राजकुमार सिंह
समझदार को इशारा काफी होता है, और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की राजनीतिक समझ पर कौन संदेह कर सकता है? फिर पंजाब नगर निकाय चुनाव परिणामों का इशारा तो बहुत स्पष्ट है। भाजपा पूरी तरह साफ हो गयी है। शिरोमणि अकाली दल को भी विवादास्पद कृषि कानूनों पर विलंब से उसका साथ छोड़ने की कीमत चुकानी पड़ी है। तमाम कवायद के बावजूद आम आदमी पार्टी किसान असंतोष का लाभ उठाने में विफल रही है। ऐसे में सत्ता विरोधी भावना को धता बता कर सत्तारूढ़ कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव से महज एक साल पहले अपना परचम लहराने में सफल रही है। तीन नये कृषि कानूनों के विरुद्ध लगभग तीन महीने से दिल्ली की दहलीज पर जारी किसान आंदोलन से उत्पन्न चुनौतियों से रूबरू भाजपा तर्क दे सकती है कि पंजाब में वह मुख्य राजनीतिक दल कभी नहीं रही। तर्क गलत नहीं है। शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन के सहारे ही भाजपा पंजाब में सत्ता सुख भोगती रही है, लेकिन उसका आधार भी तो शहरी क्षेत्रों में उसका जनाधार ही रहा है। जबकि हाल के नगर निकाय चुनावों में भी भाजपा का सफाया हो गया है। जिस गुरदासपुर लोकसभा क्षेत्र से लोकप्रिय फिल्म अभिनेता सनी देओल सांसद हैं, वहां भी भाजपा का खाता तक नहीं खुल सका।
इसलिए दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ इस चुनावी संदेश से मुंह चुराना भाजपा के लिए आत्मघाती हो सकता है। इसलिए भी क्योंकि दो महीने पहले हरियाणा में हुए नगर निगम और नगर परिषद चुनावों में भी, राज्य में सत्तारूढ़ होने के बावजूद, भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षित नहीं रहा। आमतौर पर चुनावी पराजय के कारणों की जांच और समीक्षा के लिए समिति बनानी पड़ती है, लेकिन हरियाणा और पंजाब नगर निकाय चुनावों के कारण और कारक स्वत: स्पष्ट हैं। पंजाब में चार साल के शासन में कैप्टन अमरेंद्र सिंह की सरकार ने ऐसा कोई करिश्मा नहीं किया कि लोग कांग्रेस के मुरीद हो जायें तो हरियाणा में भी मनोहर लाल खट्टर सरकार ने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ऐसा तो कुछ भी नहीं किया कि लोग भाजपा से इस कदर खफा हो जायें। पहले कार्यकाल में तो एक के बाद एक चुनावी मोर्चे फतेह करते हुए मनोहर लाल खट्टर भाजपा के ऐसे स्टार प्रचारक बन गये थे कि जीत के टिप्स के लिए दूसरे राज्य भी उन्हें बुलाते थे। अब अगर पंजाब–हरियाणा में भाजपा को मतदाताओं की नाराजगी झेलनी पड़ी है तो इसलिए कि दोनों ही कृषि प्रधान राज्य हैं और किसान असंतोष उफान पर है। कृषि सुधार के नाम पर बनाये गये तीन नये कानूनों के विरुद्ध किसान आंदोलन शुरू भले ही पंजाब से हुआ हो, पर गाजीपुर बॉर्डर के अलावा पिछले तीन महीने से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की दहलीज पर जहां-जहां धरने पर बैठे हैं, वे सभी जगह हरियाणा में हैं।
ऐसा भी नहीं है कि पंजाब-हरियाणा में भाजपा ने किसानों को इन नये कृषि कानूनों के फायदे समझाने की कवायद नहीं की, लेकिन चुनाव परिणाम उसकी नाकामी पर ही मुहर हैं। जाहिर है, किसान इन कानूनों को कृषि सुधार के बजाय अपने लिए नुकसानदेह ही मान रहे हैं। पंजाब-हरियाणा के बाद किसान आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित तीसरा राज्य उत्तर प्रदेश है। वहां भी मार्च-अप्रैल में पंचायत चुनाव होने हैं। अगर उससे पहले किसान आंदोलन का कोई स्वीकार्य हल नहीं निकला तो वहां भी चुनाव परिणाम पंजाब-हरियाणा जैसे ही आ सकते हैं। चुनाव परिणाम यह भी बतायेंगे कि किसान आंदोलन का असर दिल्ली के करीबी जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है या पूरे राज्य में फैला है। वैसे जयसिंहपुर खेड़ा बॉर्डर पर राजस्थान तथा पलवल बॉर्डर पर मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ के किसानों का जमावड़ा यही संकेत देता है कि नये कृषि कानूनों के विरुद्ध असंतोष अब किसी राज्य विशेष तक सीमित नहीं रह गया है। ध्यान रहे कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव महज साल भर दूर हैं तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगभग डेढ़ साल। अगर उन चुनावों में भी परिणाम पंजाब-हरियाणा निकाय चुनाव जैसे आये तब क्या होगा?
