हम एक बार फिर आजादी का महोत्सव मना रहे हैं। इस बार इसे आजादी का अमृत महोत्सव का नाम दिया गया है। हमने आजादी की पौन सदी का दौर देख लिया है। इसमें दो राय नहीं कि कई क्षेत्रों में हमने कामयाबी की बुलंदियां छू ली हैं। भारतीय होनहारों की दुनियाभर में धाक है। पक्की बात है हमारे जीवन के स्तर में भी व्यापक सुधार हुआ है। वहीं राजनीतिक रूप से देश को आजादी भले ही मिली हो लेकिन आर्थिक आजादी के टारगेट अभी पूरे नहीं हो पाए हैं। जो बहुत कुछ हासिल न हो सका, उसका मलाल बाकी है। सवाल ये है कि क्या इस अमृत महोत्सव का अमृत हर आम आदमी के हिस्से में आया है? क्या अमृत राजनेताओं व सत्ताधीशों व संपन्न वर्ग के हिस्से में ही आया है? सवाल ये भी कि नेताओं व नौकरशाहों के घर से नोटों के ढेर मिलते क्यों दिखायी दे रहे हैं? क्या कानून व्यवस्था के रखवाले आम आदमी का भरोसा हासिल कर पाये हैं? पुलिस कानून के रखवाले के रूप में क्यों नहीं देखी जाती? क्यों जनता को नेताओं की नीति-नियत पर भरोसा न रहा जो नेताओं को फ्री का सामान व सुविधाएं बांटनी पड़ रही हैं।
सबसे बड़ा सवाल आजादी के अमृत महोत्सव में यह है कि हमारे चुनाव इतने महंगे व खर्चीले क्यों होते जा रहे हैं। जिस भी सदन में माननीयों की सूची देखो उसमें करोड़पतियों की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है। कहते हैं आजादी के बाद राजस्थान में एक ऐसा विधायक चुना गया था जिसके पास जयपुर जाकर शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने का किराया न था। आज हर नेता करोड़ों रुपये चुनाव पर खर्च कर रहा है। कहते हैं जीत की हवा रखने वाली पार्टी को भी करोड़ों का चढ़ावा देना पड़ता है। कहां से आता है ये करोड़ों रुपया? कभी-कभी लगता है ईमानदार आदमी शायद ही इस व्यवस्था में चुनाव लड़ पाये। आज अवैध खनन, बड़े ठेकों तथा माफिया का बड़ा पैसा इन चुनावों में खर्च होता है। राजनीति व दागियों का गठजोड़ भारतीय जम्हूरियत की जड़ें खोखली कर रहा है। ऐसा निजाम नहीं बन पाया है कि इस आपराधिक गठजोड़ का तोड़ निकाला जाये। इस अपवित्र गठबंधन में धंसी सियासत वह इच्छाशक्ति नहीं दिखाती कि बाहुबलियों, माफिया और जरायमपेशा को राजनीति में आने से रोका जा सके। इस नापाक गठजोड़ के ताबूत पर कील ठोकने के लिये विभिन्न कमेटियों व आयोगों ने जो भी रिपोर्ट दी, उसे हुक्मरानों ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसमें कोई गफलत नहीं है कि देश के निजाम के समांतर चलने वाला अपराधियों, माफियाओं व बाहुबलियों का यह अपिवत्र गठबंधन देश के लिये एक गंभीर चुनौती है।
यह आम सोच बन चुकी है जांच आयोगों का गठन रिकॉर्ड रूम्स की अलमारियों का पेट भरने या किसी अनचाहे घटनाक्रमों के दुष्परिणामों से फौरी तौर पर निजात पाने के लिये किया जाता है। काश! ऐसे जांच आयोगों की सिफारिशें अमल में लायी जातीं तो शायद किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने की दुखद घटनाएं सामने नहीं आती, पुलिस तंत्र पंगु न बनता और न ही संगठित अपराधियों और बाहुबलियों द्वारा कानून व्यवस्था को नूंह में निर्ममता से कुचला जाता। जहां तक किसानों की दुश्वारियों का सवाल है तो यदि समय रहते स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को ईमानदारी से लागू कर