दवा और स्वास्थ्य क्षेत्र में हम 1947 के हालात से बहुत आगे आ चुके हैं। केंद्र और राज्य सरकारें हर स्तर पर वहनयोग्य स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रयासरत रही हैं। अब जबकि हमारे पास विश्वस्तरीय मेडिकल विशेषज्ञताएं हैं और हमें भारत के एक स्वास्थ्य देखभाल पर्यटन केंद्र बनकर उभरने पर गर्व है, जब मध्य एशिया, अफ्रीका और दक्षिण एशिया से मरीज पश्चिमी देशों की बजाय वाजिब दाम पर गुणवत्तापूर्ण और भरोसेमंद इलाज के लिए आ रहे हैं।
लेकिन पिछले 75 सालों के इस पहलू पर आत्मविश्लेषण की जरूरत है कि क्यों चिकित्सा क्षेत्र से एक भी भारतीय को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकन नहीं मिला। जब हमारी होड़ चीन की आर्थिक वृद्धि दर से हो सकती है तो फिर चिकित्सा खोज में क्यों नहीं? चीनी चिकित्सा साइंसदान तू यूयू को वर्ष 2015 में संयुक्त नोबेल पुरस्कार मिला था। यह विशिष्टता हमें कब नसीब होगी? हालांकि विदेशी नागरिकता प्राप्त एक भारतीय और तीन भारतीय मूल के वैज्ञानिकों को विज्ञान का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है।
हमारे अंदर प्रतिभा की कोई कमी नहीं किंतु गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान के लिए आवश्यक माहौल, बुनियादी ढांचा और मौलिक विचारों का अभाव है। नई दिल्ली में एम्स के 42वें उपाधि समारोह में प्रधानमंत्री ने कहा, ‘भारत चिकित्सा क्षेत्र में पीछे है और इस पर काम होना चाहिए। मुख्य चिकित्सा संस्थानों में अनुसंधान के माहौल को बढ़ावा देने और इसके राष्ट्रीय महत्व को समझना जरूरी है।’
दुर्भाग्यवश, अधिकांश चिकित्सा संस्थानों में होने वाले अनुसंधान की गुणवत्ता दोयम है और डाटा बताता है कि पीयर-रिव्यू जर्नल्स में कुछ मेडिकल कॉलेजों की ओर से तो एक भी शोध-पत्र प्रकाशित नहीं हुआ। यहां तक कि अग्रणी चिकित्सा संस्थानों से भले ही बहुत शोध-पत्र छपे हों, लेकिन इनमें भी 90 प्रतिशत को कुल उल्लेख-संदर्भों (साईटेशन) की 25 फीसदी मात्रा नहीं बनती। इसलिए न सिर्फ अनुसंधान करना महत्वपूर्ण है बल्कि गुणवत्ता भी। भारत से प्रकाशित शोध-पत्र अधिकांशतः यूरोप और अमेरिका में चल रहे शोध-कार्यों का विस्तार-अनुसरण (फॉलो-अप) होते हैं।
हमें अपने युवाओं में मौलिक सोच और नयी खोज करने की आदत डालनी होगी। हाल ही में, एक विज्ञान अधिवेशन का उद्घाटन करते वक्त प्रधानमंत्री ने कहा कि विज्ञान, तकनीक और नूतन खोज हमारे युवाओं के डीएनए में हैं, बस जरूरत है उनकी मदद पूरी तरह करने की। इसलिए गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान को बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिए। सर्वप्रथम, खोज के तरीकों का प्रशिक्षण देना अहम है और फिलवक्त यह हमारी कमी है। नतीजतन, रेज़ीडेंट डॉक्टर और यहां तक कि मेडिकल फैकल्टी के सदस्य भी, चल रहे अनुसंधान कार्यों का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। रेज़ीडेंट डॉक्टरों को खोज कार्य और बढ़िया शोध-पत्र पैदा करने के लिए उत्साहित करना चाहिए और अच्छा कर दिखाने वालों को फैकल्टी में चुने जाने में तरजीह देने का प्रोत्साहन रखा जाए।
