मुकुल व्यास
माॅनसून हमारी लाइफलाइन है। दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी की खाद्य सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक खुशहाली इस मॉनसून की कृपा पर निर्भर है। यदि हम इतिहास को पलट कर देखें तो हमें यह समझने में देर नहीं लगेगी कि मॉनसून की वर्षा में वृद्धि या कमी ने अक्सर भारतीय उप-महाद्वीप में सभ्यताओं के उदय और पतन को प्रभावित किया है। मॉनसून की बेरुखी से राजाओं के सिंहासन डोल गए और वर्षा की कमी से आज की सरकारों के भी पसीने छूट जाते हैं। अब पृथ्वी के बढ़ते तापमान से भारतीय मॉनसून सिस्टम के स्थायित्व को खतरा पैदा हो गया है। ग्लोबल वार्मिंग का असर पूरी दुनिया के मौसम पर पड़ रहा है। कहीं बहुत ज्यादा बारिश हो रही है तो कहीं सूखा पड़ रहा है। समुद्री चक्रवातों के प्रकोप में वृद्धि हो रही है। पिछले कुछ समय से हम भारत में भी मौसम की अनियमितता के प्रभावों का अनुभव कर रहे हैं।
हाल के दशकों में वर्षा की अवधियों की तीव्रता में वृद्धि हुई है। जलवायु मॉडलों से पता चलता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस सदी के अंत तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की उच्च दर बने रहने पर मॉनसून की वर्षा में 14 प्रतिशत की वृद्धि होगी। यदि उत्सर्जन की दर माध्यमिक स्तर पर बनी रही तो मॉनसून की वर्षा 10 प्रतिशत बढ़ सकती है। फिर भी विश्व में तापमान बढ़ने से मॉनसून पर क्या असर पड़ेगा, इसका पूर्वानुमान लगाना कठिन है। यह एक गहन रिसर्च का विषय है। भारतीय उप-महाद्वीप में जलवायु के बारे में दीर्घकालीन डेटा उपलब्ध नहीं होने से रिसर्चरों को इस दिशा में आगे बढ़ने में कठिनाई हो रही है।
अब जर्मनी के रिसर्च संस्थानों के वैज्ञानिकों ने पिछले 130000 वर्षों में भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून की वर्षा के पैटर्न को पुनर्निर्मित करके जलवायु पूर्वानुमानों को सुदृढ़ करने की कोशिश की है। उनके अध्ययन में पहली बार यह बात सामने आई कि अतीत में भूमध्य और उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में समुद्री सतह पर निरंतर उच्च तापमान रहने से भारतीय मॉनसून कमजोर पड़ गया था। यह इस बात का संकेत है कि आधुनिक समय में समुद्री तापमान बढ़ने से सूखे और अकाल की स्थितियों में वृद्धि होगी। अतीत में तापमान आज की तुलना में अधिक गर्म था। अक्सर यह माना जाता है कि सूरज का विकिरण भारतीय मॉनसून की तीव्रता को प्रभावित करता है। सौर विकिरण के उच्च स्तर से नमी और हवा के प्रवाह में वृद्धि होती है जिससे अंततः वर्षा की परिस्थितियां पैदा होती हैं। अतः अतीत में सौर विकिरण के उच्च स्तर से मॉनसून की तीव्रता बढ़नी चाहिए थी लेकिन अतीत के जलवायु डेटा से इस प्रभाव की पुष्टि नहीं हो पाई।
अतीत में भारतीय मॉनसून के पैटर्न को पुनर्निर्मित करने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी बंगाल की खाड़ी से तलछट के एक दस मीटर लंबे टुकड़े को चुना और इसमें संरक्षित ‘लीफ वैक्स बायोमार्करों’ में हाइड्रोजन और कार्बन के आइसोटोप्स का विश्लेषण किया। वैज्ञानिक लीफ वैक्स अथवा पौधों की मोम का प्रयोग अतीत की जलवायु को पुनर्निर्मित करने के लिए करते हैं। इस विश्लेषण के आधार पर रिसर्चर पृथ्वी की पिछली दो गर्म जलवायु अवधियों में वर्षा के पैटर्न में परिवर्तनों का पता लगाने में सफल रहे। गर्म जलवायु का पिछला अंतराल 130000-115000 वर्ष पहले हुआ। वर्तमान गर्म अवधि की शुरुआत 11600 वर्ष पहले हुई। रिसर्चरों द्वारा किए गए विश्लेषण में सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि अतीत में सौर विकिरण के उच्च स्तर पर होने के बावजूद भारतीय मॉनसून की तीव्रता वर्तमान अवधि की तुलना में कम थी। इससे इस धारणा पर सवाल उठता है कि सिर्फ सूरज का विकिरण ही मॉनसून की तीव्रता को प्रभावित करता है।
गर्म जलवायु की अवधियों में मॉनसून की वर्षा के असली कारक को पहचानने के लिए रिसर्चरों ने अतीत में हिंद महासागर के समुद्री सतह के तापमान की उपलब्ध पुनर्रचनाओं की तुलना की। उन्होंने पाया कि अतीत में भूमध्य और उष्णकटिबंधीय क्षेत्र वर्तमान अवधि की तुलना में 1.5-2.5 सेल्सियस अधिक गर्म थे। इसके अलावा रिसर्चरों ने प्राचीन जलवायु के मॉडलों के आधार पर यह भी बताया कि अतीत में जब हिंद महासागर की सतह का तापमान बढ़ा,जमीन पर वर्षा कम हुई लेकिन बंगाल की खाड़ी में अधिक वर्षा हुई। जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर द ऑफ़ ह्यूमन हिस्टरी के पुरा-जलवायु वैज्ञानिक डॉ. इमिंग वांग ने इस अध्ययन का नेतृत्व किया है। वांग का मानना है कि उनकी रिसर्च से एक बात साफ हो गई है कि दक्षिण एशिया में भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून की परिवर्तनशीलता तय करने में समुद्री सतह के तापमान की बहुत बड़ी भूमिका होती है। वांग के अनुसार अतीत में हिंदमहासागर में सतह के उच्च तापमान ने भारतीय मॉनसून की तीव्रता को कमजोर किया होगा। रिसर्च टीम के नतीजों से संकेत मिलता है कि समुद्री सतह का तापमान बढ़ने से भारतीय मॉनसून की विफलताओं में वृद्धि हो सकती है। हाइड्रोलॉजिकल साइकिल अथवा जल चक्र में परिवर्तनों से न सिर्फ कृषि भूमि पर असर पड़ता है बल्कि कुदरती इकोसिस्टम भी प्रभावित होते हैं। इन सबका असर अरबों लोगों की रोजी-रोटी पर पड़ता है। अतः हमें मॉनसून की वर्षा को नियंत्रित करने वाली कार्य प्रणाली के बारे में अपनी समझदारी में सुधार करना पड़ेगा ताकि बाढ़ और सूखे जैसी मौसम की विषमताओं का बेहतर ढंग से पूर्वानुमान लगाया जा सके और ऐसी परिस्थितियों को झेलने के उपाय खोजे जा सकें। इस संदर्भ में मॉनसून के बारे में नया अध्ययन बहुत उपयोगी हो सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।