फुर्सतें भी अलग-अलग किस्म की होती हैं। घर में फुर्सतें ऐसे कामों से आंखें चुराती घूमती हैं जो कई महीनों से टू डू लिस्ट में आंखें फाड़े घूर रहे हैं। दिन भर फुर्सतें किसी न किसी उधेड़बुन में लगी रहती हैं। आने वालों घंटे में किसकी मिस्ड काल का जवाब देना है, फ्रिज में रखा कौन-सा सामान खत्म करना है। वाशिंग मशीन आज लगाऊं कि कल, पता नहीं कल मौसम कैसा हो? बिस्तर पिछली बार कब धुले थे? गैस हुड पर चिकनाई और धूल आज साफ़ की जाए या कल। अपना कीमती समय फुर्सतों को परोसना ही पड़ता है। वे जरा मेहरबान हुई तो खिड़की से भीतर आई धूप की गरमाई ओढ़ने की इजाजत दे देंगी और ज्यादा मेहरबान हुई तो दोपहर को थोड़ी देर अलसाने की भी, दोस्त की भेजी कविता बिना रुकावट पढ़ने का भी जुगाड़ कर देंगी। लेकिन फिर भी निर्दयी तो बहुत हैं। जब भी कुछ लिखने का मन होगा तभी याद दिलवा देंगी चाय या खाने का समय और मेरा कॉलर पकड़ किचन में। इसके साथ-साथ दिन में दी गई छूट की कीमत रात में अपनी बात मनवा कर वसूल लेंगी। बस एक ही बात-तुम बहुत थक गई हो, पढ़ना- लिखना छोड़ो, बत्ती बुझाओ और सो जाओ, इसकी बात नहीं मानो तो कभी कंधे तो कभी बाजू, कभी एेड़ी तो कभी कमर के दर्द का रूप धारण कर बत्ती बुझा कर ही दम लेंगी।
दिन के सबसे जरूरी काम के लिए वो मेरी मुट्ठी से रोज रेत की तरह फिसल जाती है। मेरे ही घर में मेरे साथ बड़ी निर्ममता से पेश आती हैं जबकि इनके लिए मैं बरसों से तरसती आई हूं। यही फुर्सतें जो परदेस में इतना कहर ढाती हैं, देहरादून में कोमलता से पेश आती हैं। शायद पापा-मां से डरती हैं। घर के कामों की फेहरिस्त लिए मेरे ऊपर टंगी नहीं घूमती, दूध- सब्ज़ी-फल घर में है या नहीं, यह चिंता लिए मेरे पास नहीं आती, उलटे मुझे समझाती हैं क्या हुआ जो पिछले महीने होने वाले काम अभी तक नहीं हुए। कौन-सा तीर मार लेती उन्हें समय पर करके। यहां तो फुर्सतों के रंग और तेवर ही अलग हैं। इन्हें किसी बात की जल्दी नहीं। मुझे जरूरी और गैर जरूरी कामों से मुक्त रखती है। रात को जब मैं पढ़ना-लिखना सिरहाने रख मम्मी के साथ उनके सीरियल देखते हुए अपनी फुर्सत की बलि चढ़ाती हूं, बिना शिकायत सुबह की अंगड़ाई संग कोहनियों में चटकती हैं।
साभार : नीरत डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम