्योगिक घरानों द्वारा संचालित बैंकों के राष्ट्रीयकरण की ज़रूरत पड़ी थी, तो फिर वापस उसी रास्ते पर क्यों? निश्चित तौर पर परिस्थितियां बदलने पर नीतियां बदल सकती हैं पर रिज़र्व बैंक को बताना होगा कि जब वर्तमान में भी बैंकों द्वारा जनता की कष्ट से हासिल कमाई ‘अपने यारे प्यारों’ को जोखिम भरे क़र्ज़ देकर लुटाई जा रही है, जिसके चलते कई बैंक पिछले कुछ महीनों में दीवालिया होने के कगार पर पहुंच गए थे एवं रिज़र्व बैंक समय रहते इस पर रोक नहीं लगा पाया तो जब औद्योगिक घराने ही बैंक चलाने लगेंगे तो फिर ये जोख़िम भरे क़र्ज़ कैसे रुकेंगे? केवल इसको रोकने की सदिच्छा जताने से, जैसा कि बैंक ने जताई है, पर्याप्त नहीं है।
एक ओर सार्वजनिक बैंकों के विलय के माध्यम से सरकार बैंकों की संख्या कम करने पर जुटी है और दूसरी ओर नये बैंकों को खोलने के प्रस्ताव; यह समझ से परे है। इस 100 पन्नों के प्रस्ताव में रिज़र्व बैंक ने राष्ट्रीयकरण पर बहुत कम लिखा है। रिज़र्व बैंक को ऐसा दस्तावेज़ तैयार करना चाहिए था जो बताता कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया था, औद्योगिक घरानों द्वारा बैंक चलाने पर रोक किन कारणों से लगाई गयी थी और अब क्यों इसको हटाया जा रहा है? बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारणों और अब फिर से उद्योग घरानों को बैंक संचालित करने की अनुमति देना, इसे कोई अध्यापक कैसे समझा पायेगा?