अनूप भटनागर
उच्चतम न्यायालय की कवायद के बावजूद देश की राजनीति से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को बाहर रखने के प्रयासों में बहुत अधिक सफलता नहीं मिल रही है। माननीयों से संबंधित मुकदमों के तेजी से निपटारे के लिये विशेष अदालतें बन गयीं लेकिन इन नेताओं से संबंधित मुकदमों की सुनवाई न्यायालय द्वारा निर्धारित एक साल की अवधि के भीतर पूरी नहीं हो पा रही है।
दरअसल, दागी नेताओं के खिलाफ लंबित मुकदमों में जांच एजेंसियों द्वारा तत्परता से जांच पूरी करके आरोप-पत्र समय से दाखिल नहीं किये जाते। इसकी वजह से अभियोग समय पर निर्धारित नहीं हो पाते। कई मामलों में ऊपरी अदालत के स्थगन आदेश आ जाते हैं। यही संकेत सवाल पैदा कर रहे हैं कि क्या देश की राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त हो पायेगी?
अगर केन्द्र, राज्य सरकारें तथा राजनीतिक दल वास्तव में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपराधीकरण से मुक्त कराना चाहते हैं तो उन्हें मिलकर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। शीर्ष अदालत के सख्त रुख के बाद केन्द्र की मोदी सरकार ने सांसदों और विधायकों से संबंधित आपराधिक मामलों की तेजी से सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए 12 विशेष अदालतें गठित की थीं, लेकिन ये संख्या पर्याप्त नहीं हैं। मौजूदा और पूर्व सांसद-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने के निर्देश पर अमल के लिए न्याय मित्र ने प्रत्येक जिले में विशेष अदालत बनाने का सुझाव दिया है। बताते हैं कि इलाहाबाद में स्थित ऐसी एक विशेष अदालत के पास 12 जिलों के ऐसे मुकदमे हैं।
शीर्ष अदालत को दी गयी जानकारी के अनुसार इस समय वर्तमान और पूर्व सांसदों-विधायकों के खिलाफ देश की तमाम अदालतों में लंबित 4,442 आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। इनमें से कम से कम 2,556 मुकदमे तो मौजूदा माननीयों से संबंधित हैं।
उच्चतम न्यायालय ने 16वीं लोकसभा के लिए चुनाव से ठीक पहले 10 मार्च, 2014 को एक आदेश में कहा था कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (1) से धारा 8 (3) के दायरे में आने वाले अपराधों के लिए मुकदमों का सामना कर रहे सांसदों-विधायकों की संलिप्तता वाले मुकदमों की सुनवाई, जिनमें अभियोग निर्धारित हो चुके हैं, एक साल के भीतर पूरी की जाये। ऐसा नहीं होने पर संबंधित अदालत को उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखित में स्पष्टीकरण देना होगा। आदेश के बाद केन्द्र सरकार ने शुरू में ढुलमुल रवैया अपनाया लेकिन न्यायालय का कड़ा रुख देखते हुये अंतत: उसने ऐसी 12 विशेष अदालतें गठित करने के निर्णय से शीर्ष अदालत को अवगत कराया था। इन विशेष अदालतों ने एक मार्च, 2018 से काम शुरू किया। हालांकि, विशेष अदालतों की इतनी कम संख्या से न्यायालय संतुष्ट नहीं था।
न्यायालय ने केन्द्र से कहा था कि प्रत्येक जिले में एक सत्र अदालत और एक मजिस्ट्रेट अदालत नामित करने की बजाय उच्च न्यायालय इन माननीयों की संलिप्तता वाले आपराधिक मामलों को जरूरत के मुताबिक इन अदालतों को सौंप सकती है। लेकिन न्याय मित्र विजय हंसारिया ने अब शीर्ष अदालत को सुझाव दिया है कि सांसदों-विधायकों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए प्रत्येक जिले में विशेष अदालतें स्थापित की जायें और उच्च न्यायालय इनके मुकदमों की प्रगति की निगरानी करे।
न्यायालय में सुझाव दिया गया है कि विशेष अदालतों को मौत या उम्रकैद की सजा वाले अपराधों के मुकदमों को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसके बाद सात साल या इससे अधिक की सजा के दंडनीय अपराध के मुकदमों और दूसरे मुकदमों की सुनवाई करनी चाहिए। न्यायालय को बताया गया है कि 413 ऐसे आपराधिक मामले हैं, जिनमें अपराध सिद्ध होने पर उम्रकैद की सजा हो सकती है। इनमें से 174 मामलों में वर्तमान सांसद-विधायक आरोपी हैं।
माननीयों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988, धन शोधन रोकथाम कानून, 2002, शस्त्र कानून, 1959, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून, 1984 के तहत अपराधों के साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के अंतर्गत मानहानि के मामले भी हैं। इस बीच, भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके चुनाव लड़ने के अयोग्य नेताओं, सांसदों-विधायकों और पूर्व सांसदों-विधायकों को राजनीतिक दल बनाने या उसका पदाधिकारी बनने से वंचित करने का मुद्दा उठाया है। हालांकि, दिसंबर, 2017 में संविधान पीठ ने इस पर विचार करने से इंकार करते हुये सवाल किया था कि अदालतें किस सीमा तक जा सकती हैं? सरकार और संसद को इस पर गौर करने दीजिये।
बहरहाल, माननीयों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों में आरोप पत्र दायर करने और अभियोग निर्धारित करने जैसी प्रक्रिया लंबे समय तक पूरी नहीं होने का ही नतीजा है कि आपराधिक मामला लंबित होने की हलफनामे में घोषणा करके ऐसे नेतागण चुनाव में अपनी किस्मत आजमाते हैं और जीत कर सांसद-विधायक भी बन जाते हैं। इस समस्या से निपटने और राजनीति को अपराधीकरण से रोकने के प्रयासों में पुलिस और अभियोजन की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि पुलिस बगैर किसी दबाव के नेताओं की संलिप्तता वाले मामलों की जांच तेजी से करेगी ताकि ऐसे मुकदमों की सुनवाई निर्धारित समय में पूरी हो सके।