उत्तर भारत की बेरुखी के बाद तो किसी भी राजनीतिक दल को देश पर शासन करने की खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए। इसलिए विशुद्ध राजनीतिक समझदारी का तकाजा है कि कम से कम प्रधानमंत्री मोदी तो कृषि कानूनों पर गतिरोध को विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच रस्साकशी से परे व्यापक नजरिये से देखने-समझने का प्रयास करें। किसानों और केंद्र सरकार के बीच दर्जन भर दौर की बातचीत के बावजूद परस्पर विश्वास बढ़ने के बजाय घटा ही है। अविश्वास के बीच वार्ता की सफलता वैसे ही संदिग्ध होती है, उस पर गणतंत्र दिवस प्रकरण ने अविश्वास को गहरी खाई में तबदील कर दिया है। यही कारण है कि खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने और किसानों के बीच एक फोन कॉल की दूरी बताये जाने के बावजूद, डिजिटल इंडिया में भी, वह आज तक तय नहीं हो पायी।
दिल्ली की सीमाओं पर सरकार और धरना स्थलों पर किसानों की तैयारियां लंबी जद्दोजहद का संकेत दे रही हैं, लेकिन उससे किसका भला होगा? किसान आंदोलन, खासकर गणतंत्र दिवस प्रकरण में किन संदेहास्पद तत्वों की कितनी संलिप्तता रही है, इसका खुलासा तो विश्वसनीय निष्पक्ष जांच से ही हो पायेगा, लेकिन बढ़ते टकराव का लाभ भारत विरोधी निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उठाये जाने की आशंका से कौन इनकार कर सकता है? प्रधानमंत्री ने भी माना है कि लोकतंत्र में संवाद से ही समाधान खोजा जाना चाहिए, पर क्या बिना परस्पर विश्वास के संवाद संभव है? कटु सत्य यही है कि सरकार की ओर से वार्ताकार रहे मंत्रियों में आंदोलनरत किसानों का अब कोई विश्वास नहीं रह गया है। हां, इतना अवश्य हुआ है कि तीन दर्जन से भी अधिक किसान संगठनों के बीच अब तीन-चार नेता ऐसे उभरे हैं, जिनके साथ सरकार स्पष्ट और मुद्दा-केंद्रित बातचीत कर सकती है। इसलिए सिर्फ कानून-व्यवस्था ही नहीं, राजनीतिक समझदारी का भी तकाजा है कि बिना और वक्त गंवाये मोदी सरकार किसानों से बातचीत की नयी पहल करे, बल्कि अब यह पहल खुद मोदी को करनी चाहिए। इसलिए भी क्योंकि पिछले चुनावों में उन्हीं के नाम पर भाजपा को जनसमर्थन मिला था और सिर्फ वही हैं जो किसानों के मन की बात सुन-समझ कर उसे मान भी सकते हैं। यह सही है कि छह साल की मोदी की साख पर पिछले छह माह में सवालिया निशान लगे हैं, लेकिन आज भी उनकी साख दूसरे नेताओं से बहुत ज्यादा है, जो किसानों से सीधी बात और समस्या के समाधान से बढ़ेगी ही।
किसान बार-बार कह चुके हैं कि वे कानून वापसी से कम पर नहीं मानेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद केंद्र सरकार भी नये कानूनों पर डेढ़ साल तक अमल न करने की पेशकश कर चुकी है। ऐसे में बीच का रास्ता तीनों नये कृषि कानूनों पर अमल तीन साल या साफ कहें तो अगले लोकसभा चुनाव तक रोकने से निकल सकता है। इसका अर्थ यह भी होगा कि अगले चुनाव में ये तीनों कृषि कानून मु्द्दा बनेंगे, भाजपा समेत सभी दलों को उन पर या उनके संशोधित मसौदे पर अपना रुख स्पष्ट करना होगा। तब निश्चय ही नयी सरकार के पास नये जनादेश के अनुरूप उस दिशा में बढ़ने का राजनीतिक तथा नैतिक अधिकार होगा, पर सवाल वही है कि अक्सर दूसरों को संकट को अवसर में बदलने की नसीहत देने वाले नरेंद्र मोदी खुद किसानों से सीधी बात का साहस कर अपने इस बड़े राजनीतिक संकट को अवसर में बदल पायेंगे?
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