योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
जीवन में उलझनें क्या इन दिनों कुछ ज्यादा बढ़ गई हैं या फिर हमारे व्यवहार और चिंतन में ही बदलाव आ गया है? यह प्रश्न आज समाज में हर व्यक्ति के सामने है, जिसका उत्तर सभी पाना चाहते हैं, लेकिन जाने क्यों, किसी को भी इसका उत्तर नहीं मिल पाता और हमारी ये उलझनें हैं कि बढ़ती ही जाती हैं। एक गीत में एक छंद इस प्रकार है :-
क्या मिलेगा उलझनों में?
ज़िन्दगी बेहद सरल है।
काम यदि आएं जगत के,
मधु बनेगा, जो गरल है।
यह अकाट्य सत्य है कि जिस पल हम अपने मैं से निकल कर हम हो जाते हैं, उसी पल से हमें उलझनों से छुटकारा भी मिलना शुरू हो जाता है। कवि कबीर ने तो जीवन का सच्चा मर्म बताते हुए एक बहुत बड़ी बात कही है :-
पीया चाहै प्रेम रस, राखा चाहे मान।
दोय खड्ग इक म्यान में, देखा सुना न कान॥
यानी आप प्रेम-रस भी पीना चाहें और उसी के साथ आपको मान भी चाहिए, तो यह संभव नहीं, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें तो रह ही नहीं सकती। कवि कबीर का तात्पर्य यही है कि प्रेम संसार की ऐसी अनूठी उपलब्धि है, जिसे पाकर अहम तो बच ही नहीं पाता।
आज हम कहीं भी हों, कैसे भी हों, इस ‘अहम’ नाम की बीमारी से चाहे-अनचाहे ग्रस्त हो ही जाते हैं। आए दिन, जरा-जरा सी बात पर खून-खराबा करना जैसे आम बात होती जा रही है। क्या हमारे दिलों से ईश्वरीय प्रेम का स्रोत सूख गया है? किसी से कुछ मिलता हो तो प्रेम उमड़ आता है, लेकिन स्वार्थ पूर्ण होते ही अपनत्व भी खत्म हो जाता है। कवि कबीर को ऐसे में कहना पड़ता है :-
छिनही चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय॥
आज मुझे प्रेम के उदात्त और अनूठे रूप के बारे में एक बहुत ही प्रेरक प्रसंग पढ़ने को मिला।
जर्मन के लेखक फ्रांज काफ्का बीसवीं सदी के श्रेष्ठ लेखकों में गिने जाते हैं। वे जिस पार्क में रोज घूमने जाते थे, वहां एक दिन उनकी भेंट एक छोटी-सी लड़की से हुई, जो खूब रो रही थी। पूछने पर लड़की ने बताया कि उसकी ‘डॉल’ कहीं खो गयी है और अब वह बिल्कुल अकेली है।
फ्रांज काफ्का ने उस नन्ही बच्ची को उसकी वह गुड़िया खोज कर देने का वादा किया। दूसरे दिन जब वह बच्ची पार्क में उन्हें मिली, तो उन्होंने कहा कि तुम्हारी वह डॉल तो मुझे नहीं मिली, पर वह तुम्हारे लिए एक चिट्ठी दे गई है। काफ्का ने ‘डॉल’ की वह चिट्ठी, जो वास्तव में उन्होंने खुद लिखी थी, उस बच्ची को पढ़कर सुनाई। चिट्ठी में लिखा था-प्लीज, मुझे याद करके उदास मत होना। मैं यात्रा पर गई हुई हूं दुनिया देखने के लिए। मैं तुम्हें चिट्ठियों में अपने सफर के बारे में बताती रहूंगी और कुछ समय बाद तुम्हारे पास जरूर वापस आऊंगी।
यह शुरुआत थी कुछ चिट्ठियों की। जब पार्क में काफ्का और वह छोटी बच्ची मिलते तो काफ्का बहुत ही सावधानी से अपने द्वारा लिखे गये पत्रों से उस ‘डॉल’ के काल्पनिक रोमांचक अनुभव लड़की को पढ़ कर सुनाते, जिन्हें सुनकर वह बच्ची बहुत खुश होती थी।
जब उनकी मुलाकातें खत्म हुई, तो फ्रांज काफ्का ने उसे एक ‘डॉल’ उपहार में दी, जो असली डॉल से बहुत अलग दिखती थी। काफ्का ने उसके साथ एक चिट्ठी दी, जिसमें लिखा था-सफर के कारण मैं कुछ बदल गयी हूं, इसलिए शायद तुम्हें पहले जैसी न लगूं।
कई सालों बाद जब वह बच्ची युवा हुई तो उसे एक दिन काफ्का के द्वारा दी गई ‘डॉल’ के भीतर छुपा हुआ एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था-हर एक चीज, जिसे आप प्यार करते हैं, कभी न कभी आप खो देंगे, लेकिन आखिर में, आपका वही प्यार किसी न किसी बदले हुए रूप में जरूर आपके पास वापस आएगा। अपने प्रेम को निराशा में न बदलने दो, क्योंकि आपका प्रेम तो अनूठा और अमर है।
हज़ारों मील दूर का एक लेखक फ्रांज काफ्का अगर एक अनजान बेटी को अपनी कल्पना के द्वारा पत्र लिख-लिखकर प्रसन्न कर सकता है, तो हम यह खूबी अपने भीतर क्यों पैदा नहीं कर सकते? खुद के लिए जीना ही तो जीना नहीं होता न? प्रलय के बाद निराश मनु को श्रद्धा ने यही तो कहा था :-
अपने में भर सब कुछ कैसे,
व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ है भीषण,
अपना नाश करेगा।
तब आइए न, कुछ तो सीखें हम भी जर्मन लेखक फ्रांज काफ्का से, जिसने अपने भीतर के प्रेम को कल्पना बना कर एक उदास लड़की को जीवन दे दिया और खुद इस संसार में अमृत बन गया।