महामारी लौट आयेगी, ऐसी उम्मीद इस वर्ष के शुरू में नहीं थी। पिछला लगभग पूरा वर्ष कोविड-19 के प्रकोप को देश ने झेला। इसका मुकाबला जिस जीवट और स्वानुशासन के साथ देश ने किया, वह काबिलेतारीफ था। पिछले वर्ष इसी मास जनता ने स्वेच्छा से कर्फ्यू लगाया था, घरों से तालियां बजायीं, दीये जलाये, बर्तन खटखटा स्वर निनाद किया। पूर्णबन्दी का एक लम्बा सिलसिला और फिर धीरे-धीरे कोई और चारा न देख, बंदी मुक्ति के पांच चरणों के साथ अर्थव्यवस्था को खोलना।
जब कोरोना ने दस्तक नहीं दी थी, देश पहले ही मन्दीग्रस्त होने लगा था। ऐसा रोग जिसकी कोई सटीक दवा, कोई उपचार नहीं था। इसको दुनिया के इस नंबर दो अत्यधिक जनसंख्या वाले देश ने पूरी गम्भीरता, धीरज और बेजा शिकायत के बिना झेला। शिक्षालय बन्द हो गये। मनोरंजन, पर्यटन और अन्य खुशगवार सेवाओं को ही काठ नहीं मारा, बल्कि आवश्यक उत्पादक इकाइयां भी निर्जीव हो गयीं। देश का सकल घरेलू उत्पाद 24 प्रतिशत के रिकार्ड स्तर तक गिरा। देश की आर्थिक विकास दर कहां तो दस प्रतिशत तक पहुंच देश को स्वत: स्फूर्त बना देने के सपने देख रही थी और कहां माइनस सात प्रतिशत से ऊपर के रिकार्ड स्तर पर आ गिरी ।
शहरों के काम धंधे उजड़ गये। देश में नियमित व्यापार से अधिक अनियमित व्यापार होता है। दोनों ही महामारी के इस प्रकोप से पैदा अकर्मण्यता के कारण उखड़ते नजर आये। आजादी के बाद यह एक उभरता संवरता समाज बन रहा था। नई आर्थिक नीतियों का प्रयोगधर्मी समाज था। मूलत: यह देश एक कृषक समाज था, जहां गांवों की युवा पीढ़ी हानिप्रद होते कृषि धंधे की विरासत को अब और स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। उन्चास प्रतिशत युवा आबादी वाले इस देश में ग्रामीण युवकों का पलायन महानगरों की ओर होने लगा था। गांवों से पलायन का आंकड़ा लगभग सवा करोड़ प्रतिवर्ष था, जो देश के महानगरों के औद्योगिकीकरण में अपना वैकल्पिक जीवन तलाश रहा था। जो वहां नहीं सिमट पा रहे थे, वह विदेशों का रुख कर रहे थे।
लेकिन यह कैसी महामारी आयी कि उभरता हुआ यह औद्योगिक समाज अपनी जड़ों से उखड़ गया? महामारी से पूर्व देश में बेकारी की दर लगभग छह प्रतिशत थी, अब कोरोना प्रकोप की पूर्णबन्दी ने इस दर को कोरोना शिखर महीनों में बाइस से चौबीस प्रतिशत कर दिया। महानगरों और विदेशों में अपने लिए वैकल्पिक जीवन तलाशते गांवों के नौजवान अपनी जड़ों से उखड़ गये।
क्या करते, विदेशों से स्वदेश, और महानगरों से फिर अपने गांव की माटी की ओर वापस लौटना शुरू हो गया क्योंकि वहां उम्मीद थी कि लगभग डेढ़ दशक से चलती हुई ग्रामीण रोजगार योजना ‘मनरेगा’ उन्हें वर्ष में सौ दिन का काम तो दे देगी। इन लौटते हुए लोगों की भीड़, देश भर में, तीन करोड़ से कम नहीं थी क्योंकि जो मनरेगा पिछले दस-बारह वर्ष से छह-सात करोड़ लोगों को आंशिक रोजगार दे रहा था, उसे अब ग्यारह करोड़ लोगों को इस आंशिक रोजगार के लिए संभालना पड़ा।