दिया गया होता तो किसान कल्याण की सिफारिशें रुदन करती प्रतीत न होती। वहीं यदि पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिये पद्मनाभैया आयोग, विधि आयोग द्वारा विधि एवं व्यवस्था सुधार तथा अन्य कर्तव्यों से अनुसंधान कार्य को अलग करने की सिफारिश, सोली सोराबजी आयोग तथा प्रकाश सिंह कमेटी के सुधार समय से लागू कर दिये गये होते तो कानून-व्यवस्था की लचरता सामने नहीं आती। यही वजह है कि देश की पुलिस व्यवस्था भ्रष्टाचार व सियासती दुरुपयोग से आजाद नहीं हो पायी है।
इसी तरह पिछले दिनों नूंह में खनन माफिया के हाथों एक डीएसपी का कत्ल जैसी घटनाएं पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एनएन वोहरा की अध्यक्षता में गठित कमेटी की सिफारिशों की अनदेखी का परिणाम नजर आ रही हैं। वर्ष 1993 में मुंबई बम विस्फोट शृंखला के भयावह घटनाक्रमों के दृष्टिगत भविष्य में ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिये सिफारिशें देने के लिये वोहरा कमेटी गठित हुई थी। इसने सौ पेज की रिपोर्ट में आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लाॅबियों, तस्करों, माफिया गिरोहों से कुछ प्रभावशाली राजनेताओं व अफसरों की सांठगांठ को बेनकाब किया था। राजनेताओं तथा अपराध की संगठित दुनिया के गुर्गों के बीच अनैतिक गठबंधन को तहस-नहस करने के उपाय भी इस रिपोर्ट में सुझाये गये थे। मगर कमेटी की रिपोर्ट और सिफारिशों को अमल में तब ही लाया जाएगा अगर सियासतदान और प्रशासनिक तंत्र ऐसा करने की इच्छा रखते हों। स्वार्थ, लालच और बेईमानी की दीमक ने सियासतदानों और अफसरशाही की इस इच्छाशक्ति को जब खोखला कर दिया हो तो वोहरा कमेटी की सिफारिशों को अमल में कैसे लाया जा सकता है। पक्की बात है कि यदि वोहरा कमेटी की सिफारिशों को समय रहते अमल में लाया जाता तो यह देश आर्थिक अपराधियों और खनन माफियाओं के चंगुल से मुक्त हो जाता।
आजादी के इस अमृतकाल में देश के जनमत को जगाना होगा। उन्हें इस बात के लिये जागरूक करना होगा कि राजनीति में दागियों को सत्ता की दहलीज तक न पहुंचने दें। वे अपने विवेक का इस्तेमाल करके ईमानदार नुमाइंदों का चुनाव करें। सरकारों पर इस बात के लिये दबाव बनायें कि राजनीति व अपराधियों के गठबंधन तोड़ने के लिये जो सिफारिशें विभिन्न आयोगों और कमेटियों ने की हैं, उनको पूरी तरह लागू किया जाये। जनता को ही लोकपाल की भूमिका में आना होगा। उन्हें ही पाक-पारदर्शी लोकतंत्र की स्थापना के लिये इच्छा दिखानी होगी। यह सोशल मीडिया का जमाना है। जनमत के दबाव के आगे सरकारों को झुकना पड़ेगा। मीडिया से भी जिम्मेदार भूमिका की दरकार है। यह प्रहार ही राजनेताओं को अपवित्र गठबंधन तोड़ने को मजबूर करेगा। बाहुबलियों व आर्थिक अनियमितताओं से जुड़े लोगों की राजनीतिक पहुंच की बात हम सबको पता है। यह भी कि कैसे गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त लोग चुनाव जीत कर जनप्रतिनिधि संस्थाओं में गहरा दखल दे रहे हैं। लोकतंत्र बचाने को हर देशवासी को आगे आने की जरूरत है। तभी हमारे शहीदों व स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान सार्थक हो सकेगा। तभी अमृत महोत्सव का अमृत हर देशवासी तक पहुंचेगा। तभी हमारा लोकतंत्र महकेगा।
लेखक दैनिक ट्रिब्यून के संपादक हैं।