
डॉ. वीरेंद्र सिंह लाठर
डॉ. वीरेंद्र सिंह लाठर
भारत में लगभग 15 करोड़ कृषक परिवार 40 करोड़ एकड़ कृषि भूमि पर खेती करते हैं जो अमेरिका के बाद (लगभग 20 लाख कृषक 90 करोड़ एकड़ भूमि), दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी कृषि जोत मानी जाती है। जहां अमेरिका, कनाडा, यूरोप के देशों के बीज बाजार पर मात्र एक दर्जन बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियों ने पूर्णतया एकाधिकार जमाया हुआ है वहीं दूसरी ओर भारत में किसान 80-85 प्रतिशत बीज अपने खेत में तैयार किया हुआ इस्तेमाल करते हैं। बाकी बीज में भी मक्की फसल को छोड़कर बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियों की हिस्सेदारी नगण्य रही है। क्योंकि भारत के बीज उद्योग में प्रमाणित लेबल वाले बीज की हिस्सेदारी लगभग 95 प्रतिशत है। यह सस्ते भाव वाले बीज किसानों, स्थानीय निजी बीज कंपनियों व सरकारी संस्थानों द्वारा उत्पादित बीज की श्रेणी है। जिस कारण से बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियां भारतीय बीज बाजार पर एकाधिकार जमाने में आज तक पूर्णतया विफल रही हैं!
लेकिन अब बहुराष्ट्रीय बीज कम्पनियां जीएम फसल प्रौद्योगिकी द्वारा बीज उद्योग पर एकाधिकार थोपकर किसानों के शोषण का गंभीर षड्यंत्र रच रही हैं। जीएम सरसों प्रौद्योगिकी की अनुमति के बहाने, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जल्दी ही धान, गेहूं, अरहर, मूंग, मसूर आदि सभी स्वपरागण फसलों के जीएम संकर बीज बाजार में बिक्री के लिए लायेंगी। फिर किसानों द्वारा प्रयोग किये जा रहे परंपरागत बीजों को खत्म करके बीटी कपास बीज बाजार जैसा एकाधिकार बनायेंगी! जिसमें किसानों को हर साल कम्पनियों से जीएम फसलों का महंगा बीज खरीदना होगा! अभी तो किसान सरसों, धान, गेहूं, चना, मूंग आदि स्वपरागकण फसलों का अपने घर पर बनाया बीज प्रयोग करके बीज कम्पनियों के शोषणकारी कुचक्र से बचे हुए हैं! लेकिन महंगे जीएम संकर बीज आने पर, तब बीटी कपास के किसानों की तरह, बाकी किसान भी आत्महत्या को मजबूर होंगे क्योंकि तब खेती पर बुआई से लेकर मंडी में बिकने तक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का शोषणकारी कब्जा होगा। देश के 500 से ज्यादा राष्ट्रीय और प्रादेशिक कृषि अनुसंधान संस्थान व विश्वविद्यालय, इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने नतमस्तक होकर किसानों की कोई मदद नहीं कर पायेंगे जैसा कि बीटी कपास मामले हुआ है। क्योंकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एकाधिकार जीएम प्रौद्योगिकी अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट कानून के अंतर्गत सुरक्षित होती है! जिसे बिना भारी-भरकम रॉयल्टी दिये भारतीय संस्थान प्रयोग नहीं कर सकेंगे।
भारत में किसान व पर्यावरण संरक्षण संगठनों के विरोध के बावजूद, जीएम प्रौद्योगिकी की अनुमति सरसों की पैदावार दुगनी करने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के नाम पर दी गयी है। जो कि वैज्ञानिक तथ्यों के विपरीत है क्योंकि वर्ष 1996 में जीएम प्रौद्योगिकी आने से लेकर आज तक किये गए अनुसंधानों में जीएम फसलों की पैदावार में बढ़ोतरी मात्र 6-22 प्रतिशत दर्ज हुई है। जो कि जीएम फसलों में कीट व खतपतवारों से कम नुकसान होने की वजह से मिली है न कि महंगे संकर बीज की ज्यादा पैदावार से।
ज्ञात रहे कि किसानों ने पर-परागण फसलों मक्की, बाजरा, ज्वार, सूरजमुखी, सब्जियों आदि के महंगे संकर बीजों को इसलिए अपनाया, क्योंकि इन संकर बीजों की पैदावार में बढ़ोतरी 100-500 प्रतिशत तक मिलती है! लेकिन प्रतिवर्ष खरीदे जाने वाले व औसत 10 प्रतिशत से कम पैदावार बढ़ोतरी वाले महंगे जीएम-एचटी या जीएम-आरआर संकर बीज किसान का शोषण ही करेंगे, जिसके लिए सरकार और किसान, दोनों को सावधान रहने की ज़रूरत है!
वैसे भी स्वपरागण फसलों सरसों व धान आदि की संकर किस्मों के बीज, पिछले एक दशक से भारत में उपलब्ध हैं। जिनकी पैदावार ज्यादा नहीं होने से किसानों ने इन्हें नहीं अपनाया। देश के कुल धान क्षेत्र का मात्र 8 प्रतिशत क्षेत्र ही संकर धान के अंतर्गत आता है। कनाडा व यूरोप की जिस संकर कनोला सरसों/ गोबिया सरसों की दुगनी पैदावार का उदाहरण देकर कुछ वैज्ञानिक देश में भ्रम पैदा कर रहे हैं। वह 1980-1999 के दौरान, देश भर में किये गए ट्रायल में भारतीय मौसम के अनुकूल नहीं पायी गयी थी। जबकि सरसों की एमएसपी (एमएसपी) पर खरीद सुनिश्चित करने मात्र से ही मौजूदा किसान हितैषी प्रौद्योगिकी व सरसों की नयी आरएच-725 आदि किस्मों द्वारा, देश को एक वर्ष में ही आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है!
लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में प्रधान वैज्ञानिक रहे हैं।
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