अनूप भटनागर
उच्चतम न्यायालय ने धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने के लिये दायर याचिका पर भले ही विचार करने से इनकार कर दिया है लेकिन उसकी इस कार्यवाही ने कई सवालों को जन्म दिया है। हालांकि, विभिन्न परिस्थितियों में खुद देश की शीर्ष अदालत ने समय-समय पर धर्मान्तरण पर अंकुश लगाने के लिये उचित कानून बनाने की हिमायत की है। देश के कई राज्यों में पहले से ही धर्मान्तरण रोकने के लिये उचित कानून हैं। इन राज्यों में पहले दलित और समाज के उपेक्षित तबके के लोगों का कथित रूप से धर्म परिवर्तन कराने के लिये मिशनरियों पर आरोप लग रहे थे लेकिन वर्तमान समय में मिशनरियों के स्थान पर ‘लव जिहाद’ की चर्चा है।
कुछ घटनाओं के मद्देनजर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक सरकार ने विवाह के लिये धर्मान्तरण पर अंकुश के लिये कानून बनाया है। न्यायपालिका ने पहली पत्नी को तलाक दिये बगैर विवाह के लिये धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म कबूल करने की घटनाओं के मद्देनजर महिलाओं के हितों की रक्षा और इस काम के लिये धर्म का दुरुपयोग रोकने के लिये मई, 1995 में शीला बर्से प्रकरण में धर्मान्तरण कानून बनाने की संभावना तलाशने का सुझाव दिया था लेकिन 25 साल से भी ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में धर्म स्वतंत्रता धर्मान्तरण निरोधक नाम से कानून हैं। इन कानूनों में जबरन अथवा बहला फुसलाकर या धोखे से धर्म परिवर्तन कराना निषेध और दंडनीय अपराध है। इन कानूनों में नाबालिग महिला या अनुसूचित जाति-जनजातियों के सदस्यों से संबंधित मामलों में ज्यादा सजा का प्रावधान है लेकिन कुल मिलाकर इन राज्यों में एक साल से लेकर पांच साल तक की कैद और 50 हजार रुपये तक के जुर्माने की सजा का प्रावधान है। ऐसी स्थिति में भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर न्यायमूर्ति आर. एफ. रोहिंग्टन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ द्वारा विचार करने से इनकार करना विस्मित करता है। पीठ ने इस याचिका को पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटीगेशंस की संज्ञा दी और चेतावनी दी कि इस तरह की याचिका दायर करने पर तगड़ा जुर्माना लगाया जा सकता है। उपाध्याय ने हालांकि न्यायालय का सख्त रुख देख अपनी याचिका वापस ले ली।
पीठ ने सवाल किया कि आखिर 18 साल से अधिक उम्र का कोई व्यक्ति धर्म का चयन क्यों नहीं कर सकता। न्यायालय ने कहा कि हमारे संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत सभी धर्मों को प्रचार-प्रसार करने का अधिकार मिला हुआ है और अगर जबरन धर्मान्तरण हो रहा है तो इस पर अंकुश के लिये किसने सरकार को कानून बनाने से रोका है। भाजपा नेता ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि देश में धर्म परिवर्तन के लिए साम, दाम, दंड, भय और भेद का इस्तेमाल हो रहा है। छद्म नाम से विवाह के बाद लड़कियों को धर्म परिवर्तन के लिये बाध्य किया जा रहा है। इस तरह से अवैध धर्मान्तरण से संविधान के अनुच्छेद-14, 21 और 25 का उल्लंघन हो रहा है। याचिकाकर्ता चाहता था कि न्यायालय केन्द्र सरकार को इस संबंध में उचित कानून बनाने का निर्देश दे। इस संबंध में उन्होंने 1995 के शीर्ष अदालत के एक फैसले का हवाला भी दिया।
उपाध्याय का कहना है कि 1995 में शीर्ष अदालत ने धर्म का दुरुपयोग रोकने के लिये धर्मान्तरण कानून बनाने की संभावना तलाशने के लिये सरकार से कहा था। चूंकि केन्द्र की ओर से अभी तक इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये हैं, इसलिए शीर्ष अदालत को कम से कम केन्द्र से इस बारे मे उचित जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे यहां धर्मान्तरण पर अंकुश लगाना एक गंभीर समस्या है। अक्सर यह देखा गया है कि दलित और उपेक्षित समुदाय के सदस्य हिन्दू समाज में व्याप्त जाति और वर्ण व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए दूसरा धर्म स्वीकार कर लेते हैं। दूसरी ओर, कुछ हिन्दू संगठन ऐसे परिवारों को वापस समाज में लाने के लिये तरह-तरह के तरीके अपनाते हैं।
धर्मान्तरण की समस्या पर अंकुश पाने के लिये हालांकि पिछले 70 साल से कानून बनाने की चर्चा होती रही है। धर्मान्तरण निरोधक कानून बनाने के कई बार असफल प्रयास हुए हैं। इस तरह का पहला प्रयास 1954 में हुआ था। लोकसभा में भारतीय धर्मान्तरण विनियमन एवं पंजीकरण विधेयक पेश किया गया था लेकिन बहुमत के अभाव में यह सदन में पारित नहीं हो सका । इसके बाद, 1960 और 1979 में भी ऐसे प्रयास हुए थे। बेहतर होगा कि जबरन या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन कराने की घटनाओं पर अंकुश पाने के लिये समाज के भीतर ही सुधारात्मक कदम उठाये जायें। यह सुनिश्चित किया जाये कि धर्मान्तरण का मार्ग चुनने वाले वर्ग के सदस्यों के साथ भेदभाव खत्म किया जाये और उनके साथ समता का व्यवहार होगा। इसके लिये हमें अपनी सोच में बदलाव करना होगा।