अविजीत पाठक
ऐसे समय में जब कोविड-19 से लड़ाई में टीकाकरण ने कुछ आस जगानी शुरू की ही थी कि वायरस एक बार फिर आक्रामक होकर लौटा है, जिससे लोगों के अंतस में डर, घबराहट और अर्थहीनता की भावना भरने लगी है। हर नयी सुबह कोविड के शिकार बने लोगों की मनहूसियत भरी खबरों से शुरू होती है। हमें बार-बार देखना पड़ रहा है कि फलां जगह अफरातफरी मची हुई है, कहीं आईसीयू में बिस्तरों एवं वेंटीलेटर की कमी है तो कहीं श्मशान घाट में मृत देह जलाने को जगह कम पड़ गई है। यह पढ़-देखकर चेतना जख्मी और कुंद होने लगती है। हमारे लिए अब न तो सूर्योदय का नजारा, न ही फूलों का खिलना, न ही पंछियों की चहचहाहट के मायने हैं। तो क्या यह प्रार्थनाओं, शुक्राने और जीवनदायिनी तरंग का समापन है? या क्या यह हमें चारों ओर से घेर चुका हताशा रूपी अंधियारा है और मानस में एक ही सवाल तारी हैः क्या वैक्सीन हमें बचा पाएगी?
हो सकता है आधुनिक जैव-औषधि विज्ञान एक कारगर दवा के जरिए हमें वायरस के प्रकोप से बचा ले, इसलिए टीकाकरण की प्रक्रिया का अपना बहुत महत्व है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केवल वैक्सीन हमें वह सब वापस नहीं दे पाएगी, जो हम खो चुके हैं। यानी मनोवैज्ञानिक झंझावात और वजूद पर बनी अनिश्चितता की वजह से बिसर चुकी एक अर्थपूर्ण जिंदगानी (न कि वह मास्क एवं सैनिटाइज़र के आसरे बची हो)। यही समय है कि हम महसूस करें कि प्यार, जो कि इनसान की परम तलाश होती है, वह वैक्सीन से कम महत्वपूर्ण नहीं है। और यह प्यार क्या है-अंधकारमय संसार में जीवन ऊर्जा का स्रोत?
खैर, आधुनिकता के ग्रंथ में, जिसमें प्रगति हेतु दुनिया जीत लेने और धरती पर मानव की श्रेष्ठता कायम करने की अंतहीन चाहत, असीमित तकनीकी-आर्थिक प्रगतिवाद एवं उपभोक्तावाद पर तो बहुत जोर है, परंतु मृत्यु की सच्चाई को लेकर इनसान असहज है। तथापि तथ्य यह है कि मौत तो खुद जन्म का एक अभिन्न हिस्सा है और इस जागृति से जीने का अर्थ है शांतमय मृत्यु को प्राप्त होना, एक अर्थपूर्ण मौत भरपूर जिंदगी जीने वाले और प्यार करने वालों को नसीब होती है। लेकिन, जैसा कि जाहिर है, आधुनिकता मौत के ख्याल से ही दूर भागती है और तमाम तकनीक-पैसे के बावजूद हम नाना प्रकार के भय में जीते हैं। कोरोना वायरस ने एक बार फिर दिखा दिया है कि हम किस कदर डर से भरे हुए हैं। इसलिए हमारे मशीनी तर्कों और लोगों को मनोविज्ञान एवं आध्यात्मिकता के मिश्रण वाली घुट्टी पिलाने वाले तथाकथित ‘जीवन सिखाऊ’ गुरुओं की बढ़ती संख्या के बावजूद वे अंदर से टूटे हुए हैं। एक आधुनिक युगीन इनसान होने का दम भरने वाले हम उतने भी ताकतवर नहीं हैं, जितना खुद को मान बैठे हैं।
