दक्षिण पश्चिमी मॉनसून आम तौर पर सितंबर के उत्तरार्द्ध में अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगता है लेकिन इस बार उसने ऐसा नहीं किया। लगभग पूरा महीना गुजर जाने के बाद मॉनसून की उपस्थिति बनी हुई है। पिछले हफ्ते उत्तरी राज्यों में कहीं भारी और कहीं मूसलाधार बारिश ने जनजीवन को हिला कर रख दिया है। इस साल मॉनसून की अनियमित चाल के बावजूद देश के कई हिस्सों को अतिवृष्टि का शिकार होना पड़ा है। भारत की सिलिकॉन वैली समझे जाने वाले बेंगलुरु शहर में ट्रैक्टर चले और गुरुग्राम में लोगों को घरों से काम करने का आग्रह किया गया। इस बार बादल फटने की घटनाएं भी हुईं जिनसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर में भारी तबाही हुई। पिछले साल भी बादल फटने से उत्तरी राज्यों में काफी नुकसान हुआ था।
भारत में मानसून के दौरान कम अवधि में भारी वर्षा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के रिसर्चरों द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत में पिछले 50 वर्षों के दौरान कम अवधि में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। अध्ययन के अनुसार एक ही मौसम स्टेशन द्वारा रिकार्ड की जाने वाली 24 घंटे की भारी बारिश में पिछले कुछ वर्षों के दौरान चौंकाने वाली वृद्धि हुई है। अध्ययन में शामिल किए गए 165 मौसम स्टेशनों में अधिकांश में 1980 के बाद वर्षा की अधिक तीव्रता रिकार्ड की गई है। कुछ मामलों में तो तीव्रता में 40 से 370 प्रतिशत तक की वृद्धि रिकार्ड की गई है।
दरअसल, नदियों और पहाड़ों के जाल में जकड़ा हुआ हिमालय क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से कमजोर और अस्थिर है। यहां प्राकृतिक आपदाओं का खतरा हमेशा बना रहता है। कभी बाढ़ तो कभी भूस्खलन और कभी अचानक बादल का फटना। इन आकस्मिक मौसमीय घटनाओं से स्थानीय लोगों का जीवन हमेशा संकट में रहता है। हिमालय क्षेत्र में बादल फटने की घटनाएं सामान्य तौर पर जुलाई और अगस्त में होती हैं। बादल फटने की घटनाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि एक गहरी चिंता का विषय है। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा हो रहा है। हालांकि यह एक जटिल विज्ञान है और इस विषय पर समुचित प्रमाण जुटाए जाने बाकी हैं।
आखिर बादल का फटना किसे कहते हैं और इससे इतना नुकसान क्यों होता है? पहले लोग समझते थे कि बादल पानी से भरा गुब्बारा है जिसके फटने से पानी धड़ाधड़ नीचे गिरने लगता है। इसी वजह से इस तरह की आकस्मिक वर्षा को ‘बादल का फटना’ अथवा ‘क्लाउडबर्स्ट’ कहा जाने लगा। बादल फटना दरअसल भारी वर्षा का एक रूप है। इसका स्वरूप स्थानीय होता है। इसमें बहुत छोटे से क्षेत्र में बहुत तेज रफ्तार से बारिश होती है। यह क्षेत्र 20 -30 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं होता और बारिश की रफ्तार एक घंटे में 100 मिलीमीटर के स्तर पर पहुंच सकती है। बादल फटने की घटनाएं ज्यादातर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में होती हैं। भारत में मानसून की सक्रियता के दौरान हिमालय क्षेत्र,उत्तर-पूर्वी राज्यों और पश्चिमी घाट में बादल फटने की घटनाओं का खतरा बना रहता है। ऐसी घटना मैदानी इलाकों में भी हो सकती हैं लेकिन वहां इसकी संभावना कम रहती है।
पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक एन.आर. देशपांडे के मुताबिक, दो घंटे की अवधि में 50 मिलीमीटर या उससे अधिक वर्षा को लघु क्लाउडबर्स्ट माना जा सकता है। उनकी रिसर्च के अनुसार पश्चिमी तट, मध्य भारत और हिमालय की घाटियों में बादल फटने की कई घटनाएं हो चुकी हैं।
पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में सीधी ढलान वाले पर्वतों के कारण मानसून के बादल एकदम तेजी से ऊपर उठ जाते हैं। सीधे ऊपर उठते हुए बादल घने हो जाते हैं और विराट ऊंचाई ग्रहण कर लेते हैं। जमीन के ऊपर इनकी ऊंचाई 15 किलोमीटर तक पहुंच सकती है। इन दैत्याकार बादलों को को ‘क्युमुलोनिम्बस’ बादल कहा जाता है। समझा जाता है कि हिमालय क्षेत्र में तेजी से ऊपर उठने वाले बादलों के साथ नमी वाली मिट्टी भी होती है। यह मिट्टी नमी का अतिरिक्त स्रोत होने के कारण संभवतः बादल फटने की प्रक्रिया में मदद करती है। इस तरह की वर्षा की एक खास बात यह है कि इसमें पानी की बूंदें आपस में जुड़ कर बड़ी बूंदों में तब्दील हो जाती है। ये बूंदें ज्यादा तेजी से नीचे गिरती है। तेजी से गिरने वाला पानी स्थानीय पैमाने पर जबरदस्त बाढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देता है। पहाड़ों की विशिष्ट भौगोलिक बनावट के कारण यह बाढ़ ज्यादा विकराल हो कर भारी तबाही का कारण बनती है।
जलवायु माॅडल में कुछ अनिश्चितताएं हो सकती हैं लेकिन चरम वृष्टि की घटनाओं का संबंध दुनिया में तापमान वृद्धि के साथ भी हो सकता है। सतह का तापमान बढ़ने से संभवतः वाष्पीकरण बढ़ रहा है। इससे वायुमंडल की नमी को संभालने की क्षमता में वृद्धि हो सकती है। यह भी चरम वृष्टि का एक कारण हो सकता है। समुद्र तेजी से गर्म हो रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप नमी से भरपूर हवा हिमालय क्षेत्र में पहुंच रही है। इससे बादल फटने की संभावना बनती है। हिंद महासागर क्षेत्र से आने वाली नमी में वृद्धि होने से बादल फटने की घटनाएं भी बढ़ सकती हैं। हिमालय क्षेत्र में तापमान वृद्धि का बादल फटने से क्या संबंध है, यह अभी गहरे शोध का विषय है। फिर भी हिंद महासागर का बढ़ता हुआ तापमान जलवायु परिवर्तन का द्योतक है।
बादल फटने के दौरान वर्षा इतनी आकस्मिक और अप्रत्याशित होती है कि इनका पूर्वानुमान लगाना मौसम वैज्ञानिकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ से करीब 5000 लोगों की मौत के बाद डोप्लर रेडार जैसी बेहतर चेतावनी प्रणाली स्थापित करने की मांग उठी। गढ़वाल जैसे क्षेत्रों में यह रेडार अभी तक स्थापित नहीं हुआ है जहां बादल फटने की घटनाएं आम हैं। भारतीय मौसम विभाग और उत्तराखंड सरकार ने पिछले साल कुमायूं के मुक्तेश्वर में अतिवृष्टि और बादल फटने की घटनाओं की पूर्व चेतावनी के लिए एक डोप्लर रेडार स्थापित किया था। बादल फटने की संभावित घटनाओं की ट्रैकिंग के लिए यह रेडार आदर्श है बशर्ते उस क्षेत्र में वायु का दबाव और नमी नापने वाला समुचित नेटवर्क हो। इस वक्त जो रेडार स्थापित किए गए हैं वे गढ़वाल क्षेत्र से 200-300 किलोमीटर दूर हैं जिसकी वजह से वहां बादल फटने की घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना मुश्किल होता है। बादल फटने की घटनाओं के पूर्वानुमान के लिए पुणे स्थित मौसम विज्ञान संस्थान में बादलों की भौतिकी के अध्ययन के लिए एक रेडार पर रिसर्च हुई है। रिसर्चरों का दावा है कि इस चलते-फिरते रेडार से वर्षा की बूंदों का आकार नापा जा सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।