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अब तो दोस्ती पर कुर्बान हुए गधे

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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डॉ. हेमंत कुमार पारीक

दोस्त से बड़ा कोई दुश्मन नहीं और दोस्त से बड़ा कोई सगा नहीं। चीन वाले बंजर में भी फूल खिला लेते हैं और अपने हित की खातिर दोस्ती में कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उन्होंने देखा कि पड़ोसी के यहां आटे की मारामारी मची है। लोग कटोरा लिए इधर-उधर, दूसरे देशों में जियारत के बहाने भीख मांग रहे हैं तो उसकी नाक का सवाल खड़ा हो गया। इज्जत तो सबको प्यारी होती है। तो चूड़ी, बिंदी, झालर, झुमके, चड्डी-बनियान का बिजनेस करने वाले दोस्त की नजर वहां के मूल उत्पाद गधे पर पड़ी। दुनियाभर में गधों के बाजार के नाम से मशहूर पड़ोसी से गधे केवल वही इम्पोर्ट करता रहा है। औने-पौने में मिल जाते हैं। पर अब दोस्ती की कसम चीन ने कमर कस ली है कि वह दुनिया वालों को गधों की अहमियत बताएगा। उनके मांस, मज्जा, हड्डी और खाल को हाइप करेगा।

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अभी तक पड़ोसी आतंकी एक्सपोर्ट करता आया है। आतंकी बाजार गिरा तो पड़ोसी के भूखे मरने की नौबत आ गयी। सो इस वक्त दोस्त के हाथ आगे हैं। अलबत्ता बतौर ब्याज दोस्त का कुरता, पायजामा, टोपी, जूते-चप्पल तक उतार लिए हैं। अब तो केवल एक ही शै बची है और वो हैं गधे। और पड़ोसी का मानना है कि दोस्ती में सिर तक कट जाए तो कोई गम नहीं। स्वर्ग में हूरें तो इंतजार करती मिलेंगी।

दरअसल, चीन की नजरें पारखी हैं। पहले नजरें गड़ाता है और फिर दांत। सूंघ लेता है कहां, क्या-क्या है उसकी जरूरत की चीजें। बस चाल चल देता है।

इधर हमारे देश में पतंग उड़ाने का रिवाज है। हर घर उड़ती है पतंग। राजनीति में तो जरूरत से ज्यादा ही। इस वजह से हमेशा शोरगुल मचा रहता है, ये काटी वो काटी...। और जब तक ये आवाजें कान में न पड़ें लोगों का खाना हजम नहीं होता। पतंग कैसी भी हो पर मांझा दमदार होना चाहिए। इसलिए ऐसे-ऐसे मांझे बाजार में आने लगे थे कि कइयों की गर्दन तक उड़ गयीं। उसकी धार के आगे चाकू, छुरी और ब्लेड तक फेल हो गये।

खैर, हमें तो बहुत बाद पता चला चाइनीज व्यापार बुद्धि का। जब तक पता चला बहुत-सा माल चीन की जेब में जा चुका था। परंतु पड़ोसी से चीन की दोस्ती एक मिसाल है। दोनों दोस्ती का फर्ज अदा कर रहे हैं। उसने अपने जिगरी यार को गधों की क्वालिटी बता दी है। परिणामस्वरूप गधों के फार्महाउस डेवलेप करने की सलाह दे दी है। और तो और खुद डेवलेप कर देने का वादा भी किया है। अब अंधा क्या चाहे दो आंखें! भले ही आंखें चीनी मिट्टी की ही क्यों न हों।

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