यह सही है कि इस विकट समय में धरती पुत्र और देश का कृषक समाज अपनी कसौटी पर खरा उतरा। संक्रमण की जगह उन्होंने अपनी मेहनत को खुदा माना। जबकि देश के उद्योग, व्यवसाय और सेवा क्षेत्र ऋणात्मक वृद्धि दिखा रहे थे, यह कृषि क्षेत्र था जिसने सकारात्मक विकास दर दिखायी और देश को भरपूर अनाज दे उसे संक्रमण के साथ भुखमरी और अकाल की अतिरिक्त पीड़ा से बचाया। कोरोना का दबाव कम हुआ, अर्थव्यवस्था खुलने के साथ कुछ नौजवान वापस लौटे तो भी किसानों ने मेहनत के प्रतिदान पर विश्वास नहीं खोया।
सरकार ने नये कृषि कानून लागू कर दिये। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल के किसान इनसे प्रसन्न नहीं। दिल्ली की सरहद पर लम्बा धरना लगाये बैठे हैं, लेकिन एक बार भी वह अपनी धरती मां के प्रति अपना कर्तव्य नहीं भूले, बल्कि खेतों में उनकी फसलें उसी प्रकार लहलहाती रहीं।
जब आंदोलन की गर्मागर्मी में यह कथित संदेश उभरा कि किसान एक बरस के लिए अपने फर्ज से कोताही कर लें, फसलों को परती छोड़ दें, या उनमें आग लगा दें, तो किसानों ने उसे स्वीकार नहीं किया। लेकिन देश का भाग्य ही उससे मुख मोड़ने पर उतारू हो गया। सन् 2020 के आखिरी महीने थे, कोरोना दब रहा था, देश के चिकित्सा विशारद अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों के साथ सुर मिलाकर कोरोना संक्रमण से बचाव और एंटीबाडीज को विकसित करने वाला दुष्प्रभाव रहित टीकाकरण विकसित करने में सफल हो गये। भारत में निर्मित ब्रिटिश कोविशील्ड और भारतीय टीकों से टीकाकरण अभियान शुरू हुआ। प्रभावी टीकों की खोज जारी है।
इधर कोरोना महामारी के भयावह प्रकोप का दबाव फिर शुरू हो गया। देश के पंजाब सहित बारह राज्यों में संक्रमण तेजी से बढ़ा। बन्दिशों, कर्फ्यू और आंशिक लॉकडाउन के दिन फिर से लौटने लगे। लोगों को सामाजिक दूरी, मास्क और सैनिटाइजेशन के आदेश का सख्ती से पालन का आदेश फिर मिला। महामारियों का यह चलन है कि उनकी लहरें फिर लौट-लौटकर आती हैं। दिल्ली में कोरोना दबाव को मुख्यमंत्री चौथी लहर और पेरिस, फ्रांस में इसे तीसरी लहर कहा जा रहा है। चाहे कोरोना का यह डबल म्यूटेंट वेरिएंट अधिक तेजी से फैल रहा है, पंजाब में इसके सबसे अधिक संक्रमण की रिपोर्ट है।
लेकिन इस बार मेहनतकश इनसान और मजदूर और खेतों का किसान इस लौटती लहर से इतना घबराया नहीं है। अभी देश भर में पहली अप्रैल से टीकाकरण का चौथा चरण शुरू हो गया। इसमें बिना शर्त पैंतालिस बरस से ऊपर की आबादी को टीका लगाया जा रहा है। लेकिन देश के इस टीकाकरण अभियान में एक परिवर्तन देखा जा रहा है। तीसरे चरण में जहां वरिष्ठ नागरिकों ने बढ़-चढ़कर टीका लगवाया था, वहां चौथे चरण में अब टीका देश के गांवों तक भी पहुंच गया। जमीनी रिपोर्ट है कि ग्रामीण आबादी बढ़-चढ़कर टीका लगवा रही है और अबकी बार इस महामारी के सर्वग्रासी चंगुल में फंसने से इनकार कर रही है।
स्पष्ट है जीवन संघर्ष में जूझ जाने का अदम्य संकल्प रखने वाले इस देश का ग्रामीण समाज भी स्वीकार कर रहा है कि महामारियों की लहरों का मुकाबला तो टीकाकरण से होता ही रहेगा, पहले भी इसी तरह होता रहा है। लेकिन गरिमा और मेहनत के साथ जीने का जीवट छोड़ना नहीं है, चाहे सामाजिक एहतियात रखकर ही इसे क्यों न जिंदा रखा जाये।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।