जी. पार्थसारथी
जब कभी इमरान खान की राजनीतिक नीतियों का आकलन होता है तो अनायास वर्ष 1982 में उनके साथ हुई मुलाकात की याद ताजा हो जाती है, तब मैं कराची के क्लिफ्टन इलाके में स्थित भारतीय महावाणिज्य दूतावास में नियुक्त था। उस दिनों मैंने सुनील गावस्कर के नेतृत्व में खेलने आई भारतीय क्रिकेट टीम के लिए स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया था। इसमें पाकिस्तान क्रिकेट टीम के सदस्यों ने भी शिरकत की थी। हमारा भवन पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के निजी गृह के ठीक सामने स्थित था। उस वक्त उन्हें तत्कालीन सैनिक तानाशाह जनरल जिया उल हक ने घर में नजरबंद कर रखा था। इसके पास स्थित कालोनी डिफेंस हाउसिंग सोसाइटी में इन दिनों कुख्यात डॉन दाऊद इब्राहिम शाही शानो-शौकत से रह रहा है। 1982 की टेस्ट मैच सीरीज में इमरान खान ने अपनी तूफानी गेंदबाजी से भारतीय बैटिंग की धज्जियां उड़ा कर रखी हुई थीं। सुनील गावस्कर और मोहिंदर अमरनाथ ही उन गिने-चुने भारतीय बल्लेबाजों में से थे जो इमरान की रिवर्स स्विंग गेंदों को सही ढंग से पढ़कर निरंतर और आत्मविश्वास से खेल पा रहे थे।
कराची पहले भी पाकिस्तान का महानगर था और आज भी है, जहां कोई अपने पाकिस्तानी दोस्तों के साथ शाम की महफिल में शराब का लुत्फ लेते हुए बतिया सकता है। मैंने अपने एक मित्र जो पाकिस्तानी कमेंटेटर थे, से पूछा कि इमरान को भारत के खिलाफ इतनी खार से गेंदबाजी करने को क्या चीज प्रेरित करती है, क्योंकि बाकी टीमों के खिलाफ उनके अंदर वह जोशो-खरोश देखने को नहीं मिलता। मुझे बताया गया कि जब यही सवाल इमरान से पूछा गया था कि भारतीयों के खिलाफ उनकी गेंदें इतनी आग क्यों उगलती हैं तो जवाब था ‘जब कभी मैं भारत के विरुद्ध खेलता हूं तो इसे एक महज खेल प्रतियोगिता की तरह नहीं लेता, मुझे कश्मीर की याद हो आती है। तब मेरे लिए खेल एक ‘जिहाद’ बन जाता है।’ 1982 में इमरान की आक्रामक रिवर्स स्विंग का चौंकाने वाला जलवा दोपहर के भोजन और चाय के अंतराल के बाद ज्यादा देखने को मिलता था, जब उस दौरान गेंद पाकिस्तानी अंपायरों की जेब में हुआ करती थी! नुक्ता यह है कि गेंद के अर्धगोलार्द्ध को रगड़कर खुरदरा बनाकर और शेष भाग को चमकता हुआ रखने से गेंद की रिवर्स स्विंग अप्रत्याशित रूप से अबूझ बन जाती है। यह गावस्कर और अन्य भारतीय बल्लेबाजों ने गौर करने पर पाया था।
पाकिस्तान ने कुछ महान तेज गेंदबाज क्रिकेट जगत को दिए हैं। उनमें वसीम अकरम, वकार यूनुस, शोएब अख्तर हैं। यूं तो इन्होंने भी भारत के विरुद्ध अपने मुल्क की तरफ से जी-जान से कड़ी गेंदबाजी की थी लेकिन इमरान की तरह इन्होंने खेल को कभी ‘जिहाद’ की तरह नहीं लिया था। भारतीय क्रिकेटरों के साथ उनके निजी संबंध मधुर थे। इमरान ने जब राजनीति में कदम रखा तो उनकी राजनीति को तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के संस्थापकों में से एक ले. जनरल हमीद गुल ने काफी हद तक अपने सांचे में ढाला था। हमीद गुल पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी का महानिदेशक रहा था और कट्टर इस्लामिक मान्यताओं वाला मुसलमान है। अफगानिस्तान में इस्लामिक आतंकवादियों को शह-मदद देने में उसकी बड़ी भूमिका थी। उसमेंे पंजाब और जम्मू-कश्मीर में विद्रोहियों को बढ़ावा देने का जज़्बा भी काफी था। सेना और आईएसआई की अंदरखाते मदद से इमरान सत्ता प्राप्त कर सके हैं क्योंकि इन दोनों प्रतिष्ठानों को यह नागवार लगता था कि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने लगे हैं, खासकर भारत और अफगान मामलों में।
जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत और विद्रोहियों को आईएसआई की मदद मिलने के इल्जामों पर जहां पाकिस्तान के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री कन्नी काटने लगते थे वहीं इमरान ने हुर्रियत, लश्कर-ए-तैयबा जैसे इस्लामिक गुटों और तालिबान के साथ अपनी यारी को कभी गुप्त नहीं रखा है। कोई हैरानी नहीं कि इमरान खान पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिविलियन पुरस्कार ‘निशान-ए-हैदर’ हुर्रियत के पितामह कहे जाने वाले सैयद अली गिलानी को देने जा रहे हैं। लेकिन आज हमारा पाला ऐसे पाकिस्तानी नेता से है जो इस्लामिक विद्रोहियों को अपनी मदद के बारे में खुलकर कहता है। यहां तक कि न्यूयॉर्क में 9/11 आतंकी हमले के मास्टरमाइंड और अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को इमरान खान एक ‘शहीद’ बताते हैं।
बेशक इमरान खान यह दर्शाते हैं कि देश की विदेश नीति के निर्धारण में उनकी चलती है लेकिन हकीकत में इस पर फैसले लेने का हक पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा के हाथ में है। अमेरिका में आगामी 3 नवंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले राष्ट्रपति ट्रंप चाहते हैं कि अफगानिस्तान में मौजूद अपनी बाकी बची सेना को निकाल लाएं। इस हेतु वार्ताओं में आतंकियों के खिलाफ अमेरिकी सैन्य अभियानों को बंद करवाने में जनरल बाजवा ने सक्रियता दिखाई थी। जब पिछले साल 22 जुलाई को इमरान खान ने राष्ट्रपति ट्रंप से मुलाकात की थी तो वे पहले ऐसे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बने जो व्हाइट हाउस में अपने साथ पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष को लेकर गये।
9 जून को जनरल बाजवा की अचानक अफगानिस्तान यात्रा और राष्ट्रपति अशरफ गनी से की गई मुलाकात के बाद पाकिस्तान की अफगान नीति को सेना सीधे संचालित करती दिखाई दे रही है। मतलब अब यह इमरान नहीं बल्कि बाजवा हैं जो 3 नवंबर से पहले अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी सुनिश्चित करके राष्ट्रपति ट्रंप की मदद कर रहे हैं। अमेरिकी फौज के पलायन के बाद अफगानिस्तान में स्थिति विस्फोटक बनेगी। यह तय है कि वहां गृह युद्ध छिड़ सकता है क्योंकि तालिबान सत्ता में किसी को भागीदार नहीं बनाना चाहते।
यह भी जगजाहिर है कि पाकिस्तानी सेना अपने अधिकार क्षेत्र में इमरान को एक प्रतिद्वंद्वी मानकर उनका आकार सीमित रखना चाहती है। सेना के चर्चित प्रवक्ता रहे ले. जनरल असीम सलीम बाजवा को सेवानिवृत्ति उपरांत इमरान खान का विशेष सूचना एवं प्रसारण सहायक नियुक्त किया गया है। असीम बाजवा को चीन-पाकिस्तान विशेष आर्थिक गलियारा योजना प्राधिकरण का अध्यक्ष भी बनाया गया है। ऐसी सूचनाएं हैं कि इस परियोजना संबंधी पाकिस्तानी निर्णयों को लेकर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा दिखाई गई नाखुशी के बाद असीम बाजवा को अध्यक्ष पद पर बैठाया गया है। संघीय योजना मंत्री के नीचे काम करने वाले राष्ट्रीय कमान एवं क्रियान्वयन केंद्र के कामकाज में भी सेना निर्णायक भूमिका निभाने लगी है। यह साफ है कि इमरान खान जो लंबे समय से पाक सेना के ‘जमूरे’ रहे हैं, उन्हें अब ‘तत्पर कठपुतली’ में तबदील कर दिया गया है, जिन्हें जिस दिन सेना चाहेगी, सत्ताच्युत कर देगी। चीन भी यह बखूबी जानता है कि पाकिस्तान में किसकी चलती है।
इमरान खान के साथ वार्ता करने में जल्दी न दिखाकर भारत ने सही किया है। वह न केवल पाकिस्तानी सेना के सामने दिखावे की बल्कि अंदर गहरे तक भारत के प्रति खार रखते हैं। इन परिस्थितियों में ज्यादा अच्छा यह होगा कि पाकिस्तानी सेना से माकूल संपर्क माध्यम बनाकर रखा जाए। हालांकि पर्दे के पीछे बनाए गए इस किस्म के राब्ते से वास्तव में ज्यादा कुछ प्राप्ति की उम्मीद कम ही है, खासकर कश्मीर और लद्दाख में बने ताजा तनाव के बाद। लेकिन संवाद या वार्ता के लिए रूपोश संपर्क की अपनी व्यावहारिकता होती है, यहां तक कि मुश्किल समय में भी, खासकर तब जब तनाव चरम पर हो।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।