खोज कार्य की शृंखला में क्लीनिकल प्रयोग करने वालों और मूल साइंसदानों के बीच सीधे संवाद की कमी है, लिहाजा बहुत-सा अनुसंधान व्यर्थ जाता है। मेडिकल कॉलेजों और संस्थानों में खोजकार्य हेतु सकारात्मक माहौल बनाने की संस्कृति हो, यह नए विचारों पर काम करने, गलतियों से सीखकर सुधार लाने में सहायक होती है, खुलापन और ईमानदारी सिखाती है। माहौल ऐसा हो कि युवा वैज्ञानिक बड़े सपने देखें और फलीभूत करें। मेडिकल कॉलेजों को अन्य चिकित्सा संस्थान, आईसीएमआर, डीएसटी, सीएसआईआर और यहां तक कि बायोमेडिकल संस्थान जैसे कि आईआईटी से मिलकर संयुक्त खोजी उपक्रम करने को बढ़ावा देना चाहिए। इससे समस्या-मूलक और खोजपरक अनुसंधान को बढ़ावा मिलता है। उद्योगों की बात करें तो, दवा उत्पादक और बायोमेडिकल क्षेत्र को प्रोत्साहन और नए दवा घटक एवं बायोमेडिकल सामग्री बनाने में निवेश को बढ़ावा दिया जाए। हमें अपनी परंपरागत आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को जोड़कर, इसके चिरकालीन दवा ज्ञान का मूल्यांकन आधुनिक वैज्ञानिक ढंग से करके उपयोगिता सिद्ध करनी चाहिए। एक वक्त चीनी नेता माओ ज़िदोंग ने नोबेल विजेता तू यूयू को मलेरिया की दवा तैयार करने का काम सौंपा था, क्योंकि इसकी वजह से बहुत फौजी मरते थे। यूयू ने लंबी खोज, पुरातन चीनी चिकित्सा पद्धति की अपनी जानकारी और क्लीनिकल प्रयोगों के जरिए ‘आरटिसिमीनिन’ नामक दवा खोजी, जिसने मलेरिया निदान में मदद की। यह दर्शाता है कि यदि वैज्ञानिक तरीके बरते जाएं तो परम्परागत और क्लीनिकल अनुसंधान एक-दूसरे का पूरक हैं।
हालांकि विगत में, भारतीय मेडिकल क्षेत्र में भी कुछ उच्च-गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान हुआ है, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए। भारत ने आयोडीन की कमी से पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं की पहचान की है, बताया कि कैसे आयोडीन युक्त नमक उपयोग से काफी हद तक उनसे बचा जा सकता है। व्यावसायिक रूप से मिलने वाला आयोडीन युक्त नमक इसी खोज से संभव हुआ। अगर चुटकी भर आयोडीन युक्त नमक से समस्या हल हो तो खोजकर्ता सराहनीय हैं।
भारतीय खोजों में एक अन्य महत्वपूर्ण है डॉ. शम्भूनाथ डे द्वारा हैजे का निदान। प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका ‘नेचर’ में इसका जिक्र हुआ, समीक्षा करते हुए नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर जोशुआ लैडलबर्ग ने कहा ‘डे के क्लीनिकल प्रयोग उनकी इस खोज को पुख्ता करते हैं कि शरीर में पानी की कमी हैजा विषाणुओं की विषाक्तता बढ़ने का मुख्य कारक है, और अमाश्ाय-आंतों में केवल पानी की मात्रा बढ़ाने भर से यह खत्म होने लगती है।’ डॉ. डे की यह खोज दस्त लगने पर दिए जाने वाले मौजूदा अधिकांश जीवन-रक्षक घोलों का आधार बनी।
विडंबना है कि डॉ़ डे की इस स्वदेशी महत्वपूर्ण खोज को देश में तभी मान्यता मिली जब विदेशी मेडिकल समुदाय में तारीफों का अंबार लगा। हमें अपने वैज्ञानिकों की उपलब्धियों की शिनाख्त और तारीफ करनी आनी चाहिए। हैजा और आंत्र संस्थान से जुड़े रोग के बाबत की यह खोज यानी जीवन रक्षक घोल का प्रदर्शन सिद्ध करता है कि आम घरेलू पेय जैसे कि नींबू, नारियल और चावल का पानी शरीर में जल की कमी से हैजे का बिगड़ना और परिणामवश मौतों से बचा सकता है और कहीं ज्यादा प्रभावशाली है।
तपेदिक और कुष्ठ रोग के उपचार में भी भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। कोविड वैक्सीन का विकास एक अन्य बड़ी सफलता गाथा है। यही समय है, आकर्षक प्रोत्साहन देकर अच्छी मेडिकल रिसर्च को बढ़ावा दिया जाए। अनुसंधान कार्यों में रुचि जगाने के लिए युवा पीढ़ी को आकर्षित करने का यही एकमात्र रास्ता है। मेडिकल कॉलेजों में फैकल्टी में डॉक्टर-वैज्ञानिकों के चयन हेतु खोजपरक उपलब्धियां मुख्य पैमाना बनें। प्रधानमंत्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ के साथ ‘जय अनुसंधान’ का नारा जोड़कर खोज कार्यों के महत्व को रेखांकित किया है। आइए, अब चिकित्सा क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने के लिए अपने प्रयास और ध्येय को दृढ़ करें।
लेखक पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ के पूर्व निदेशक हैं।