जी. पार्थसारथी
दिसंबर, 1971 में बांग्लादेश के जन्म से एक दिन पहले हेनरी किसिंजर ने दावा किया था कि स्वतंत्र रूप में यह राष्ट्र एक ‘इंटरनेशनल बास्केट केस’ (आर्थिक-वित्तीय रूप से अत्यंत क्षीण) बनकर रह जाएगा और अपने वजूद के लिए सदा विदेशी खैरात पर निर्भर रहेगा। बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हेनरी किसिंजर और उनके बॉस राष्ट्रपति निक्सन ने जो कुछ कहा और किया था, उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी। बांग्लादेश ने पाकिस्तान को लगभग तमाम सामाजिक और आर्थिक सूचकांकों में पछाड़ दिया है। ठीक इसी समय शेख हसीना बेगम ने द्विपक्षीय लाभ के लिए चीन, पश्चिमी जगत, भारत और अन्य मित्र देशों के साथ अपने संबंध बड़ी दक्षता से बनाकर रखे हुए हैं।
बल्कि आज यह पाकिस्तान है, जो ‘इंटरनेशनल बास्केट केस’ बना हुआ है, जिसे खैरात पाने के लिए चीन और जी-20 संगठन के दीगर मुल्कों के अलावा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान जैसे कि विश्व बैंक, आईएमएफ और एशियन डेवलपमेंट बैंक के आगे लगातार हाथ फैलाना पड़ रहा है और सिर पर चढ़े भारी कर्ज को उतारने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। पाकिस्तान को अपना बोझ हल्का करने के लिए चीन के निजी बैंकों से ऋण लेना पड़ रहा है।
बांग्लादेश यात्रा में जिस कदर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत गर्मजोशी के साथ हुआ है, वह तस्दीक है कि बांग्लादेश को आज भी याद है कि कैसे भारत ने स्नेह और उदारता से 90 लाख शरणार्थियों को पनाह दी थी, जिन्हें जनरल टिक्का खान के जुल्मो-सितम की वजह से दरबदर होना पड़ा था। इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी के निर्णायक नेतृत्व की प्रशंसा की है। समय बीतता गया और बांग्लादेश ‘इंटरनेशनल बास्केट केस’ न होकर दुनियाभर में वस्त्रों के अग्रणी निर्यातक देशों में एक बन गया है। मुख्य मानव संसाधन प्रबंधन सूचकांक जैसे कि महिला साक्षरता में भी अच्छी प्राप्ति पर उसे नाज़ है। भारत और बांग्लादेश ने अपने बीच रहे तमाम मतभेदों को सुलझा लिया है, इसमें थलीय सीमा-निशानदेही से लेकर जलीय सीमाओं का निपटारा शामिल है। हालांकि, भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों के विषय में बयानबाज़ी से पहले धैर्य रखना ज्यादा मुनासिब होगा।
जहां बांग्लादेश ने निर्यात, आर्थिक प्रगति और मानव विकास सूचकांक के क्षेत्र में तेज छलांगें लगाई हैं, वहीं पाकिस्तान के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती, जो लगभग तमाम मानव संसाधनों में फिस्सडी सिद्ध हुआ है। पाकिस्तान ने जमात-ए-इस्लामी और हिफाज़त-ए-इस्लाम जैसे कट्टरवादी संगठनों को शह देकर बांग्लादेश के भीतर तनाव पैदा करने के अलावा उसके साथ द्विपक्षीय आर्थिक अथवा क्षेत्रीय सहयोग संबंध सुधारने में बहुत कम यत्न किए हैं।
पाकिस्तान चीन को जम्मू-कश्मीर की शख्सगाम घाटी पहले ही सौंप चुका है और गिलगित-बाल्टिस्तान में चीन की बढ़ी हुई आर्थिक एवं सैन्य उपस्थिति को स्वीकार कर वहां का नियंत्रण धीरे-धीरे चीनी हाथों में देने का पूरा इंतजाम किए बैठा है। यह भी साफ है कि केवल समय की बात है जब ग्वादर बंदरगाह पर ज्यादातर नियंत्रण चीनियों का होगा, जिसे वह बलूचिस्तान में विकसित कर रहा है। इस तरह का नियंत्रण वह पहले ही श्रीलंका के हम्बनतोता बंदरगाह पर बना चुका है। इसके अलावा पाकिस्तान ने चीन से 4 फ्रिगेट श्रेणी के युद्धपोत और 8 पनडुब्बियां खरीदने का सौदा किया है। इससे सिर पर चढ़ी भारी कर्ज की गठरी और ज्यादा बड़ी हो जाएगी।