जीवन की लय में छिपी मृत्यु को पहचानने वाले और इस हकीकत को आत्मसात करने वाले व्यक्ति के लिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि वह कहीं अंदर आत्मघात की प्रवृत्ति पाले हुए है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि मैं या आप उन वैज्ञानिकों-अनुसंधानकर्ताओं-चिकित्सकों के शुक्रगुजार नहीं हैं, जिनके यत्नों से कोरोना वैक्सीन बन पाई है। अवश्य ही इसका तात्पर्य है भविष्य को स्वीकारने की क्षमता होना-यहां तक कि वैक्सीन उपरांत काल में जहां हरचंद अनिश्चितता बनी रहेगी, ऐसे माहौल में जीवित बने रहने के लिए हर वक्त डर में रहना ठीक नहीं है। वास्तव में यथार्थ वह बोध है, जिस घड़ी आप और मैं जीवित हैं। तो इन पलों को शुक्राना व्यक्त करते हुए और पूर्ण संचेतना से जीएं। यदि हम मौजूदा पलों की जीवंतता को खो बैठे तो किसी भी वैक्सीन की माकूल खुराकें भी हमारे अंदर भयजनित सोच से बनी मनोवैज्ञानिक व्यग्रता को नहीं बदल पाएंगी।
केवल संचेतना से ही हम अपने अंदर जुड़ाव की भावना पैदा कर सकते हैं। गहराई एवं शिद्दत से जीने के लिए पंछियों की चहचहाहट सुनें, सूर्योदय की गर्माहट को महसूस करें और बच्चे की खिलखिलाहट का आनंद लें। वास्तव में विभोर कर देने वाले इन पलों को आत्मसात करने वाला इनसान अहंकारवश पैदा हुई अलगाव की दीवारें गिरा देता है, वह तितली की मानिंद स्वच्छंद उड़ता है, खुद सूरज की किरण, समुद्र की लहर सरीखा बन जाता है, दूसरे शब्दों में कहें तो इनसान अपने आप में ब्रह्माण्ड बन जाता है। और इस संगम पर पहुंचकर तमाम भय खत्म हो जाते हैं। इसकी बजाय उपजता है तो वह है भरपूर प्यार। कोरोना वायरस ने जिस तरह सब कुछ उल्टा-पुल्टा कर दिया है, उससे विभिन्न किस्म के भय बन सकते हैं। एक तो अकेले पड़ने का डर है, जो सामाजिक दूरी की वजह से और ज्यादा गहरा गया है, फिर भय बना है प्रियजनों की गर्माहट भरी छुअन खो जाने से, फिर एक डर है संक्रमित होने पर अछूत बनने का और एक अन्य है, किसी आईसीयू में एकांतवास झेलने का। कोरोना वायरस ने विद्रूप तरीके से हमें सिखा दिया है कि दर्प-पूर्ण गर्व करना एक छलावा है, जिंदगी में प्यार से बढ़कर और कुछ नहीं है-वह जो किसी प्रियजन की गर्माहट भरी छुअन में महसूस होता है, वह जो चंगा करने वाला है या विस्मृत न होने वाले सूर्यास्त के नजारे जैसा, जो हर कोई अपने प्रियतम के साथ निहारना पसंद करता है। यह प्यार वह परम दवा है, ऐसी जो किसी भी वैक्सीन से कहीं ज्यादा ताकतवर है।
कितना निर्मम संसार है, जिसे हम रच बैठे हैं! जहां अहंकार की भावना, उन्मादी उपभोक्तावाद और तकनीक-विज्ञान के घमंड ने लोगों के बीच आपसी दूरी की ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी हैं, जिन्होंने जिंदगी को मृत्यु से, अंत को अनंत से, शरीर को आत्मा से, भाव को कविता से और विज्ञान को जीवन-मरण के सुरुचिपूर्ण संबंध से जुदा कर डाला है। ‘सामान्य’ परिस्थितियों में हम ‘कमाई करने’ की आड़ में इस तरह के आध्यात्मिक विचारों को अपने अंदर जगाने से बचते रहते हैं और आमोद-प्रमोद में उलझे रहते हैं। अब जबकि नागवार कोविड-19 ने इस सामान्य काल को उल्टा-पुल्टा कर दिया है तो हमें इस घाटे का भान हुआ है। चाहे यह वैक्सीन की प्रभावशीलता को लेकर बना संशय हो या अवसाद से निजात पाने को रासायनिक गोलियों का सहारा लेना। लगता है जिंदगी ने अपनी सृजनशील योग्यता खो दी है। यह अपने वजूद को बचाने की ऐसी बड़ी त्रासदी है, जिसमें महामारी ने हमें फंसा दिया है।
तो क्या हम आध्यात्मिक रूपांतर की प्रक्रिया अपनाकर खुद को भयमुक्त करने को तैयार हैं।
लेखक समाजशास्त्री हैं।