अनूप भटनागर
विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन अब नये चरण में प्रवेश कर रहा है। फिलहाल इसके समाधान का कोई ओर छोर नजर नहीं आ रहा है। किसानों के धरने की वजह से आम जनता को असुविधा हो रही है लेकिन इन कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के बारे में भी स्थिति साफ नहीं है।
इन कानूनों को लेकर किसानों के अड़ियल रवैये के बाद एक बात तो निश्चित लग रही है कि अगर इस विवाद का कोई राजनीतिक समाधान नहीं निकला तो अंतत: न्यायपालिका को ही इसके सारे प्रावधानों की न्यायिक समीक्षा करनी पड़ेगी और ऐसी स्थिति में किसानों के लिए न्यायिक कार्यवाही में शामिल होने से बचना बहुत मुश्किल होगा। हालांकि, अभी तक आंदोलनरत किसान संगठनों ने न्यायिक कार्यवाही में शामिल होने के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है लेकिन इस गतिरोध को राजनीतिक रंग दिये जाने के प्रयासों के मद्देनजर न्यायिक समीक्षा ही इसका समाधान नजर आता है।
ऐसा लगता है कि इन कानूनों का भविष्य अब किसान संगठनों और केन्द्र सरकार की हठधर्मी का शिकार हो गया है। किसान संगठन इन कानूनों को रद्द की मांग पर अड़े हुए हैं और वे जगह-जगह महापंचायत आयोजित कर रहे हैं। दूसरी ओर, केन्द्र सरकार इसमें सुधार के लिए तो तैयार है लेकिन उसने इन्हें वापस लेने से साफ इनकार कर दिया है।
किसानों के आंदोलन की वजह बने तीन नये कानूनों में कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार, कानून, 2020, कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) कानून, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून शामिल हैं।
हमें यह ध्यान रखना होगा कि इन कानूनों को निष्प्रभावी बनाने के दो ही रास्ते हैं। पहला, संसद की कार्यवाही में सरकार इन्हें खत्म करने का प्रस्ताव लाये और फिर इन्हें निष्प्रभावी बनाने का प्रस्ताव पारित किया जाये। चूंकि केन्द्र सरकार स्पष्ट कर चुकी है कि इन कानूनों को वापस नहीं लिया जायेगा, इसलिए न्यायपालिका का ही विकल्प उपलब्ध नजर आता है। शीर्ष अदालत चाहे तो सारे मामले पर सुनवाई के बाद सरकार को आवश्यक निर्देश दे सकती है।
दूसरा, उच्चतम न्यायालय इन कानूनों की संवैधानिक वैधता की विवेचना के बाद, अगर उचित समझे, इन्हें निरस्त कर सकता है जैसा कि उसने 2015 में राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये राष्ट्रीय आयोग बनाने संबंधी कानून को निरस्त करके किया था। यह एक ऐसा विवाद है जिसका अगर आने वाले महीनों में समाधान नहीं निकला तो अंतत: उच्चतम न्यायालय को ही इन कानूनों को लेकर व्याप्त गतिरोध दूर करने के लिये पहले से ही लंबित याचिकाओं पर शीघ्र सुनवाई करनी होगी। न्यायालय पहले ही इन कानूनों के अमल पर अस्थाई रोक लगा चुका है।
शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार के विरोध के बावजूद 12 जनवरी को इन कानूनों पर अंतरिम रोक लगा दी थी। यही नहीं, न्यायालय ने इस विवाद का हल खोजने के लिए चार सदस्यीय समिति भी गठित की थी । समिति को इन कानूनों के परिप्रेक्ष्य में किसानों की शंकाओं और शिकायतों पर विचार करना था। समिति में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिन्दर सिंह मान और शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घंवत, डा. प्रमोद जोशी और कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी को शामिल किया गया था। समिति ने निर्धारित समय के भीतर अपनी रिपोर्ट मार्च में शीर्ष अदालत को सौंप दी थी।
लेकिन समिति की रिपोर्ट न्यायालय को सौंपे जाने के बावजूद इन याचिकाओं का सूचीबद्ध नहीं होना विस्मित करता है। यह मामला अंतिम बार 19 जनवरी को सूचीबद्ध हुआ था। कृषि कानूनों के विरोध में विभिन्न किसान संगठनों के साथ केन्द्रीय कृषि मंत्री के नेतृत्व में सरकारी प्रतिनिधि ने कई दौर की बात की लेकिन नतीजा शून्य ही रहा है। अब स्थिति यह है कि किसान संगठनों की मांगों की सूची में नये -नये विषय जुड़ते जा रहे हैं।
न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि अंतरिम रोक के परिणामस्वरूप ये कानून लागू होने से पहले देश में मौजूद न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था अगले आदेश तक जारी रहेगी। इसके अलावा, न्यायालय ने किसानों की भूमि हड़पे जाने की आशंका के मद्देनजर अपने आदेश मे यह भी कहा था कि उनकी जमीन की रक्षा की जाएगी और किसी भी किसान को इन कानूनों के तहत कार्रवाई करके भूमि के मालिकाना हक से बेदखल नहीं किया जायेगा।
आंदोलनरत किसान संगठनों को भी समझना होगा कि अगर सरकार भी इन्हें रद्द नहीं करने के निश्चय पर अडिग है तो उनके पास समाधान के लिये सिर्फ न्यायपालिका का ही रास्ता उपलब्ध है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत इन पर यथाशीघ्र सुनवाई करके अपनी सुविचारित व्यवस्था देगी।