विश्वनाथ सचदेव
था कोई ज़माना जब देश में पांच साल में एक बार चुनाव होते थे, आज ऐसा लग रहा है जैसे हम सारा साल चुनावों में ही जीते हैं। एक चुनाव खत्म होता नहीं कि दूसरा हमारे सामने आ जाता है। वैसे जनतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव नागरिक के अधिकारों और उसकी ताकत की घोषणा होते हैं। आज़ादी प्राप्त करने के तत्काल बाद हमने चुनावों की तुलना राजसूय यज्ञ से की थी और हमारे हाथ का वोट तुलसी-दल जैसा पवित्र माना गया था। पिछले लगभग 75 सालों में यह तुलसी-दल और महायज्ञ वाली परिकल्पना कब और कैसे हमारे हाथों से फिसल गयी, पता ही नहीं चला।
आज चुनाव हमारी घटिया राजनीति का उदाहरण बने हुए हैं। इन दिनों इस घटिया राजनीति का मैदान ‘आमार सोनार बांग्ला’ बना हुआ है। अक्सर ऐसा नहीं होता, पर इस बार कुछ जल्दी ही बंगाल में चुनावों का शोर शुरू हो गया है। बहुत कर्कश है, यह शोर। ‘मेरा चेहरा तेरे चेहरे से उजला है’ सिद्ध करने की एक अंधी दौड़ चल रही है और इस दौड़ में जीत के लिए हर चीज़ जायज़ मान ली गयी है।
ऐसी ही एक प्रवृत्ति ‘महापुरुषों को हथियाने’ की होड़ में दिख रही है। स्वामी विवेकानंद, रवींद्र नाथ ठाकुर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, सुभाष चंद्र बोस जैसी विभूतियों के साथ स्वयं को जोड़कर अपना कद ऊंचा दिखाने का एक खेल चल रहा है। देश का गृहमंत्री चुनाव-प्रचार के लिए बंगाल जाता है तो विश्व कवि के शांति-निकेतन में पहले जाना उन्हें ज़रूरी लगता है; स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा पर फूल चढ़ाना अचानक सब नेताओं को याद आने लगा है; सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गयी है। हमारे राजनेताओं की कोशिश यह रहती है कि देश के महापुरुषों को अपना महापुरुष बताकर अपना वजन बढ़ाया जाये।
स्वामी विवेकानंद का ही उदाहरण लें। देश ने पिछले दिनों उनकी जयंती मनाई। यह एक अवसर था उन्हें याद करके पुष्पांजलि अर्पित करने का, उनके आदर्शों-मूल्यों के अनुसार स्वयं को ढालने की कोशिश का संकल्प लेने का। पर उनकी जयंती पर ही यदि किसी राजनेता को लगा हो कि उनकी मूर्ति पर फूल चढ़ाना ज़रूरी है तो इसे आदर और श्रद्धा की अभिव्यक्ति मात्र नहीं माना जा सकता-विशेषकर बंगाल में जो समय से कुछ पहले ही चुनावी शोर से घिरने लगा है।
राजनेताओं के लिए स्वामी विवेकानंद की जयंती भले ही राजनीतिक लाभ उठाने का एक अवसर रही हो, पर हम सब भारतीयों के लिए यह अवसर उस महापुरुष को याद करने का था, जिसने दुनिया को असली भारत का परिचय दिया था, जिसने मनुष्यता को सबसे बड़ा धर्म बताया था। उन्होंने कहा था, ‘मुझे मनुष्यत्व दो मां, मुझे मनुष्य बना दो।’
स्वामी विवेकानंद की कल्पना का यह मनुष्य धर्मों, जातियों, वर्गों, वर्णों की सीमाओं में बंधने वाला नहीं था। जहां तक धर्म का सवाल है, उन्होंने कहा था, ‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति की शिक्षा दी थी। हम सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।’
ऐसे सद्विचार का प्रचार-प्रसार करने वाले महापुरुष को जब हम किसी धर्म-विशेष की सीमाओं में बांधने की कोशिश करते हैं, या उसका नाम लेकर अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के इरादे पूरे करना चाहते हैं तो हम उस महापुरुष को नमन नहीं कर रहे होते, उसका अपमान कर रहे होते हैं। हम यह भी याद नहीं रखना चाहते कि सब धर्मों को सच्चा मानने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता को कैसे स्वीकार कर सकता है। एक तरफ हमारे राजनेता उनकी मूर्तियों पर फूल चढ़ाते हैं और दूसरी ओर बड़ी निर्लज्जता से साम्प्रदायिकता ध्रुवीकरण से चुनावी लाभ प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
‘उठो, जागो और प्राप्त करो’ का संदेश देने वाले महापुरुष की जयंती का यह अवसर हमारे राजनेताओं, और हम सबके लिए भी, आत्मान्वेषण का अवसर होना चाहिए। हमें देखना होगा कि जिस महापुरुष को हम आराध्य मानते हैं, उसके कहे-किये को हम कितना समझते-स्वीकारते हैं। स्वामी विवेकानंद ने हमें भविष्य के भारत का एक सपना दिया था। उनका मानना था कि हमारे पास एक पवित्र परंपरा है, हमारा धर्म है। उन्होंने कहा था, ‘भारत के भावी संगठन की पहली शर्त एक धार्मिक एकता की आवश्यकता है। देशभर में एक ही धर्म सबको स्वीकारना होगा।’ लेकिन उनका यह ‘एक ही धर्म’ वह धर्म नहीं है, जिस पर गर्व करने के नारे लगाये जाते हैं। ‘भारत का भविष्य’ नामक अपने निबंध में उन्होंने लिखा है, ‘हमारे विभिन्न संप्रदायों के सिद्धांत और दावे भले ही कितने ही विभिन्न क्यों न हों, हमारे संप्रदायों में कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं, जिनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भुत विविधता की गुंजाइश हो जाती है। इसी विविधता को रेखांकित करते हुए उन्होंने हमें जातियों, वर्णों, वर्गों से ऊपर उठने का संदेश दिया था। उन्होंने हमें यह भी बताया था कि जिन आराधयों को हम देख नहीं पाते हैं, उनके पीछे तो हम दौड़ते हैं, लेकिन जिस ‘विराट देवता’ को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उस प्रत्यक्ष देवता की पूजा करना हमें याद ही नहीं रहता। स्वामीजी का यह ‘प्रत्यक्ष देवता’ इस देश का नागरिक है। उनका यह भी कहना था कि इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा करके ही हम अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने योग्य होंगे।
स्वामीजी का यह प्रत्यक्ष देवता हिंदू, मुस्लिम सिख या ईसाई नहीं था, न वह किसी कथित ऊंची जाति का था, न कथित नीची जाति का। वह भारतीय था—एक मनुष्य था। इतने स्पष्ट शब्दों में मनुष्य को ईश्वर बताने का यह साहस एक संन्यासी योद्धा ही कर सकता था। आज उस योद्धा की बात को समझने की कोशिश करने का अवसर है। आज यह समझने का अवसर है कि मनुष्यता को धर्मों-जातियों में बांट कर हम मनुष्य मात्र को अपमानित कर रहे हैं।
आज स्वामी विवेकानंद के बंगाल में वोटों की राजनीति करने वाले ध्रुवीकरण के नाम पर समाज को बांटने में लगे हैं। स्वामीजी के विचारों को समझ-स्वीकार करके ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। यह बात सिर्फ राजनेताओं को नहीं, हम सबको समझनी होगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।