उक्त सारे घटनाक्रम के बीच 25 फरवरी को भारत और पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ऑपरेशंस (डीजीएमओ) ने अप्रत्याशित घोषणा की है, यह ऐसे समय पर आई है जब जम्मू-कश्मीर में वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा पर लगातार शांति भंग की खबरें मिल रही थीं। भारत और पाकिस्तान वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा पर सख्ती से शांति बनाए रखने को सहमत हो गए हैं। इस स्वागतयोग्य फैसले के पीछे जाहिर है ‘पर्दे के पीछे चली’ वार्ताओं का हाथ है। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा ने 16 मार्च को एक कदम आगे जाते हुए कहा कि ‘समय आ गया है कि पुराने इतिहास को दफन कर आगे बढ़ा जाए।’ कोई हैरानी नहीं कि इस घोषणा में इस शर्त का दुमछल्ला नत्थी था कि सही माहौल बनाने की जिम्मेवारी भारत की बनती है, खासकर भारत के नियंत्रण वाले कश्मीर में। इस बयान के साथ वही चिर-परिचित ‘ब्लैकमेल मंत्र’ भी नत्थी था, बार-बार कहा जाता है दोनों मुल्क परमाणु शक्ति संपन्न हैं।
जहां एक ओर भारत के संदर्भ में प्रधानमंत्री इमरान खान कूटनीतिक भाषा कम ही बरतते हैं, वहीं जनरल बाजवा अपेक्षाकृत संयमित रहे हैं, वे अपने पूर्ववर्ती राहिल शरीफ की बनिस्बत भारत का जिक्र करते वक्त ज्यादा नफासत और वाकपटुता बरतते हैं। किंतु यह कोई नई बात नहीं है। पहले-पहल जनरल मुशर्रफ का रुख भी तेज-तर्रार था, किंतु कारगिल में मिली चोट से सबक लेकर उन्होंने वर्ष 2003 में जम्मू-कश्मीर मसले पर दोनों मुल्कों के बीच सहमति के अंतर्गत सीमा-पारीय आतंकी घुसपैठ पर रोक लगा दी थी। मुशर्रफ ने विशेष तौर पर अपना जानशीन जनरल अशफाक कयानी को चुना था, लेकिन उसने उपरोक्त समझौते की उस हर चीज को बदल डाला जिस पर मुशर्रफ राजी हुए थे। 26 नवम्बर को लश्कर-ए-तैयबा द्वारा मुंबई में बरपाए गए आतंकी कहर का जिम्मेवार भी कयानी था। खुद मुशर्रफ अपने पूर्ववर्ती जनरल जहांगीर करामात से काफी अलहदा थे, जो मृदुभाषी थे, अपने निर्णय सावधानी से किया करते थे और दमगजे मारने से परहेज़ रखा करते थे। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि जनरल बाजवा के बाद आने वाला नया सेनाध्यक्ष उनके मौजूदा निर्णय को जारी रखेगा। फिलहाल बाजवा सेवा-विस्तार के तहत हैं और नवम्बर, 2022 में सेवानिवृत्त हो जाएंगे। इसलिए यह मानना तार्किक होगा कि जब तक कोई अनहोनी न हो जाए तब तक निश्चिंत होकर, किंतु सावधानीपूर्वक, ‘पर्दे के पीछे’ संवाद चलाए जा सकते हैं। इसमें यदि कोई अड़चन पड़ी तो वह प्रधानमंत्री इमरान खान की गर्ममिज़ाज़ी की वजह से होगी।
उम्मीद है कि पाकिस्तान सबक सीखेगा कि जम्मू-कश्मीर या अन्य समस्याओं पर वार्ता प्रक्रिया पाकिस्तान की मांग से बंधी नहीं है। जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलाव को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया पूरी तरह से भारत का सर्वाधिकार है, जिसकी गति सरकार और नागरिक अपने मुताबिक तय करेंगे। उम्मीद है पाकिस्तान के साथ संबंधों में संवाद चार-टी यानी ट्रेड-ट्रैवल-ट्रांसिट-टूरिज्म पर केंद्रित रहेगी। बेहतर होगा कि जम्मू-कश्मीर पर बातचीत ‘पर्दे के पीछे’ रखी जाए।
भारत को ‘क्वाड’ प्रक्रिया में आगे बढ़कर अपनी सामरिक सार्वभौमिकता और अधिक सुदृढ़ करनी चाहिए। यह काम जहां एक ओर रूस के साथ अपने पुराने संबंध कायम रखते हुए करना होगा वहीं मुख्य शक्तियां जैसे कि जापान, फ्रांस और यूके से साथ रिश्तों को अधिक प्रगाढ़ करते हुए किया जाए। पड़ोसी मुल्क जैसे कि श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और म्यांमार को अब भारत की सामरिक अनिवार्यताएं एकदम स्पष्ट हैं। तथापि चीन से दरपेश सीमा संबंधी चुनौतियों से निपटने में एसियान सदस्यों के साथ ज्यादा एकजुटता दिखाने में बहुत कुछ करना बाकी है।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।